कवितायें -रोचिका शर्मा






      अटूट बंधन के दीप महोत्सव ” आओ जलायें साहित्य दीप के
अंतर्गत आज पढ़िए रोचिका शर्मा की तीन कवितायें बलात्कार : एक सवाल
, बाल श्रम व् आओ नयी एक पौध लगायें

बलात्कार  ! एक सवाल
आज फिर अख़बार था चीखता , हो गया बलात्कार कहीं कोई
ओढ़ कर चादर बेहयाई की , अपनी हवस बुझा गया फिर कोई
नारेबाज़ी शुरू हो गयी , बैठे संगठन अनशन पे
लगे उछालने कीचड़ नेता , विपक्ष दलों के दामन पे
कहीं हो रही कानाफूसी , क्यूँ लड़की को दी थी छूट इतनी
कर रहे टिप्पणी पहनावे परवह पहनती  थी
स्कर्ट मिनी
सबने अपने मन की गाई , बिन जाने हालात हादसे के
नुची देह मीडिया ने दिखाई , न दिखे चिथड़ेउसकी  रूह के
घिनौने सवाल अदालत ने पूछे , दिल का दर्द न पूछे कोई
थक कर मात-पिता  भी कोसें , तू पैदा इस घर क्यूँ होई
क्यूँ लगती न झड़ी इन प्रश्नों की , न उठती उंगली उस वहशी पर
क्यूँ अदालत रहे उसे बचातीझूठे वकीलों की
दलीलों पर
ये कैसा अँधा क़ानून है , जो पैरवी उसकी करता है
आँखों पे पट्टी बाँध के वोबलात्कार दूसरा करता
है
क्या एसी कोई पुस्तक हैजो जंगल राज को न
माने
मानवता का पाठ पढ़ा दे , नारी को इंसान सा जाने
फिर कैसे किसी विक्षिप्त मस्तिष्क में , बलात्कार के भाव उठें
बहिन-बेटियों पर बुरी नज़र सेरोम-रोम भी काँप उठे
 ! न्याय के रखवालों जागो ,साहित्यकार तुम कलम उठाओ
लिख दो क़ानून  किताबें एसी , बलात्कार पर सवाल उठाओ 
बाल-श्रम
आसमान में टूटा तारा,देख-देख सब ने कुछ माँगा
मेरी आस का तारा  टूटा ,ग्रहण  मेरे
जीवन में लागा
                                                 
साया पिता कारहा न सर पेकरे न
दया दौलत का समाज
रोटी,कपड़ा,मकान को
तरसा
,बचपन ,उदास
गीतों का साज़
एक ग़रीब की दुखियारी माँ,लगी काम
बच्चों को छोड़
छूटी पढ़ाई ,रोटी न मिलती,महँगाई
बढ़ रही दम तोड़
सुन रुदन छोटी बहना कारहा गया न मुझसे आज
सोचूँ घुट-घुट अँधियारे में ,क्यूँ न
करूँ मैं भी कुछ काज
निकल पड़ा हूँ खोज में मैं ,हो जाए
गर कुछ जुगाड़
रोटी मिले दो वक़्त की मुझको,छोटी का
जीवन उद्धार
फिरता हूँ मैं मारा-मारासड़कोंचौराहों ,दुकानों
में आज
तड़प रहा हूँ भूख ,प्यास से,हे ईश्वर
क्या तू नाराज़
 ?
भूखे-नंगों का न कोई सहाराकटे पंख,न चढ़े
परवाज़
बाल-मजूरी बहुत बुरी है,फिर भी
मुझको प्यारी आज
अरमानों का गला घोंट लूँबुझती
ज्यूँ दीपक से ज्योति
जूते पोंछूँ या बोझ उठाऊं ,चिंता
सुबहो-शाम सताती
आओ मिल जाएँ हम सब,करें जहाँ का नव-निर्माण
कोई बच्चा न भूखा जग में,शिक्षा
ग़रीब-अमीर समान
पढ़ा-लिखा बढ़ाएँ आगेदेश का ऊँचा नाम उठाएँ
इक-इक बूँद भर जाए सागर,बाल
श्रमिक कानाम मिटाएँ
     
                     
 चलो
इक पौध
 नयी लगायें 
                 
                     
     
 सत्यअहिंसा के बीज से रोपित
सदाचार की धार से
सिंचित
मानवता की खाद से
पोषित
प्रेम भाव के पुष्पों
से शोभित
चलो इक पौध नयी लगाएँ
विभिन्न जाति की
कलमों का संगम
दया-धर्म के संस्कार
का बंधन
बैर-भाव के काँटों की
न चुभन
अपने-परायों की शाख
का खंडन
चलो इक पौध नयी लगाएँ
भारत भूमि में जड़ें
फैलाती
हिमालय तक शाख
पहुँचती
शांति की छाँव जो
देती
बापू के स्वपनों की
खेती
चलो इक पौध नयी लगाएँ
स्वदेशी  की फसल लहलहाए
ईमानदारी की खुश्बू
मह्काये
भाईचारेकी कोंपल फूटे
अमन-चैन के फल बरसाए
चलो इक पौध नयी लगाएँ

रोचिका शर्मा                                   



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