नाम में क्या रखा है : व्यंग -बीनू भटनागर

नाम की बड़ी महिमा है, नाम पहचान है, ज़िन्दगी भर साथ रहता है। लोग
शर्त तक लगा लेते हैं कि
‘’भई, ऐसा न हुआ या वैसा न हुआ तो मेरा नाम बदल देना।‘’ ग़लत कहा था शेक्सपीयर ने कि नाम मे क्या रखा है! नाम बडी अभूतपूर्व चीज़ है! उसके महत्व को नकारा ही नहीं जा सकता। माता पिता ने
नाम रखने मे कुछ ग़लती कर
दी तो संतान को वो आजीवन भुगतनी पड़ती है। आज कल माता पिता बहुत सचेत हो गये
हैं और वो कभी नहीं चाहते कि बच्चे बड़े होकर उनसे कहें
‘’ये क्या नाम रख दिया आपने मेरा!‘’

पुराने ज़माने मे लोग नाम रखने के लियें ज्यादा परिश्रम नहीं करते थे या तो
किसी भगवान के नाम पर नाम रख दिया या फिर वही उषा
, आशा, पुष्पा, शीला, रमेश, दिनेश, अजय और विजय जैसे प्रचिलित नामो मे से कोई चुन लिया।
गाँव के लोग तो मिठाई या बर्तन के नाम पर भी नाम रख देते थे
, जैसे रबड़ी देवी, इमरती देवी या कटोरी देवी आदि।
दक्षिण भारत से हमारे एक मित्र हैं जिनका नाम जे. महादेवन है। जे. से जनार्दन
उनके पिता का नाम था। जब महादेवन जी का पहला पुत्र हुआ तो उन्होंने उसका नाम
जनार्दन रख दिया और पुत्र ऐम. जनार्दन हो गये
, इस प्रकार उनके कुल का पहला
पुत्र या तो एम. जनार्दन या जे. महादेवन ही होगा। दूसरे पुत्र का नाम नाना का होता
है। पहली पुत्री का नाम दादी का और दूसरी पुत्री का नानी का नाम ही होता है। यदि
इससे अधिक बच्चे होते हैं तभी नया नाम खोजना पड़ता है।कितना अच्छा तरीका है
, नाम भी ख़ानदानी हो गया !
दक्षिण भारत मे नाम से पहले वर्णमाला के कई अक्षर भी लगाने की प्रथा है, इन अक्षरों से पिता का नाम, गाँव का नाम, ज़िला तक पता चल जाता है। यहाँ
नाम मे पूरा पहचान पत्र छिपा होता है। महाराषट्र और कुछ अन्य प्रदेशों मे महिलाओं
के लियें पति या पिता का नाम सरनेम से पहले लगाने का प्रचलन है
, पुरुष भी पिता का नाम लगाते हैं, यानि संरक्षक के नाम से पहचान
और भी पक्की कर दी जाती है।
उत्तर भारत मे पहचान से ज्यादा नये नाम की खोज करने का अभियान महत्वपूर्ण है।
नये बच्चे का नाम रखना भी आजकल बड़ी महनत का काम हो गया है। अधिकतर पहली बार बनने
वाले माता पिता बच्चे के नाम की खोज जन्म से पहले ही शुरू कर देते हैं। ऐसे अति
उत्साहित माता पिता को दो नाम खोजने पड़ते हैं
, एक लड़की का और दूसर लड़के का।
पहले बच्चे का नाम खोजते खोजते कभी दूसरे बच्चे का नाम भी सूझ जाता है। अतः महनत
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बेकार नहीं जाती, जो इस दोहरी महनत से बचना चाहते हैं, उन्हे बच्चे के जन्म तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
बच्चे का नाम कुछ नया….. कुछ नहीं, एकदम नया होना चाहिये, जो कभी किसी ने सुना ही न हो। नया नाम रखने की इस धुन
मे जो लोग हिन्दी बोलने मे हकलाते हैं या हकलाने का नाटक करते हैं
, उनका हिन्दी क्या, संसकृत से भी मोह हो जाता है। हिन्दी संसकृत के अलावा
बंगला
, गुजराती, मराठी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं
का अध्ययन करके वहाँ के साहित्य से या पौराणिक गाथाओं से नाम लेने के लियें भी लोग
बड़ी माथापच्ची करते हैं। कोई
नाम इतने जतन से ढूँढ कर रक्खा जाता है
, तो उसके उद्गम और अर्थ की
जानकारी माता पिता को होती ही है
,जब कोई उनसे बच्चे का नाम
पूँछता है तो वे बड़े गर्व से बताते हैं । वे
अपने पूरे नाम अनुसंधान कार्यक्रमकी जानकरी ऐसे देते हैं मानो सीधे भाषाविज्ञान मे पी. एच. डी. कर के आ रहे हैं।
 हमारे एक परिचित युवा दम्पति ने अपनी
पहली संतान जो कि पुत्र है उसका नाम रक्खा
‘’स्तव्य ’’ पहली बार मे किसी के समझ मे ही नहीं आया, किसी ने समझा ‘’स्तब्ध’’ किसी ने ‘’तव्य’’। माता पिता ने बताया कि स्तव्यका अर्थ विष्णु भगवानहोता है। हम तो पूरी तरह अभिभूत हो गये उनके ज्ञान पर! विष्णु के पर्यायवाची शब्द कभी अपने बच्चों को रटाये अवश्य
थे
, पर स्तव्य तो याद नहीं आ रहा। हिन्दी मे थोड़ा बहुत
लिख लेते है इसका यह मतलब नहीं कि हमने हिन्दी का शब्द कोष कंठस्त किया हुआ है
, सोच कर ख़ुद को दिलासा दिया। अब ये स्तव्यथोड़े बड़े हुए तो किसी ने पूछा ‘’बेटा तुम्हारा नाम क्या है ?’’ वह तोतली ज़बान मे कहते ‘’तब’’, तब माता पिता को ‘’स्तव्य’’ शब्द के बारे मे अपना ज्ञान बाँचने का एक और अवसर मिल जाता है!
इस संदर्भ मे एक और नाम याद आरहा है ‘’हिरल’’ जी हाँ, आपने सही सुना ‘’हिरल’’ यह नाम एक उत्साही मातापिता ने गुजरात से आयात किया है। गुजराती मे इसका क्या
अर्थ होता है
, उन्होंने बताया तो था, मुझे याद ही नहीं आ रहा। किसी
भी भाषा को बोलने वाले दूसरे प्रदेश की भाषा के नाम रख रहे हैं
, इससे अच्छा देश की भाषाई एकता का और क्या सबूत होगा! साथ ही साथ आपका एकदम नया नाम खोजने का अभियान भी
सफल हो गया। वाह क्या बात है ! एक पंथ दो काज !
सिक्खों को नाम रखने मे एक बड़ी अच्छी सुविधा है , लड़की लड़के के लियें अलग अलग नाम नहीं ढूँढने पड़ते, बेटी के लियें कौरलगा दिया, बेटे के लियें सिंह’, बस हो गया अन्तर।
 
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कभी कभी एक असुविधा या सुविधा भी कह सकते हैं, हो सकती है , यदि लड़का लड़की एक ही नाम वाले मिल जायें तब ‘’मनदीप सँग मनदीप’’ शादी के निमंत्रण पत्र मे छपवाना पड़ेगा। यह तो अच्छा ही लगेगा, ऐसा संयोग किसी को मुश्किल से ही मिलता होगा। पति-पत्नी अपने ही नाम से एक
दूसरे को पुकारेंगे । पुकारने से याद आया कि कभी कभी माता पिता ऐसे नाम रख देते
हैं जिसके कारण बच्चों को एक अजीब स्थिति का सामना करना पड़ सकता है
, जैसे प्रियानाम अच्छा है पर राह चलते हर व्यक्ति बेटी को प्रिया पुकारे तो क्या अच्छा
लगेगा !
हनीया स्वीटीभी बेटियों के नाम रखने मे यही
ख़तरा है। लोग बेटों के नाम
सनमया साजनतक रख देते है तो ऐसे मे मां
बहने क्या कह कर पुकारेंगी
!
 एक समय हमारे यहाँ दोहरे नाम रखने के
प्रचलन ने भी ज़ोर पकड़ा था। दक्षिण भारत मे भानु-प्रिया
, सुधा-लक्ष्मी और जयप्रदा जैसे नाम बहुत पहले से रक्खे जाते थे, उत्तर भारतीयों ने भी यह प्रयोग किया और उदित भास्कर, सुर सरिता या भानु किरण जैसे नाम सुनाई देने लगे। इस श्रंखला मे ही कुछ और नया
करने के लिये
‘’शुभी शुभाँगिनी’’, ‘’ प्रीति प्रियंका’’ नाम भी रक्खे गये, इनसे ऐसा लगा कि लोग कहना चाहते हैं कि ‘’हमारी बेटी का नाम तो शुभाँगिनी है पर यह कठिन लगे तो आप उसे शुभी कह सकते
हैं। हम भी शुभी ही कहते हैं।
‘’ ‘’प्रियंका को भी प्रीति कहा जा सकता है।‘’ दोहरे नाम ने पूरा संदेश दे दिया।
नये से नये नाम की खोज करने वालों का जुनून देखकर कुछ प्रकाशकों ने नामों की
पुस्तिकाये भी छाप दी हैं। बाज़ारवाद का नियम है जो बिकता है वही बनता है। हमारे
जैसे क्या
,अच्छे अच्छे बड़े बड़े लेखकों और कवियों को प्रकाशक
नहीं मिलते
, पर नामो की सूचियों की पुस्तिकायें ख़ूब छप रहीं
है।छात्र जब पाठ्य पुस्तकें न पढके कुँजियों और गाइड से पढ रहे हैं
, तो भावी माता पिता विभिन्न स्रोतों से जानकारी न लेकर इन पुस्तिकाओं से काम
चला रहे हैं। नामो को वर्णमाला के अनुसार रखकर
, अर्थ सहित और कभी कभी उद्गम की
जानकारी के साथ
, ये पुस्तिकाये खूब बिक रहीं थी, पर इंटरनैट ने इनकी ज़रूरत को भी कम कर दिया है। नामावलियाँ आज हर चीज़ की तरह
इंटरनैट पर भी उपलब्ध हैं। कितना आसान हो गया नाम रखना ! हींग लगे न फिटकरी और रंग
चोखा होय !
भारत से अंग्रेज़ चले गये, पर अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत छोड़ गये, काफ़ी हद तक सही है। हम अंग्रेजी को भारतीय भाषाओं से ज्यादा मान देने लगे, रसोई मे पटरे पर न बैठकर मेज़ कुर्सी पर बैठकर खाना खाने लगे वगैरह वगैरह परन्तु नामो के मामले मे हमने उनकी नक़ल नहीं की, उनके यहाँ तो गिने चुने नाम हैं टौम ,डिक, हैरी, जेम्स, जौन, डायना या डौना। राजा रानियों के नाम के आगे प्रथम, द्वितीय या तृतीय लगाकर काम चला लेते हैं। हमारे जितनी महनत करके नाम चुनने का
काम शायद ही कंही किया जाता हो
!
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 बहुत
से कवि और लेखक नाम को एक क़दम और आगे ले जाते हैं और अपना एक उपनाम रख लेते हैं
, जो
अक्सर उनके नाम से अधिक लोकप्रिय हो जाता है। अब कितनों को याद होगा कविवर
निरालाजी
का नाम सूर्य कांत त्रिपाठी था या
दिनकरजी रामधारी सिंह थे। उस ज़माने में महादेवी वर्मा और
सुभद्रा कुमारी चौहान जी ने कोई उपनाम नहीं रखा
, इस पर
शोध होने की ज़रूरत है। क्यों महिलाओं को सफल कवियत्री होने के बावजूद उपनाम रखने
में हिचकिचाहट हुई
? हरिवंश
राय
बच्चनजी
के उपनाम के तो क्या कहने ! पूरे परिवार को ऐसा पसन्द आया कि सरनेम ही बना लिया
गया। अमिताभ से लेकर आराध्या तक सब बच्चन हो गये
!
नाम के साथ आज के अनुभवी लेखक और कवि तो
उपनाम लगा ही रहे हैं पर कुछ कवि अपनी पहली कविता के साथ ही साहित्य के मैदान में
उपनाम के साथ उतर रहे हैं। आजकल का सबसे आकर्षक उपनाम व्यंगकार अविनाश वाचस्पति जी
का है। ये
‘’मुन्ना
भाई
’’ के
नाम से जाने जाते हैं
,
ये उपनाम संजय दत्त ने इनसे चुराया है या इन्होने संजय
दत्त से मांगा है इसकी जानकारी मुझे नही है। इन्होने अपना एक जुड़वाँ भाई
‘’अन्नाभाई’’ भी
तैयार कर लिया है
, इसलियें
ये कभी अविनाश वाचस्पति
‘’मुन्नाभाई’’ बन जाते है और कभी अविनाश वाचस्पति ‘’अन्ना
भाई
’’
दोहरे नाम वाली प्रथा आम लोगों की तरह
साहित्यकारों मे भी फल फूल रही है।दोहरे नाम वालों मे आज के अनुभवी लेखकों में
लालित्य ललित जी
, रचना
आभा जी और गिरीश पंकज जी का नाम लिया जा सकता है। लालित्य जी
, अरे
नहीं ललित जी का असली नाम ललित किशोर मंडोरा है
,
उन्होने अपने असली नाम से ललित ले लिया और किशोर को विदा करके लालित्य ललित बन
गये। ये उनका लेखकीय नाम हो गया जो साहित्यिक भी लगने लगा।
रचना आभा जी का नाम रचना त्यागी है। सही है  ,उपनाम नहीं लगाया तो दूसरे
कवि उन्हे कवियत्री मानने से इन्कार कर देंगे। उपनाम के बिना कवि ख़ुद को ही कवि
नहीं मान पाते हैं
, अधूरापन
लगता है। एक और कवियत्री है नीलू पटनी जिनका उपनाम
नील परीहै वाह! क्या कहने ! नाम ही काव्य है!
यहाँ तो सोचिये
, कविता
में कितना वज़न होगा।
श्री गिरीश पंकज जी के
नाम की गुत्थी अभी नहीं सुलझी है कि कौन सा उनका नाम है और कौन उपनाम!
हिन्दी में आचार्य की उपाधि कोई
विश्वविद्यालय देता है या कोई विद्वान गुरुजन किसी योज्ञ पात्र को ये उपाधि दे
सकते हैं इसका मुझे ज्ञान नहीं है। कई विद्वानो के नाम के आगे जब आचार्य लिखा
देखती हूँ तो पता चल जाता है कि इन की रचना को समझने में बहुत
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समय लगेगा। आचार्य संजीव वर्मा सलिलजी
जो लिखते हैं
. वह समझने के लिये एड़ी से चोटी तक का दम
लगाने पर तथ्य का
50 %
ही समझ में आ पाता है
! एक अपने छोटे भाई जैसे ही मित्र हैं
आचार्य उमा शंकर सिंह परमार उनको तो मैं बता चुकी हूँ कि मुझे उनका स्टेटस समझने
के लियें चार बार पढ़ना पडता है
, तो उनकी किसी किताब को पाठक कहाँ से मिलेंगे ! उन्हे
किताब पर एक चेतावनी छपवानी पडेगी
‘’केवल आचार्यों के लिये, Phd की उपाधि प्राप्त लोग पढ़ने की कोशिश कर
सकते हैं पर न समझ आये तो इसके लियें लेखक या प्रकाशक ज़िम्मेदार नहीं होंगे
’’
P h d की उपाधि प्राप्त लोग ज़ाहिर  है नाम के आगे
डा. लगाते हैं
, हक
है ये उनका
, पर
बहुत
से चिकित्सक भी लेखन के क्षेत्र में उतर
पड़े हैं
, जब
मरीज़ नहीं आया तो कविता लिख
ली। जैसे अपनी डा. अरुणा कपूर!
अपने नाम के आगे कवि लिखने वाली हस्तियों में सबसे पहले मैं कवि देव भारती का नाम
लूँगी। उनके बाद बहुत से नाम है किसी को आगे पीछे करने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा
कुछ नाम देखिये कवि सुरेन्दर साधक
, कवि ऐलेश अवस्थी, कवि सोमदत्त व्यास, कवि
कुमार मनोज
, कवि
नन्दू भदौरिया
मदहोशऔर
कवि नरेश पटेल इत्यादि
……
इत्यादि……..
कुछ शायर और कवि अपने नाम के साथ अपने शहर
का नाम लिखकर उसे गौरव प्रदान करते हैं जैसे साहिर लुधियानवी या जिगर मोरादाबादी।
कई शायरों ने लखनवी
, इलाहाबादी,
देहलवी या बरेलवी लिखकर अपनी उपस्थिति दिखाई। एक बहुत छोटे से कस्बे से जिसका नाम
दनकौर है
, ये
है कहाँ
? ये
भी कोई नहीं जानता होगा
 दनकौर ग़ाजियाबाद और अलीगढ के बीच दिल्ली हावड़ा
लाइन पर एक छोटा सा स्टेशन है
, जंहाँ सिर्फ पैसेन्जर ट्रेन रुकती हैं। इस
जगह से साहित्य के पटल पर अपनी मौजूदगी दर्ज की दीक्षित दनकौरी नाम ने। दीक्षित
इनका सरनेम है पूरा नाम मुझे मालुम नहीं
,इस
छोटे कस्बे की बड़ी हस्ती को सलाम
!
कभी कभी पुरुषो के नाम ऐसे रख दिये जाते
है जो आम तौर पर महिलाओ के होते हैं इसके विपरीत महिलाओं के नाम भी पुरुषों वाले
रख दिये जाते हैं। मेरे एक कवि मित्र ने अपनी राम कहानी सुनाई उनका नाम चंचल मोहन
है। चंचल जाहिरी तौर पर महिलाओं का नाम है। एक बैंक में उनका खाता श्रीमती चंचल
मोहन माथुर नाम से चलता रहा।
चारू
शर्मा जी वही खेल विशेषज्ञ उनका नाम भी ऐसा ही है।
नामों को लेकर शायद अब तक इतना शोध किसी
ने न किया हो
, यदि
किसी विश्व विद्यालय के उच्चाधिकारियों
की निगाह मेरे इस शोधपत्र पर पड़ गई तो हो
सकता है मुझे घर बैठे बैठे
Phd की उपाधि मिल जाय और मैं डा. बीनू भटनागर लिख सकूँ। यदि
मुझे कभी
 
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  लगा
कि मै लेखिका या कवियत्री बन गई हूँ तो मै भी एक उपनाम रक्खूंगी और वो होगा
कुमुद।ये
नाम मेरे लिये मेरे माता पिता ने सोचा था
, पर मै ही बचपन मे ख़ुद ‘’ मै
बीनू मै बीनू
’’ कहने
लगी तो उन्होने मेरा नाम ही ये रख दिया। काश ! उन्होने मेरी बात न मानी होती
…..!
बच्चे के पैदा होते ही अगर पहले से नाम न
सोचा हो तो लोग उसे मुन्ना-मुन्नी
, गुड्डु-गुड़िया या बंटी-बबली जैसे नामो से पुकारने लगते
हैं
, बाद
में उनका नाम कुछ भी रख दिया जाये ये नाम जीवन
भर
के उनके साथ चिपक जाते हैं
, बचपन के इन्ही नामो से वो पहचाने जाते हैं। ऐसा ही एक
बड़ा प्यारा सा नाम है पप्पू
बहुत सारे पप्पू होंगे जिन्हें अब अपना ये नाम बिल्कुल
भी पसन्द नहीं होगा और इससे छुटकारा पाना चाहते होंगे और राह नज़र

आती होगी
…! आजकल
तो माता-पिता प्यार से अपने बेटे का नाम पप्पू कभी नहीं रखेंगे
, क्योंकि
अब पप्पू तीन वजह से जाना जाता है- सबसे पहली वजह कि पप्पू डांस नहीं कर सकता
, दूसरी
वजह कि पप्पू पास हो गया और तीसरी वजह कि एक बहुत (ना) कामयाब राजनैतिक पार्टी के
वारिस को भी इस नाम से जाना जाता है
, अब कोई ये नाम रख दे तो बच्चों को बिलकुल अच्छा नहीं
लगेगा!
घर के नाम कभी कभी वास्तविक नाम को छोटा
करने के लिये भी रख दिये जाते हैं- जैसे नीलिमा को नीलू
, नीरजा
को नीरू
, राजकुमार
को राजू
, रामकुमार
को रामू
, तनुजा
को तनु
, राघवेन्द्र
को रघु या मीनाक्षी को मीनू अक्सर कहा जाता है। कभी-कभी घर का नाम रख लिया जाता है
पर असली नाम बहुत बाद में रखा जाता है। ऐसे में दोनों में कोई संबध ही नहीं होता।
जैसे शैलेन्द्र को रूबी या विक्रम को बौबी कहा जाये।आज कल तो एक दो बच्चे होते
हैं। पहले जब
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और ज़्यादा होते थे। नाम याद रख पाना कितना मुश्किल होता होगा
, वो
भी जब सबके दो दो नाम हों।बाहर वाले क्या माता पिता भी भूल जाते होंगे कि चुन्नू
का नाम राकेश है या मुन्नू का!
आप में
से कुछ को शायद याद भी न हो एक अभिनेता थे
अरे थे नहीं, हैं..
कुमार गौरव
, वही
अपने राजेन्द्र कुमार साहब के पुत्र
, तब मन मे विचार आया था कि ये कुमार गौरव क्यों हैं
इन्हें तो गौरव कुमार होना चाहिये था।
आजकल कुमार विश्वास भी चर्चा में है। इसी
तरह कुमार राज भी कुछ उल्टा सा लगता है होना तो राजकुमार चाहिये
भारत में नाम के अर्थ को बहुत महत्व दिया
जाता है। अब अंग्रेज़ों की तरह हमारे यहां टौम
, डिक, हैरी जैसे निरर्थक शब्द को तो नाम के रूप
में रखने का रिवाज तो नहीं है। नाम के अर्थ मे सकारात्मकता और सद्गुण होने चाहिये
इसलिये
गर्वनाम
रख सकते हैं
घमंडी
7          
  
नहीं, इसी तरह सुरीलीनाम हो सकता है बेसुरीनहीं
परन्तु हिन्दी का कम ज्ञान होने के कारण माता-पिता कभी कभी नकारात्मक नाम रख देते
हैं।
मैने एक बार ऐसा नाम सुना है…. आशंका…
सच्ची
! आकांक्षा … तो सुना है पर आशंका!
नामों से कभी-कभी व्यक्ति की आयु का
अनुमान लगाया जा कता है
,
उत्तर भारत में जैसे किसी का नाम यदि रामेश्वर प्रसाद हो
तो उसकी आयु सत्तर के पास होगी
, इस आयुवर्ग में ऊषा, सरोज, विजय उमा, उमाशंकर जैसे नाम मिलेंगे। 60 के
आसपास अशोक
, माया, विक्रम
मिलेंगे।
50 के
पास अजय
, विशाल, रश्मि, रेखा
आदि का बोलबाला होगा।
30-40
की आयु वर्गों मे मर्दों में राहुल, करण
और अभिषेक बेशुमार होंगे। महिलाओं मे पूनम
, ज्योति और ज्योत्सना और सुमन की बहार
होगी।
20 से
अधिक मे नेहायें और पूजायें लाइन लगा कर खड़ी होंगी।इसके बाद के दशकों मे ईशान
, ईशा, अंकित, अंकिता
और अनुश्री की दावेदारी है। पिछले
10- 20 साल के अंदर सारे अजीबो ग़रीब नाम विवान, वियान, कियान, समायरा, नाइसा, हिरल, विरल
या ऐसे ही नाम आते हैं
,
जिनका या तो अर्थ कुछ नहीं है, या
हमारे जैसों को नहीं मालूम
!
ये नाम पुराण कुछ ज़़यादा ही लम्बी हो
गई  अब और लिखा तो आप मुझे ढूंढते हुए आ
जायेंगे मै नहीं चाहती कि  क्रोध के कारण
आपके  हाथों कोई खून हो जाये…. सिरदर्द
की गोली की ज़रूरत पडेगी वो खा लीजियेगा… प्रकाशक बिल भेजने पर भुगतान कर
देगे….. ………………
बीनू भटनागर 
साहित्यकार 
दिल्ली 
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1 thought on “नाम में क्या रखा है : व्यंग -बीनू भटनागर”

  1. Pta nahi lekhika ki paidaeesh kis sdi ki hai, mere samay mein to pandit ji Ramayan ke agrim panno pr akshroN ki bani table par aankhein band karwakar bachche ke Ma ya Baap se ungli rakhwate the. Is tarah jo aksar chuna jata, ussi aksar se BachchoN ka naam rakha jata tha.
    Mere khayal se uttar Bharat mein Hindus ki aaj bhee yahi pratha prachlit hai!

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