२ …दूसरी बधाई उन प्रकाशकों को जो हिंदी के नाम पर बड़ा सरकारी अनुदान प्राप्त कर के बैकों व् सरकारी लाइब्रेरियों की शोभा बढाते हैं | जिन्हें शायद कोई नहीं पढता |
३… तीसरी और विशेष बधाई उन तमाम हिंदी की पत्र – पत्रिकाओ व् वेबसाइट मालिकों को जो हिंदी न तो ठीक से पढ़ सकते हैं , न बोल सकते हैं न लिख सकते हैं फिर भी हिंदी के उत्थान के नाम पर हिंदी की पत्रिका या वेबसाइट के व्यवसाय में उतर पड़े |
आप लोगों को अवश्य लग रहा होगा की मैं बधाई के नाम पर कटाक्ष कर रही हूँ | पर वास्तव में मैं केवल एक मुखौटा उतारने का प्रयास कर रही हूँ | एक मुखौटा जो हम भारतीय आदर्श के नाम पर पहने रहते हैं | पर खोखले आदर्शों से रोटी नहीं चलती |जैसे बिना पेट्रोल के गाडी नहीं चलती उसी तरह से बिना धन के कोई उपक्रम नहीं चल सकता |न ही कोई असाध्य श्रम व्र मेहनत से कमाया हुआ धन hindi के प्रचार – प्रसार में लगा कर खुद सड़क पर कटोरा ले कर भीख मांगने की नौबत पर पहुंचना चाहेगा | तमाम मरती हुई पत्र – पत्रिकाएँ इसकी गवाह हैं | जिन्होंने बड़ी ही सद्भावना से पत्रिका की नीव रखी पर वो उसे खींच नहीं पाए |क्योंकि धन देने के नाम पर कोई सहयोग के लिए आगे नहीं बढ़ा |
रही बात सरकारी अनुदान की तो ज्यादातर अनुदान प्राप्त पत्रिकाओ या पुस्तकों के प्रकाशक प्रचार – प्रसार के लिए बहुत मेहनत नहीं करते | वो केवल ये देखते हैं की उनका घाटा पूरा हो गया है | इसलिए ज्यादातर अनुदान प्राप्त किताबें सरकारी लाइब्रेरियों के शो केस की शोभा बढाती हुई ही रह जाती हैं |कुल मिला कर स्तिथि बहुत अच्छी नहीं रही |
पर अब समय बदल रहा है …… कुछ लोग हिंदी को एक ” ब्लूमिग सेक्टर ” के तौर पर देख रहे हैं | वो इससे लाभ की आशा कर रहे हैं | अगर ये व्यवसायीकरण भी कहे और हिंदी लोगों को रोटी दिलाने में सक्षम हो रही है तो कुछ भी गलत नहीं है | क्योंकि भाषा हमारी संस्कृति है , हमारी सांस भले ही हो पर पर उसको जिन्दा रखने के लिए ये जरूरी है की उससे लोगों को रोटी मिले | उदाहरण के तौर पर मैं हिंदी सिनेमा को लेना चाहती हूँ | जिसका उद्देश्य शुद्ध व्यावसायिक ही क्यों न हो ….. पर जब एक रूसी मेरा जूता है जापानी गाता है … तो स्वत : ही hindi के शब्द उसकी जुबान पर चढ़ते हैं और भारत व् भारतीय संस्कृति को जानने समझने की इच्छा पैदा होती है | कितने लोग हिंदी फिल्मों के कारण हिंदी सीखते हैं | कहने की जरूरत नहीं जो काम साहित्यकार नहीं कर पाए वो हिंदी फिल्में कर रही हैं |
किसी संस्कृति को जिन्दा रखने के लिए भाषा का जिन्दा रहना बहुत जरूरी हैं | पर क्या उसी रूप में जैसा की हम हिंदी को समझते हैं |
यह सच है की साहित्यिक भाषा आम बोलचाल की भाषा नहीं है | और आम पाठक उसी साहित्य को पढना पसंद करता है जो आम बोलचाल की भाषा में हो | साहित्यिक भाषा पुरूस्कार भले ही दिला दे पर बेस्ट सेलर नहीं बन सकती | कुल मिला कर लेखक का वही दुखड़ा ” कोई हिंदी नहीं पढता ” रह जाता है | देखा जाए तो आम बोलचाल की हिंदी भी एक नहीं है |
भारत में एक प्रचलित कहावत है “ चार कोस में पानी बदले सौ कोस पे बानी ” |
इसलिए हिंदी को बचाए रखने के लिए प्रयोग होने बहुत जरूरी हैं | आज हिंदी आगे बढ़ रही है उसका एक मात्र कारण है की प्रयोग हो रहे हैं | हिंदी में केवल साहित्यिक हिंदी पढने वाले ही नहीं डॉक्टर , इंजिनीयर , विज्ञान अध्यापक और अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग लिख रहे हैं | उनका अनुभव विविधता भरा है इसलिए वो लेखन में और हिंदी में नए प्राण फूंक रहे हैं | पाठक नए विचारों की ओर आकर्षित हो रहे हैं | और क्योंकि लेखक विविध विषयों में शिक्षा प्राप्त हैं | इसलिए उन्होंने भावनाओं को अभिव्यक्त करने में भाषा के मामले में थोड़ी स्वतंत्रता ले ली है | हर्ष का विषय है की ये प्रयोग बहुत सफल रहा है |
पढ़ें –व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाड़ा
आज हिंदी में तमाम प्रान्तों के देशज शब्द ख़ूबसूरती से गूँथ गए हैं | और खास कर के अंग्रेजी के शब्द हिंदी के सहज प्रवाह में वैसे ही बहने लगे हैं जैसे विभिन्न नदियों को समेट कर गंगा बहती है |यह शुभ संकेत है | अगर हम किसी का विकास चाहते हैं तो उसमें विभिन्नता को समाहित करने की क्षमता होनी कहिये , चाहे वो देश हो , धर्म हो, या भाषा |
कोई भी भाषा जैसे जैसे विकसित व् स्वीकार्य होती जायेगी उसमें रोजगार देने की क्षमता बढती जायगी और वो समृद्ध होती जायेगी |आज क्षितिज पर हिंदी के इस नए युग की पहली किरण देखते हुए मुझे विश्वास हो गया है की एक दिन हिंदी का सूर्य पूरे आकश को अपने स्वर्णिम प्रकाश से सराबोर कर देगा |
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बिल्कुल सही कह वंदना जी…हिंदी के इस नए युग की पहली किरण देखते हुए मुझे भी विश्वास हो गया है की एक दिन हिंदी का सूर्य पूरे आकाश को अपने स्वर्णिम प्रकाश से सराबोर कर देगा |
धन्यवाद ज्योति जी
mujhe aapka article bahot pasand aaya
Zuber Khan जी शुक्रिया