जिन्दगी कुछ यूं तन्हा होने लगी है

















जिन्दगी कुछ यूं तन्हा होने लगी है
अंधेरों से भी दोस्ती होने लगी है 
चमकते उजालों से लगता है डर
हर शमां वेबफा सी लगने लगी है 

सच्चाइयों से जबसे पहचान होने लगी
इक सजा इस तरह से जिंदगी हो गई
बहारों के मौसम देखे थे जहां
कितनी बंजर आज वो जमीन हो गई


ओमकार मणि त्रिपाठी 


प्रधान संपादक – अटूट बंधन  एवं सच का हौसला 








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