रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न उबरे, मोती, मानुस चून।।
बरबस याद आ रहा है, क्योंकि अरुणाचल प्रदेश के शिक्षा विभाग में अध्यापिका के रूप में बिताये चौबीस वर्षों में जल के महत्त्व को मैंने बखूबी समझा और यही मूलमंत्र जीवन में पाया कि सोने-चांदी, हीरे-मोती से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण और अमूल्य है जल। वहाँ की स्मृतियों में जब-तब मैं डूबती-उतराती रहती हूँ। आज विश्व जल संरक्षण दिवस पर उन स्मृतियों को साझा करने की मन में हिलोर उठी। लगा कि इन स्मृतियों को शब्दों में पिरोना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश में हम जहाँ भी रहे वहाँ दूर-दूर हैंडपंप लगे होते थे। पहाड़ी जगहों में पानी के स्रोत पर पाइप लाइन फिट करके,पाइप बिछाते हुए जगह-जगह, पर दूर-दूर नल लगा दिए जाते थे।
आप कितना भी पानी संग्रह करके रख लें, यदि मितव्ययिता व्यवहार में नहीं है, तो कम ही होता है। वर्षा के दिनों में पाइपों में मिट्टी-पत्ते भर जाते तो पानी का आवागमन अवरुद्ध हो जाता था। पर वहाँ पानी की समस्या से बखूबी परिचित होने के कारन बच्चे, गाँव वाले, शिक्षक सभी उसे ठीक करना अपना नैतिक कर्तव्य समझते थे और इसीलिए सरकारी कर्मचारी की प्रतीक्षा किए बिना जिसे भी पता चलता, वह तीन-चार को संग ले, अपने औजार-हथियारों सहित ठीक करने जा पहुँचते थे और ठीक करके ही लौटते थे। दूर से बाल्टियों में पानी लाना कठिन होता था, तो उसके लिए हमने सरसों-सफोला तेल के पांच लीटर के प्लास्टिक कैन लेकर पानी लाना आरंभ किया, क्योंकि ढक्कन व पकड़ने की सुविधा होने के कारण उसमें पानी लाने में सुविधा होती थी। वहाँ सरकारी घरों में टीन की छत थी, तो पति महोदय ने अपनी बुद्धि लगा कर, कनस्तरों को काट-काट कर, उन्हें जोड़ कर पतनाला जैसा बना कर पतले तारों से उसे टीन की छत पर लटकाया। वहाँ जब वर्षा होती तो कई-कई दिन तक होती थी। वर्षा होने पर हम बड़ा ड्रम रखते, उसमें पानी का संग्रह होता रहता। तब मैं विद्यालय और घर के कार्यों की सारी थकान भूल कर बर्तन-कपड़े धोने के कार्य में जुट जाती थी, क्योकि इंद्रदेव की कृपा से पानी हमें घर के द्वार पर मिल रहा होता था। हमारी ऐसी व्यस्थाओं को देख कर कई शिक्षकों ने अपने घर में पतनाले लगवाए, तेल के प्लास्टिक कैन में पानी लाना आरंभ किया और कई बार हमें बताया की ऐसी व्यवस्था करके उन्हें बहुत सुविधा हुई है।
पानी ले नल पर बाल्टियों की लंबी लाइन लगी रहती थी। कोई तेज़ बुद्धि वाला पीछे राखी अपनी बाल्टी आँख बचा कर पहले भर लेता तो घरों के अंदर खिड़की से लगातार ताक-घात लगाए महिलाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत के लिए आगा-पीछा देखे बिना तुरंत कूद पड़ती थी। चिल्ल-पों, कच-कच, वाकयुद्ध और फिर कई दिनों तक बातचीत बंद। ऐसे में मेरा तो साहस ही नहीं होता था कि उस लंबी लाइन में मैं भी अपनी बाल्टी रखूँ। पति महोदय ने इसका भी उपाय सोचा। रात के ग्यारह बजे तक सब अपना कार्य करके सो चुके होते थे। वह दो सौ फ़ीट का प्लास्टिक पाइप खरीद कर लाए। उसे हम रात के बारह बजे नल पर लगाते और सुबह के तीन बजे तक पानी भरते। मैं लालच में रात को कपडे भी धो डालती।घर के सारे बर्तनों में, कोल्ड ड्रिंक की पचासों से भी ज़्यादा बोतलों में, बड़े ड्रम, बाल्टियाँ, भगोने…सबमें पानी भर कर रख लेती थी। फिर तीन-चार दिनों तक पानी भरने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।
एक दिन विद्यालय के स्टाफ रूम में बैठे शिक्षकों ने हमसे पूछा….बौड़ाई सर! आप कभी पानी भरते दिखाई नहीं देते, क्या बात है? खाना, नहाना, कपडे धोना होता भी है या नहीं? और जब हमारी व्यवस्था सुनी तो दाँतो तले ऊँगली दबा ली। अनुकरण तो उसका होना होना ही था, क्योंकि उसमें मानसिक शांति और आराम जो था।
एक उपाय हम और भी किया करते थे। रविवार को कपड़ों में साबुन लगा घर में रगड़ लेते, फिर उन्हें थैले में रख, कुछ खाने-पीने की चीजें संग लेकर दोनों बच्चों और एक-दो विद्यार्थियों को साथ लेकर नदी की तरफ चले जाते थे।वहाँ बहती नदी में कपड़ों का साबुन निकल कर वहीँ सुखाते, कहते-पीते,फ़ोटो खींचते….और इस तरह पिकनिक का आनंद लेकर घर लौटते। आप सच मानेंगे? कई शिक्षक बंधुओं ने इसका भी अनुसरण किया। देख कर अच्छा लगता है जब आपके किए किसी अच्छे कार्य का अनुकरण होता है।
पानी को और केवल पानी ही नहीं, बिजली, कागज़ आदि कोई भी चीज़ हो, उसे किफ़ायत से खर्च-उपयोग करना आज भी मेरी आदत में शुमार है। कई बार बच्चे कहते है कि अब आप अरुणाचल प्रदेश में नहीं, देहरादून में हो,अपने को बदलो।तो मेरा उत्तर यही होता है कि पानी का संरक्षा और सही उपयोग तो आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। पर्यावरण को सही रखने के लिए, प्रदुषण कम करने और प्राकृतिक संसाधन सुरक्षित रहे, इनका दोहन न हो…..तो इसके लिए हर व्यक्ति को अपनी लापरवाही की आदत बदलनी होगी।
इंटीरियर में रहने पर वहाँ समस्याओं से जूझते-दो-चार होते हुए सहायता-सहयोग करने की भवन स्वयमेव बन जाती है, क्योंकि सब समझते हैं कि यदि हम दुसरे के काम नहीं आएंगे तो अपनी समस्या के समय अकेले पड़ कर हम स्वयं कुछ नहीं कर पाएंगे। पर शहरी सभ्यता में लोगों ने सुविधाओं से संपन्न होने पर जो लबादा ओढ़ कर अपने को चारों ओर से बंद कर लिया है उसमे दूसरों के लिए तो जगह ही नहीं बचती। चिंता होती भी है तो केवल अपनी होती है। ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की बात तो दूर ही हो जाती है। शहरी संस्कृति में महात्मा गांधी जी के गोल मेज सम्मलेन की तरह पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी वर्ग टी.वी. देखते हुए डाइनिंग टेबल कॉन्फ्रेंस तो कर सकता है,पर स्वयं बाहर निकल कर, मिल कर कार्य करने की बहुत कम सोचता है। हाँ, काम करते हुओं की खिल्ली जरूर आगे बढ़ कर उड़ा सकता है। आज कागजों पर अनगिन एन.जी. ओ कार्य कर रहे है, पर उनमें तन-मन और धन से भी कार्य करने वाले कुछ ही लोग प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को रोकने और उनके संरक्षण के लिए कार्य करते हुए समाज में चेतना भी जगा रहें हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि एन. जी.ओ ही नहीं, समाज का हर व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से इस बात को समझें।आवश्यकता भर का पानी उपयोग करे, दुरूपयोग से बचे,वर्षा के पानी को संरक्षित करने के स्थायी उपाय करके उसे प्रयोग में लाने की आदत बनाए।
विश्व जल संरक्षण दिवस पर हर व्यक्ति अपने से शुरुआत कर, संकल्प करके आने वाली पीढ़ियों के लिए , जल संरक्षण के लिए कुछ कदम तो उठा ही सकता है। ऐसा करने में हम पीछे क्यों रहें? हम करें तो सही, अनुकरण और अनुसरण अपने आप होने लगेगा। मेरे अनुभव तो यही कहते हैं।
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डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई