अटल रहे सुहाग : ( लघुकथा -व्रत ) शशि बंसल

” मीनू ! जल्दी से अपने पापा की थाली लगा दो,” घर में कदम धरते ही आदेशात्मक स्वर में कहा मृणाल ने।
” पर मां ! मैंने तो खाना बनाया ही नहीं। भैया पिज्ज़ा ले आए थे,” मीनू ने सहज स्वर में कहा तो मृणाल भड़क उठी ,” एक दिन खाना न बना सकी तुम? हद है कामचोरी की।”
” आपने ही तो कहा था माँ कि लौटने में १२ या१ बज जायेंगे रात के ,इसलिए…..”

” यही तो समस्या है कि तुम सिर्फ सोचती हो ,करती कुछ नहीं।रिश्ता पक्का कर आए हैं तुम्हारा।चार दिन बाद वो लोग ‘रोका’ करने आ रहे हैं। जाओ अब सो जाओ। मैं तुम्हारे पापा के लिए कुछ पका दूँ,”थके स्वर में कहा मृणाल ने।
रसोई का काम निपटा कर मृणाल मीनू के कमरे में ही चली आई और उसके पास ही लेट गई। मीनू ने मां की और करवट लेते हुए नर्मी से कहा,” माँ ! आपका गुस्सा देख कर तो मैंने सोचा था कि बात इस बार भी नहीं बनी पर माँ जब रिश्ता पक्का हो ही गया है तो आप इतना क्रोध क्यों कर रही हैं ?”
मृणाल उठ कर उसके सिरहाने आ बैठी और उसके घुंघराले बालों में अपनी उंगलियों की कंघी फेरते हुए भीगे स्वर में बोली, ” बिट्टो तू मेरी बेटी भी है और इकलौती सहेली भी।तुझे न बताऊँगी तो किसे बताऊँगी…. रिश्ता तय होने के बाद तेरे पापा ने तो वहाँ खाना खा लिया पर मैं ठहरी परंपरावादी सो मैंने नहीं खाया। फिर १० घंटे के सफर में मैं खाने को माँगती रही और तेरे पापा चीज़ों के दाम पूछते रहे लेकिन एक बार भी जेब में हाथ नहीं डाला क्योंकि उन्हें मेरी भूख सस्ती और हर चीज़ महँगी लगी… यह जानते हुए भी कि १२बजे के बाद मेरा करवाचौथ का व्रत शुरु हो जायेगा। सो बेटा ! भूख ऐसी राक्षसी चीज़ है जिसके शांत हुए बिना हर खुशी बेमानी है। अब तू ही बता मेरा गुस्सा बेमानी था क्या ? अब कल चाँद देख कर ही कुछ खाऊँगी मैं तो और वह जिसके लिए व्रत रखा है,खा-पी कर चैन से सो रहा है, “एक लंबी ठंडी साँस ले कर सूने स्वर में कहा मृणाल ने।

शशि बंसल
भोपाल ।

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