नारी मन पर वंदना बाजपेयी की लघुकथाएं

                          नारी मन मनोभावों का अथाह सागर है |इनमें से कुछ को लघुकथाओ में पिरोकर आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहीं हूँ | कहाँ तक सफल हूँ … आप बताएं 




तकिया 


ये फिर बाबूजी लेटने  चले ………..  फिर वही  चिल्लाने  की आवाज़ ” ये मेरा  तकिया किसने छुआ  और फिर “ हम दोनों  बहने सहमी  सी खड़ी हो जाती “नहीं बाबूजी हमने नहीं छुई “।
घर की सबसे अच्छी  तकिया पर बाबूजी का ही कब्ज़ा  था ,हालाँकि वो भी थोड़ी गुदडी-गुदडी हो गयी थी …. पर हम दोनों बहनों  की शादी का खर्च  सोच कर बाबूजी  नयी तकिया लेते नहीं थे।
अब जब बाबूजी को नींद नहीं आती तो सारा दोष बेचारी तकिया को देते।  करीने से सहला कर उसके रुई पट्टों को ठीक करते …. फिर लेटते …..फिर करवट बदलते ….  फिर चिल्लाते
  ” ज़रूर मेरी तकिया को किसी  ने छुआ  है”।
उनका चिल्लाना  और अम्माँ  का रोना ” हाय न जाने किस भूतप्रेत का साया हो गया है मरी तकिया के पीछे पड़े रहते है”  रोज़  का सिलसिला  हो  गया है..   अब ऐसे नहीं चलेगा ,किसी झाड़ -फूँक वाले को बुलाना  पडेगा। ………………… बिमारी ज्यादा बढ़ गयी तो। …”हे प्रभु दया करना !
पिताजी तकिया के पीछे पड़े रहते थे और माँ भूतप्रेत के।
आज जब पिताजी काम से लौटे तो उनके चहरे पर मुस्कान थी ।हमने बहुत दिन बाद उन्हें मुस्कुराते हुए देखा था। … फिर भी ऐेतिहात के तौर पर हम अपनी पढ़ाई में लग गए , फिर से कहीं  नाराज ना हो जाए। बाबूजी के माँ से बात करने के स्वर हमें सुनाई दे रहे थे। ……………… वो चहक -चहक कर अम्माँ को बता रहे थे “सुनती हो ,आज तुम्हारी पूजा सार्थक हो गयी  श्यामलालजी अपने बड़े बेटे के साथ अपनी बड़ी बिटिया की शादी को राजी है।  वह दहेज  लेने से भी मना  क्रर  रहे है।  माँ बार  – बार हाथ जोड़ कर ईश्वर का धन्यवाद देने लगी “हे नाथ जैसे हमें तारा है ,सबको तार देना  “।
ग्यारह  बज गया , पिताजी सोने चले गए है,हम दोनों बहने पिताजी की तकिये को कोसने की आवाज़ की प्रतीक्षा करने लगे। …………….  पर ये क्या आज कोई चिर-परिचित आवाज़ नहीं आई।  कमरे में जा कर देखा पिताजी चैन से सो रहे थे।  उनके चहरे पर बच्चों सी निश्चिंतता  थी। 
हम दोनों बहनों  को तकिये का रहस्य पता चल गया था।


2 ………………… दर्द 



सुमि अकेले ही रहती है । पति को तीन साल के लिए दुबई में नौकरी मिल गयी है । सुमि की नौकरी यहाँ है … अतः वह  पति के साथ जा नहीं सकी । बच्चे हॉस्टल में पढ़ते हैं ।

अकेलापन जैसे काटने को दौड़ता । मन उदासी का शिकार हो  गया था । शोर बिलकुल अच्छा नहीं लगता था । ऊपर से सामने बनने  वाले मकान का शोर………..  तौबा – तौबा । मकान का शोर तो वह बर्दाश्त भी कर लेती पर  सबसे ज्यादा उसे खटकती थी एक मजदूर स्त्री की आवाज । उसकी बहुत जोर कनकनाती  सी आवाज थी ।

शायद उसका नाम सुभागी था … अकेली वही बनते हुए मकान में रहती थी । काला  रंग, बेतरतीब बाल, मिटटी से सनी साडी, उपर से यह कनकनाती सी  आवाज । कुल मिलाकर सुमि को वह सख्त नापसंद थी ।सोचती थी कब यह मकान बने और कब वो यहां से जाये।

जीवन धीमी गति से आगे बढ़ रहा  था । आज सुमि जल्दी ही घर आ गयी ।
क्रोध, उत्तेजना, अपमान से उसका शारीर कांप रहा था । उसे अकेली समझ उसके बॉस ने …………….| उस समय तो वह चल दी …. पर हाँथ पैर अभी भी गुस्से से कांप रहे थे । चाय चढ़ा कर वही सोफे पर पसर गयी ।सर दर्द से फटा जा रहा था ,कितना गन्दा है यह समाज जो एक अकेली औरत को शांति से जीने नहीं देता , अपनी प्रॉपर्टी समझता है ………छी ,थू!  क्या करे , कहाँ जाये ?मन में विचार थमने का नाम नहीं ले रहे थे।

पर ये क्या … बाहर से सुभागी की जोर जोर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी ।गुस्से की आग में जैसे किसी ने घी डाल दिया हो |  ओफ्फो !वह तमतमाती हुई खडकी बंद करने गयी । पर वहां का नजारा देख कर जड़ हो गयी । सुभागी के हाथ में हंसिया था …. वह जोर  – जोर से एक मजदूर पर चिल्ला रही थी ।

 ‘ अकेली औरत हूँ पर कमजोर नहीं हूँ । हिम्मत कैसे हुई तेरी ऐसा बोलने की । काट कर फेंक दूँगी … डरती नहीं मैं किसी से … मेहनत की खाती हूँ  हराम की नहीं ‘
वह मजदूर डर कर भाग गया । सुभागी चिल्लाती रही ।

ना जाने सुमि को क्या हुआ उसने सुभागी को अपने पास बुला कर चाय का प्याला पकड़ा दिया । सुभागी सुड़क सुड़क कर चाय पीती जा रही थी और जोर जोर से अपनी बात बता रही थी ।

पर आज  उसकी आवाज सुमि को कर्कश नहीं लग रही थी ….. दोनों का दर्द जो एक था । 


औरत होने का दर्द 





३………लिपस्टिक 













मुझे लिपिस्टिक लगाना पसंद नहीं है। जब तक खास जरूरत न हो मैं इससे दूर ही रहती हूँ।,और “किट्टी पार्टी “आदी के लिए तो मेरे पास बिलकुल भी समय नहीं रहता है। पर उस दिन पड़ोस वाली सुलेखा जी पीछे ही पड़ गयी …….शांता जी के यहाँ “किट्टी पार्टी ” है ,तुम्हे चलना ही पड़ेगा ……… और हां लिपस्टिक जरूर लगा लेना। दरसल उनके अनुसार मुझ जैसे अनाडी को कुछ “सामाजिक शिष्टाचार “सिखाना बहुत जरूरी था। मैं श्रृंगार मेज के सामने कुछ देर तक लिपस्टिक लिए खड़ी रही ,लगाऊँ या न लगाऊँ की कश्मकश में मेरे सरल मन ने सुन्दर दिखने की चाह के ऊपर विजय पायी।
शांता जी के यहाँ एक बड़े से कमरे में बहुत सी महिलायें बैठी थी। अति उत्साह के कारण सुलेखा जी ने दरवाजे से ही मेरा सबसे परिचय करना शरू कर दिया। वो देखो … सबसे डार्क पर्पल लिपस्टिक लगाये हुए है …… वही जो सबसे तेज हँस रही है ,श्रीमती देसाई है उनके अपने ही सगे भाई ने प्रॉपर्टी के चक्कर में इनके पति कि हत्या कर दी थी। और वो जो टूनी रेड लिपस्टिक लगाये है……श्रीमती आहूजा हैं ……. उनका पति इनके साथ नहीं रहता बंगलोर में रहता है किसी और के साथ। वो ब्राउनलिपस्टिक लगाये हैं……श्रीमती मिश्रा ,इनका बेटा तो जब तब इन पर हाथ उठा देता हैं। वो कॉफ़ी लिपस्टिक …….वो मेजेंटा……. वो पिंक …… सुलेखा जी बताती जा रही थी।
मुझे पसीना आने लगा। मैं हर चेहरे को गौर से देख रही थी। अचानक मुझे लगने लगा।हंसती -मुस्कुराती दिखती इन महिलायों ने अपने होंठों पर लिपस्टिक नहीं लगा रखी है बल्कि पहरेदार बिठा रखे है जो रोक देते है रिसने से उनके दर्द और कसक को,और बनी रहती है उनके पिता की ,पति की ,भाई की ,बेटों की ,और घर की झूठी शान……… 





वंदना बाजपेयी 




4 thoughts on “नारी मन पर वंदना बाजपेयी की लघुकथाएं”

  1. आपने बड़े स्वाभिक ढंग से निम्न वर्ग के पारिवारिक कमजोर आर्थिक परिस्थितियों एवं माता पिता के दबी चिंताऐ, ममता तथा "लिपिस्टिक" में मेकअप के पीछे छुपाई दर्द का चित्रण किये हैं|

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