बाजरबाद की घुसपैठ ने लोगों को अपना कैदी बना लिया है,जिसमें लोग खुद को भी अनदेखा करने लगे है।
आज के दौर ने बाजारबाद को अपना घर बना लिया है ।जो मैन शुरूआत. यहीं से होती है।
बाजारबाद ने अपने इतने पैर फैला लिये कि लोगों का उसके बगैर चलना मुमकिन नही हो पा रहा है।क्या लोगों की सोच इतनी छोटी होती जा रही है ।इंसान ने अच्छे और बुरे का फर्क करना ही छोड दिया है। या अच्छे बुरे को अपनी सोच में पैदा नही करना चहाता।
क्या हमारे संस्कार इतने तकियानुसी हो गये जिन्हें बच्चे और परिवार मानना नही चहाता या हम खुद अच्छे संस्कार देना नही चहाते ।हमारे घरों से शुरु होने बाली ही चकाचौंध की बजह हमारी जेबों पर हबी है।जिसको लोगों को तवज्जो न देकर दिखावे को महत्व देते है।इस बजारबाद की बजह से अपराध की घटनाएँ बडती नजर आ रही है।जैसे कि हमारे समाज में शराब ड्रग्स सिगरेट पीना एक आम बात हो गई ॥
क्या हमारे संस्कार इतने घिसे पीटे होते जा रहे है कि ऐसी गलतियों को अनदेखा कर देतें है।यही से बच्चे गलत रास्तें पर जाते नजर आते दिखाई देने लगते है।
मगर हमारे अनदेखा करने के कारण बच्चे और भी आगे बढने लगते है।जो और बढे अपराध की श्रेणी में पहुँच जाते है।इसके दोषी हम खुद होते है।क्यों कि अधिक कमाने के चक्कर में माता पिता आज के दौर को अपना लेते है।
बाजारबाद ने अपने इतने पैर फैला लिये कि लोगों का उसके बगैर चलना मुमकिन नही हो पा रहा है।क्या लोगों की सोच इतनी छोटी होती जा रही है ।इंसान ने अच्छे और बुरे का फर्क करना ही छोड दिया है। या अच्छे बुरे को अपनी सोच में पैदा नही करना चहाता।
क्या हमारे संस्कार इतने तकियानुसी हो गये जिन्हें बच्चे और परिवार मानना नही चहाता या हम खुद अच्छे संस्कार देना नही चहाते ।हमारे घरों से शुरु होने बाली ही चकाचौंध की बजह हमारी जेबों पर हबी है।जिसको लोगों को तवज्जो न देकर दिखावे को महत्व देते है।इस बजारबाद की बजह से अपराध की घटनाएँ बडती नजर आ रही है।जैसे कि हमारे समाज में शराब ड्रग्स सिगरेट पीना एक आम बात हो गई ॥
क्या हमारे संस्कार इतने घिसे पीटे होते जा रहे है कि ऐसी गलतियों को अनदेखा कर देतें है।यही से बच्चे गलत रास्तें पर जाते नजर आते दिखाई देने लगते है।
मगर हमारे अनदेखा करने के कारण बच्चे और भी आगे बढने लगते है।जो और बढे अपराध की श्रेणी में पहुँच जाते है।इसके दोषी हम खुद होते है।क्यों कि अधिक कमाने के चक्कर में माता पिता आज के दौर को अपना लेते है।
बाजर के जो पैर फैले है उसमें हमारी इकोनोमी इतनी गडबडाई है ।कि अकेले घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है।तो पति पत्नी दोनों को कमाना आम बात हो गई बिना एक दूसरे के साथ दिये घर नही चलता मगर इस आपा धापी में बच्चों की ओर से ध्यान हट जाता है।तो बच्चे प्यार और जरूरते कहीं और तलाशने लगते है।इसी बीच वो गलत रास्ते अपना लेते है।
मगर हमारी कमजोरियों का फायदा भी उठाने लगते है।आये दिन उनकी जरूरतें बढने लगती है।
इसी तरह हमेशा हर नए साल आने बाली नई नई तकनीकियों द्वारा हमारे बाजार बहुत सी चीजें नई सजती है।जिनके लिये
अपना इकट्ठा किया गया धन भी व्यर्थ कर देतें है।
जिनमें कार्ड है महगें महगें गिप्टस और भी अन्य नयी-नयी चीजें जो बेवजह पैसे की बर्बादी करना होता है।
क्या हर रिश्ते की नीव दिखावे से तय होती है।
अगर ये सब किसी भी रिश्ते में मायने रखते है।तो वहाँ रिश्तों का कोई मोल नही हो सकता नही किसी रिश्तों को इस खडी नीव पर तवज्जो दी जा सकती है।
इस बनावटी परबेस में जिंदगी और रिश्तों के क्या मायने है। जहाँ एक रुपता या संकलन अच्छा न हो वहाँ इन रिश्तों को कुछ नही समझा जाता।
बाजारबाद की भीड ने अपनी घुसपैट ऐसी की है, जिससे लोग बाहर नही निकल पा रहे है।उस यू कहे इस बाजारबाद की चमक से निकलना नही चहाते,क्यों कि उसने लोगो को पुरी तरह से अपनी कैद में कर लिया है।
जहाँ तक देखा जाये तो शहर से निकल कर ग्रामीण इलाकों पर भी हवी होने लगा है चकाचौंध का सितारा, जो अपनी थाप जमा चूका है।
क्या हम इतने कमजोर हो गये है कि दूसरों की नकल कर के अपने जीवन का आंनद ले पायेगे, क्या हम दूसरो की बराबरी करने को अपना होना कहेगें ।
जो निचले स्तर पर अपना जीवन जी रहे है जिनके पास इतना नही कि अपना अच्छे से दो बक्त का पेट भर सके तो उनके हिस्से में जीना शान से नही होगा क्या वो इस समाज के हिस्से में नही आते या कभी आयेगें क्या उनका होना नही तय होगा क्यों ,आखिरकार उनके हिस्से में हमेशा अपमान आता है क्या बाजारबाद जरूरी है या इंसान का होना।
मानते है बाजारबाद की घुसपैट ने हमको नये नये तरीके और साधन दिये है जिससे बहुतकुछ अच्छा भी मिल रहा है हमारी सुविधाएं हमें जल्दी मंजिल तक पहुँचा देती है, मगर हमारे रिश्तों में खुशियाँ और दूरियां बडती जा रही है।
जिसके कारण होनेवाले अपराध औरापराधी दोनो बढते जा रहे है,काम की तलाश में गाँव से शहरों की तरफ भगने लगे है लोग लेकिन अगर वहाँ वो अपने पैर अच्छे कमो में नही जमा पाये या काम मिलने के बाद गलत संगति में आ गये तो कोई न कोई अपराध कर ही बैठते है,सारा जीवन बनने के बजाये जेल में बिगाडना पडता है।जो कुछ भी होता है अपने पास उसे भी गवा बैठते है।
इस लिये बाजारबाद में सामिल होने के लिये अच्छी शिक्षा और सही ढंग भी होना जरूरी है ताकि उसे किस प्रकार प्रयोग किया जाये, जो आपको होने बाले नुकसान और अपराधों से बचा सके।
जहाँ तक देखा जाये तो ये इंसान के खुद के ऊपर निर्भर करता है कि वो इस बाजारबाद को किस तरह भोग सकता है,क्यों कि बाजारबाद की घुसपैट ने अपना घर हर जगह बना रखा है, जो मंजिल भी देता है और नुकशान भी।
कुछ शहरी जीवन में तो होने बाले अपराध बढते ही जा रहे है, जैसे कि आने बाले नये शाल में कुछ अच्छे और बडे पैसे बाले परिवार के बच्चे कुछ तो परिवार के अन्य सदस्य भी सामिल होते है जो कि होटलो में पार्टियां मनाते है और अपनी जरूरत की पूँजी को शराब और अय्याशी में लुटाते नजर आते है।इतने ज्यादा कामवोश खो जाते है कि अच्छे बुरे की पहचान ही भूल जाते है और अपराध कर बैठते है ।लडके लडकियाँ दिनों ही सामिल होते है।पूँजी को बर्बाद. करने में ।
इसी कारण बालात्कार जैसी घटनाये हो जाती है जो कि इंसानियत को शर्मशार करती है।
अगर इसी पूँजी को सही ढंग से इस्तेमाल किया जाये तो कईयों के परिवार भी बचाये जा सकते है और भूख भी।जो कि गलत कार्यों में बार्बाद की ग ई पूँजी का निवेश भी सही तरके से किया जा सकता है क्या जरूरी है इतना बेवजह पैसे का दुरुपयोग करना
इससे हमारे समाज की दशा बिगडती नजर आ रही है ।क्या समाजिक सरोकारो को इतना अनदेखा किया जा सकता है, जो कि सरकार के बनाये गये कानूनों का कोई पालन नही होता लोग दिल्ली जैसी जगह एंव बडी सिटीयों में लोग शराब पीकर या अन्य नशा करके नये साल के आगमन की शुरुआत करते है और आज कल के नौजवान सड़कों पर नशे मे धुत होकर जोर जोर से चिल्लाते नजर आते है रास्ते से गुजरने बाले लोगों को छेडते भी नजर आते है ।क्या हमारे समाज की संस्कृति इतनी गडबाई हुई है कि लोग अपने बच्चों को अच्छे संस्कार भी नही दे पा रहे है क्या पैसे का बस इतना ज्यादा हो गया है कि करने बाले गलत कार्यो की समझ भी नही हो पा रही है।माना कि मनोरंजन करना भी जरूरी है अपनी और दूसरों की खुशियों के लिये क्यों कि इससे हमें जीने की ऊर्जा मिलती है ।अहर मनोरंजन नही होगा तो जीवन में नीरता भरना तय है।
मगर उसका सही उपयोग करना भी जरूरी है जिससे हम अपने परिवार और अपने समाज का सम्मान बचा सके।
जिन्दगी के कई पहलू होते है पर जरूरी नही कि हमेशा हम उस पहलू को ही पकडे जो सिर्फ हमको ही आंनदित करे जरूरी यह भी है कि हमारे द्वारा दूसरों को हानि न पहुंचे क्यों कि हम इसी समाज के एक हिस्सेदार है जो कि हमी से समाज बनता है अगर हर आदमी अपने बारे में सोने लगेगा तो हम समाज का एक हिस्सा बनने से रह जायेगे समाज में तो सामिल होगें मगर उस सभ्यसमाज में नही जो हमारी संस्कृति में सामिल होती है ।हमको खुल कर जीना चाहिये पर अपने अन्दर अपराध की और वासना की सोच के साथ नही।
कुसंगति का असर नही पडने देना चाहिये।
और अगर इस तरह के जो लोग है कि बुरी सोच के साथ जीते है तो वो लोग भी हमारे समाज के सताए हिस्से होते है जो मानसिक बिक्रति पैदा होती है इनमें क्यो कि कुछ गाँव के परिवेश में पले बडे बच्चे बाहार जाकर पैसे भले परिवार के बच्चों के शिकार बन जाते है।क्यो कि बाजारबाद ने अपना असर भोले भाले लोगो पर भी जादू बन कर कर दिया है अगर वो अपने रहन सहन और तौर तरीको को नही बदलेगें जो उनके होने को कोई तवज्जो नही दी जाती यहाँ तक कि स्कूलों में नौकरी में और यहाँ तक कि शादी के लिये भी।
मगर अपनी जगह बनाने के लिये मजबूरी बस इसको अपनाना पडता है
लेकिन ग्रामीण इलाकों में जो बाजारी हवा ने उडान भरी है उससे भी उनके घरों में मुसीबतों का सामना करना पडा है
जिससे किसानों का भी जीवन दुर्गम होता जा रहा है ,माना कि बाजार ने एक अच्छा और सरल तरीके के साधन भी जुटाए है मगर महँगाई की मार ने उन्हे मुह की भी खिलाई है इसके कारण वो जीवन यापन और बच्चों की शिक्षा भी पूरी नही करा पाते है यही कारण है कि अपने बच्चों को अच्छे ढंग की परिवरिश नही दे पाते है
क्या सामाजिक गतिविधियों को देखते हुए हमारी सरकार को और भी कडे कानून नही बनाने चाहिए , जिससे समाज में होने वाली दुर्दशा को सम्हाल सके और आगे लेजा सके जिससे वेबजह बर्बाद होने वाली पूँजी से कुछ नये कार्य शुरु करके गर्मीण इलाको को रोजगार दे सके।
जिससे उनके परिवारों का भरण पोषण भी हो सके और शिक्षित भी ,ताकी बजट बनाकर अपना करोवार कर सके
और किसी चीज से अभाव ग्रस्त न रहे सकें, सरकार को नशीले पदार्थों पर भी कडी बन्दिशें लगानी चाहिए जिससे होनेवाले बालात्कारों को रोका जा सके इस तरह की घटनाये सबसे ज्यादा नशीले पदार्थों की वजहें से अधिक बड रहीं है।
अधिक पैसे की बर्बादी और अन्य अपराधों की बढती वजह भी नशीला सेवन ही है ।जो अधिक मात्राओं में सेवन होने की वजह बनते है बाजारबाद की घुसपैट इतनी बडती नजर आती है कि लोग खुद को भी भूल जाते है।
मैने देखा बाजरबाद की भीड ने लोगों के जीवन की खुशियाँ खत्म कर दी ।क्यो लोग अपने रिश्तों को महत्व न देकर बाजरबाद में जीने लगे है माना कि जरूरी है बहुत कुछ पर रिश्तों से ज्यादा जरूरी नही मगर आज की इकोनोमी इतनी हावी है कि लोग बिना इसके जी नही पा रहे यहाँ तक कि परिवार की जिम्मेदारी निभाने से भी कतरनें लगे है लोग ॥मध्यवर्गी परिवार में यह सबसे बडा अभिशाप है और जो लोग अपने तन ढकने को भी इक्ट्ठा नही कर पाते वो कमसेकम इस सुकून. से तो सोते है कि जो मिल जाता है बहुत है कि दो वक्त बच्चों का पेट भरता है
पर जिनके पास सबकुछ है वो अपने जीवन को बाजारवाद हावी करके जीवन नीरस किए है ।क्या रिश्ते बाजारवाद से तय होते है। अगर रिश्तों को बाजार वाद ही तय करता है तो वो रिश्ते हो ही नही सकते बो केबल सामाजिक सरोकारो और दिखावे के रिश्ते हो सकते है प्यार के नही। जहाँ रिश्ते एक दूसरे को समझने या सहजने के बजाय केवल स्वार्थ के हो वह रिश्ते हमेशा कचोटते रहते है और इसका असर एक दिन रिश्तों पर बुरा पडता है।क्या आज के पढे लिखे यूवा समाज में रिश्तों की संवेदनाएं और सम्हालने की शक्ति कम हो ग ई है ।जो अधिकांश रिश्ते दूरियां बनाते दिखाई देते है।
क्या हमारे जीवन में बाजारवाद इतना जरूरी हो गया है कि रिश्ते खत्म करने जरूरी होते जा रहे है।
सबसे बडी और सबसे महत्वपूर्ण बात, कि लोग एक दूसरे का सम्मान न करके आपसी रिश्तों को नीचा दिखाने लगते है और यहाँ तक की प्रेम करने और सम्मान देने के बजाये एक दूसरे के रिश्तों के परिवार तक गलतफहमियाँ फैल जाती है और अपमानित करने लगते है।
जरूरते पूरी न होने पर अपनी अपनी कुण्ठाएं एक दूसरे पर निकालाने लगते है ।इसका असर बडे होते बच्चों पर पढने लगता है।यहाँ तक की बच्चे भी नाजायज फायदा उठाने लगते है ।उन बच्चों के अन्दर भी बाजारवाद पैदा होने लगता है और वो अपनी जिदे पूरी कराने की जिद करने लगते है।और ऐसा न होने पर अपराध करने पर मजबूर हो जाते है यही से अपराधी बनने के लक्षण शुरू हो जाते है।अगर हर माता पिता अपने जीवन के साथ-साथ बच्चों के अपराधी जीवन के हिस्सेदार बन जाते है ।अगर वो अपने रिश्तों को सहज कर और समझदारी से काम करें और दिखावे के रिश्ते न पैदा होने दे तो हम बाजारवाद की बहुत से परिवारो को बर्बाद होने से बचा सकते है।जो कि अक्सर लोग अपने से ऊपर बाले के लोगों को देख कर अपने अन्दर वो पैदा कर लेते है जो नही होना चाहिये शानखोरी दिखावा जो गलत रास्ते पर ले जाता है।लोग कर्ज लेकर जरूरतें पूरी करने लगते है ।जो मात्र दिखावा होता है।
वहुत से परिवार इतना उलझ जाते है कर्ज में कि उभर ही नही पाते और एक दिन इसका कारण या तो मौता या अपराध बनता है
या एक दूसरे को छोड कर तलाक तक नौबत आ जाती है ।अगर इस बाजारवाद को इतना हावी न होने दे लोग कि परिवार और बच्चों से हाँथ धोना पडे इसकी शुरुआत घर से ही होती है और बच्चों में भी पनपने लगती है।अगर हम चाहे तो खुद रोका जा सकता है इसके जिम्मेदार हम खुद होते है। क्यों कि बाजारवाद केबल हमारे आपसी रिश्तों में मतभेद पैदा करता है और दूरियां बनाता है जो नही होना चाहिये । जरूरते अपनी जगह है और रिश्ते अपनी जगह जो कि रिश्तों से ज्यादा बेशकीमती कोई चीज नही होती ।इस लिए रिश्तों पर बाजारवाद का असर न पडने दे तो हमारा जीवन शुखमय और शांतिपूर्वक व्यतीत होगा और बच्चों को भी गलत रास्ते पर जाने से रोक सकते है।
शिखा सिंह