छुपाती हो
में आँसू
की तरह
जाती हैं
के बारे में
लिखो
लिखो
,जो समझा
तुम्हारे हाथ में है
लिखो कब तक बांचा जाएगा तुम्हे पुरुष की कलम से
आज महिलाएं मुखर हुई हैं| वो साहित्य का सृजन कर रही हैं |
हर विषय पर अपनी राय दे रही हैं | अपने विचारों को बांच रही हैं | यह एक सुखद समय
है | इस विषय पर कुछ लिखने से पहले मैं आप सब को ले जाना चाहूंगी
इतिहास में ….कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह वह दिखाता है जो समाज का सच हैं ,परन्तु दुखद है
नारी के साथ कभी न्याय नहीं हुआ उसको अब तक देखा गया पुरुष की नजर से
…….क्योकि हमारे पित्रसत्रात्मक समाज में नारी का बोलना ही प्रतिबंधित रहा है ,लिखने की कौन
कहे मुंह की देहरी लक्ष्मण रेखा थी जिससे निकलने के बाद शब्दों के व्यापक अर्थ लिए
जाते थे ,वर्जनाओं की
दीवारे थी नैतिकता का प्रश्न था …. लिहाजा पुरुष ही नारी का दृष्टिकोण प्रस्तुत
करते रहे ……..
…और नारी के तमाम मनोभाव देखे जाते रहे पुरुष के नजरिये से | उन्होंने नारी को केवल दो ही रूपों में देखा या देवी के या
नायिका के ,बाकि मनोभावों से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया की “नारी को
समझना तो ब्रह्मा के वश में भी नहीं है “भक्ति काल में नारी देवी के रूप में
स्थापित की गयी , त्याग ,दया क्षमा की साक्षात् प्रतिमूर्ति . जहाँ सौन्दर्य वर्णन भी है
तो मर्यादित देवी के रूप में
| रीति काल
श्रृंगार रस से भरा पड़ा है,जहाँ नारी नायिका की छवि में कैद हो कर रह गयी, उसकी आत्मा उसके आकार –प्रकार की
मापदंडों में नापी जाने लगी |
यह सच है की
विचार शील लोग केवल मुट्ठी भर होते हैं | बाकी सब उन विचारों का अनुसरण करते हैं |
जब आधी आबादी ही लिखने से वंचित थी तो विचार और समाज एक तरफ़ा होता चला गया | काल बदले पर लेखन के क्षेत्र में नारी की
दशा वही रही | परन्तु
जब देश स्वतंत्र हुआ और कुछ हद तक नारी को भी कागज़ कलम में
अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता मिली| तब कुछ
सपने सजे , कुछ
पंख लगे कुछ आकाश दिखा तब नारी को एक सांचे में देखने वाला पुरुष मन भयभीत हुआ ,आधुनिकता का लेवल लगा कर उसे वापस कठघरे में खड़ा
करने की कोशिश की गयी |
लिखो , और पन्ने पर उतार दो अपने हर दर्द को
यही शायद वो समय था जब शिक्षित नारी बोल उठी
“बस “देवी ,प्रेमिका ,माँ बहन ,बेटी ,पत्नी
के अतरिक्त सबसे पहले एक इंसान हैं हम , हमारे अन्दर भी धड़कता है दिल ,हैं भावनाएं ,कुछ विरोध ,कुछ कसक ,कुछ पीड़ा कुछ दर्द जो सदियों से पुरुष के प्रतिबिम्बों में ढलने के लिए
छिपाए थे गहरे अन्दर, अब असह्य हो गयी है वेदना, अब जन्म देना ही पड़ेगा किसी रचना
को |वास्तव में देखा जाये तो नारी लेखन खुद में खुद को
ढूँढने की कोशिश है क्योकि सदियों से परायी परिभाषाओं में जीते -जीते सृष्टि की रचना
रचने वाली खुद भूल गयी कि विचारों को आकर कैसे दिया जाता है |
ऐसे
में कई सशक्त रचनाकारों ने कलम उठा कर नारी जीवन के कई अनछुए पहलुओं को
उद्घाटित किया यहाँ तक की नारी जीवन की पीड़ा कसक को व्यक्त करने के लिए उन्होंने
अपने जीवन को भी पाठकों के सामने परोस दिया | कुछ महिला रचनाकारो ने तो एक कदम आगे बढ़कर वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करते
हुए स्त्री -पुरुष संबंधों पर बेबाकी से कलम चलाई यह भी एक सच है जिसे नारी के नजरिये से समाज के सामने लाना जरूरी था | महिलाओ को उनके हिस्से का सम्मान दिलाने के लिए आज न सिर्फ लेखन अपितु संपादन के क्षेत्र में भी न जाने
कितनी महिलाएं अपने अदम्य हौसलों के साथ कलम ले
कर इस यज्ञ में आहुति
दे रही हैं | उन्होंने पुरुषों के इस क्षेत्र
में वर्चस्व को तोडा है आज महिलाएं हर विषय पर लिख रहीं हैं ,गभीर विवेचना , वैज्ञानिक तथ्यों ,समाज के हर वर्ग का दर्द ,स्त्री पुरुष संबंधोंपर , हर बात पर बेबाकी से लिख रहीं हैं , अपनी राय ,अपने विचार रख रहीं हैं | अगर देखा जाये तो यह एक बहुत ही शुभ लक्षण है| इससे पहले की सदियों से दबाया गया
कोई ज्वाला मुंखी फूटता धरती के गर्भ में छिपे लावे को सही दिशा मिल गयी है यह
विनाश का नहीं विकास का प्रतीक बनेगा |
कलम उठाओ ताकि आने वाली पीढ़ियाँ समझ सके तुम्हें
यह कहना अतिश्योक्ति
नहीं होगी की संतान को आँखे तो ईश्वर देता है पर उसे दृष्टि माँ देती है | पिछली पीढ़ियों ने भले ही आँसू बहाए हैं पर वो व्यर्थ नहीं गए हैं | आज का बच्चा पढ़ रहा है स्त्री के दर्द को अपनी माँ की कलम से
………….. आशा है वो समझेगा अपने नाम से पहचान की अपनी पत्नी की इक्षा को , ,भेदभाव की शिकार अपनी बेटी के दर्द को , सहकर्मी के मनोभावों को ,कामवाली ,मजदूर स्त्री की पीड़ा को | तभी
होगा संतुलन तभी बनेगा क्षितिज स्त्री पुरुष के मध्य सही अर्थों में | इसलिए लिखो …. क्योंकि कलम तुम्हारे हाथ में भी है ….
वंदना बाजपेयी
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