अटूट बंधन परिवार द्वारा आयोजित “एक दिन पिता के नाम ‘श्रंखला में
आप सब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया इसके लिए हम आप सब रचनाकारों का ह्रदय से धन्यवाद करते हैं | हमारी कोशिश रही कि हम इस प्रतियोगिता में अच्छी से अच्छी रचनाओं को ब्लॉग पर प्रकाशित करे …. जिससे पाठकों को एक एक स्थान पर श्रेष्ठ सामग्री पढने को मिले | वैसे पिता के प्रति हर भाव अनमोल है हर शब्द अनूठा है हर वाक्य अतुलनीय है | ……… हम अपने आधार पर किसी भी भावना को कम या ज्यादा घोषित नहीं कर कर सकते थे पर लेखन कौशल और भावों की विविधता को व् रचनाकार के विजन को देखते हुए हमने ब्लॉग पर प्रकाशित की जाने वाली रचनाओं का चयन किया है | हमें प्राप्त होने वाली ५० से अधिक कविताओं में से हमने ७ का चयन किया है| आज प्रतियोगिता के अंतिम दिन आप संजना तिवारी , इंजी .आशा शर्मा ,तृप्ति वर्मा ,दीपिका कुमारी ‘दीप्ति ‘डॉ भारती वर्मा बौड़ाई ,रजा सिंह व् एस .एन गुप्ता की कवितायें पढेंगे | इस प्रतियोगिता के सफलता पूर्वक आयोजन के लिए “अटूट बंधन “परिवार रचनाकारों ,पाठकों व् निर्णायक मंडल के सदस्यों का ह्रदय से आभार व्यक्त करता है |
पापा मैं आप जैसी
क्या इन यादों के लिए
कोई शब्द भी हैं ?
या इस पीड़ा के लिए
कोई मरहम ??
मैं आपको खोजती हूँ
जाने कहाँ – कहाँ ??
आप मृत्यु शया पर सज कर
कब के जा चुके हो !!
ये यकिन दिलाऊं भी
तो खुद को कैसे ??
आईना देखती हूँ तो
पाती हूँ —–
वही आँखे….
हाँ ” पापा ” आपकी
वही आँखे ……
जिनसे नजरें मिलाना
मुझे पाप लगता था
आज चिपकी हैं
मेरी ही आँखों पे ….।
खुद को मुस्कुराते
देखती हूँ तो….
महसूस होता है जैसे
जैसे….
ये वही हुबहू चेहरा है
आपका !!!!!!
मुस्कुराता चेहरा ….।।
जब कभी बच्चों को
झिड़कती हूँ झूठे
तो लगता है ये डांट…..??
ये तो वही डांट है
जो कई बार आपने
मुझे सुनाई थी झिड़कियों में ….।।
मैं आपकी एक झलक नहीं
पूर्ण व्यक्तित्व बन चुकी हूँ
मेरे हाथ -पैर ..
और उनकी सूजन भी….
उठना – बैठना – चलना
और खीजना भी…..
हाँ आप ही तो हैं
मेरे भीतर -मेरे भीतर
साँसे ले रहे हैं ….
हैं ना ?????
जानते हैं ” पापा ”
नहीं देखती हूँ मैं
खुद को रोते हुए
क्योंकि आपकी ये लाडो
नहीं देख पाएगी
आपको खुद में
रोते हुए……
नहीं देख पाउंगी मैं
आपको रोते हुए …….
संजना तिवारी
याद है मुझे पापा
एक अटूट बंधन है
पिता का पुत्री से ,
माँ जननी तो पिता भाग्यविधाता,
पिता की यादें वो खुशियाँ मानो
ऊसर भूमि पर हरियावल।
याद है मुझे
पिता की सारी बातें
बिताए गए उनके साथ वो पल -पल
की हँसी, खेल, तमाशे,
मेरा रूठ जाना उनका मनाना,
मेरी एक एक जङता को पूरा करना।
याद है मुझे
मेरे वो तोहफे फ्रॉक, गाडियाँ व मिठाइयाँ,
जिसे छिपा देते तकिये के नीचे
और ताकते दूर से, मानो खोज रहे
मेरे चेहरे की खुशियाँ।
याद है मुझे
पिता के जीवन की पहली कामयाबी,
उनका बाइक खरीदना और
मुझे पहले बैठा घुमाना ।
याद हैं मुझे
दिन भर खेल गर दुख जाते पैर
मेरे तो पिता का उन्हें सहलाना।
याद हैं मुझे
हर रात खेल कही भी सो जाती मैं
पर आँखे खुलती तो पिता को ही
पास पाती मैं।
तृप्ति वर्मा
बस माँ की ममता को जाना
तब महत्ता इसकी पहचाना
पिताजी प्रथम पुज्य भगवान (कविता)
मेरे सर पर उनकी साया है वे हैं मेरा आसमान।
मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।
ऊंगली पकड़ के चलना सिखाया,
जीवन का हर मतलब समझाया,
मेरे मंजिल का उसने राह बताया,
आगे बढ़ने का मुझमें जोश जगाया,
उनके आशिर्वाद से हम पा लेंगे हर मकाम।
मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।
प्यार से भी कभी नहीं डाँटा,
बचपन में भी कभी न मारा,
कैसा है सौभाग्य ये मेरा,
बाबुल रुप में भगवान मिला,
इनके पावन चरणों में ही मेरा है चारो धाम।
मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।
अपनी चाहत कभी न जताया,
धैर्य का उसने भंडार पाया,
वृक्ष बन देते शितल छाया,
स्वर्ग से सुंदर घर बनाया,
मेरी यही तमन्ना है मैं बढ़ाऊं इनकी शान।
मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।
– दीपिका कुमारी दीप्ति (पटना)
पिता
एक सम्पूर्ण संसार है
एक सुरक्षा है
आश्वासन है
कर्तव्य है
अधिकार है।
एक छाया है
जिसके तले महफूज़ है
बेफिक्र है।
पिता का जो कुछ है
अपना है ,
नहीं है कुछ उसका
जो संतान का है।
उसकी श्रम ,सम्पति और अधिकार
अपने जाये के लिए है।
माँ का सुहाग है
पिता ,
उसकी आशाओ ,आकांक्षाओं ,कल्पनाओ
और भावनाओ का
केंद्र है पिता।
जब तक पिता है
तब तक माँ का अस्तित्व
पिता के बगैर
निर्जीव ,बेसहारा और
असहाय है।
परिवार की आन ,बाण और शान हैं
पिता ,
माँ धरती
तो पिता आकाश है।
माँ का कोई विकल्प नहीं
तो पिता की कोई सीमा नहीं होती।
——–राजा सिंह
हे तात !
जिन राहों पर तुम चले वहां कहीं फूल नहीं होते थे
झंझावातों से टकराते थे वहां बस शूल बिछे होते थे
वर्षा सम अश्रु थे अंतस में मन सूना सूना रहता था
आशाएं थीं गहन सन्नाटॆ में श्वासों में विचलन था
बचपन क्या यौवन दोनों पर तूफ़ान सा बरपा था
कहने को उजले दिन थे किन्तु तिमिर ही गहरा था
भावों की खेतों में तुमने कुछ अपने सपने बीजे थे
जो स्वेद-अश्रु मिश्रित पावन जल बूंदों ने सींचे थे
स्वप्न जो कल देखे तुमने आगत उनमें झलके था
ममता चमके थी नैनों में सब कुछ न्योछावर था
याद हमें है मंजर जब सब ठहरा ठहरा लगता था
अंजानी राहों पर चलना मन आशंकित करता था
तुम बन कर ऐसे मार्गदर्शी सद्ऱाह दिखा देते थे
प्रतिफल की चाह नहीं किंचित आगे बढ़ आते थे
मानवता की सीमाओं का जब भी लंघन होता है
हे तात ! तुम्हारा मार्ग सदैव अवलम्बन देता है !!
एस एन गुप्ता
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bahut sundar kavitayen…man ko kahin gahrai se chhuti huyee..
मन छूती है सारी कविताएँ..बहुत ही आत्मीय और भावों से लबरेज👌👌