“स्त्री विमर्श” एक ज्वलंत विषय के रूप में प्राचीन काल से ही किसी न किसी बहाने, प्रत्यक्ष या परोक्ष परिचर्चा का बिन्दु रहा है- समाजशास्त्रियों के लिए, राजनीतिज्ञों के लिए और साहित्य के लिए भी। तथापि पिछले ५०-६० वर्षों से यह स्त्री विमर्श, “नारी मुक्ति आन्दोलन” के नाम पर एक नए रूप में सार्वजानिक रूप से एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है जिसे यूरोप में अस्तित्ववादी चिन्तक सीमोन-दि-वाउवा और अमेरिका में बेट्टी फ्रीडन जैसी प्रतिभाशाली और नारी अधिकारों की प्रखर प्रवक्ताओं से इस “नारी मुक्ति आन्दोलन” को पर्याप्त बल मिला और वैचारिक आयत के रूप में यह आन्दोलन अपना विस्तार करता हुआ पाश्चात्य सभ्यता, पाश्चात्य वेश-भूषा और पाश्चात्य सोच का स्वरूप धारण कर इस देश के युवा वर्ग में लोकप्रिय हुआ जिसे न्यूनाधिक समर्थन समाज से भी मिला एक समानांतर नवीन वैचारिक चिंतन, लेखन और राजनीतिक स्तर पर, साथ ही क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में इस विमर्श के पक्ष और विपक्ष में रह-रह कर उच्चस्वर उठते रहे और लगभग एक दशक से यह विमर्श “नारी सशक्तिकरण” के नाम से लगातार चर्चा और लेखन का प्रमुख बिन्दु रहा है जिसमें किशोर मनोविकृति ने आग में घी का कार्य किया। यह स्त्री विमर्श अब अपने परंपरागत स्वरूप तक ही सीमित न रहा, सत्ता की राजनीति ने इसे संसद में भी गुंजायमान कर दिया और दिल्ली की “दामिनी प्रकरण” से तो न्यायपालिका भी परोक्ष रूप से इस विमर्श में सम्मिलित हो गयी। भविष्य की फसल वर्तमान के बीज में गुम्फित होती है, अतएव भविष्य की योजनाओं और परिकल्पनाओं की एक भावी योजनाओं की रूपरेखा सर्वत्र अब एक आकार लेती दीखने लगी है– समाज में भी, राजनीति में भी और साहित्य में भी।
जब हम हिंदी साहित्य में काव्य के माध्यम से “भविष्य की नारी” पर विचार-विमर्श करते हैं तो दृष्टि पटल पर सहसा हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, इसीवर्ष २०१३ में प्रकाशित सम्वेदनशील रचनाकार डॉ.रमा द्विवेदी का हाइकु-संग्रह “साँसों की सरगम” जिसमें कवियित्री ने नारी-अस्मिता, नारी चेतना के विषय में समाज के विभिन्न वर्गों से तो वार्तालाप किया ही है, गर्भस्थ भ्रूण (गर्भस्थ शिशु) से भी वार्तालाप किया है। यह वार्तालाप भावी स्त्री विमर्श, स्त्री की दशा और दिशा को नए रूप, नए अंदाज, नए तेवर और नयी योजना-परिकल्पना के रूप में एक शोधित, संशोधित, परिवर्तित समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो “भविष्यति की नारी” के रूप मेंस्त्री -विमर्श की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। “साँसों की सरगम” से पूर्व कवियित्री के दो काव्य संग्रह “दे दो आकाश” और “रेत का समंदर” प्रकाशित होकर समाज में, विशेष रूप से नारी समाज में अलख जगा रहे हैं। इन तीनों ही काव्य संग्रहों में नारी चेतना, नारी अस्मिता और नारी जीवन के दुःख-दर्द को युक्ति और तर्क के साथ निर्भीक और निडर होकर अभिव्यक्त किया गया है। इस सन्दर्भ में श्री अशोक शुभदर्शी जी ने अपनी समीक्षा में सारगर्भित टिपण्णी की है कि”डॉ. रमा द्विवेदी की कविताएँ उनके अंतर्मन की पाकशाला में खूब पकी हैं,1। इसका निहितार्थ है कि जो अच्छी तरह पकता है वही सुपाच्य भी होता है और विषाणु मुक्त भी। अपनी बात को समाज तक और नारी समुदाय तक ग्राह्य और पोषक बनाने के लिए अंतर्मन की बातों का सुपाच्य होना और विषाणु मुक्त होना अनिवार्य है और इस मर्म को एक पाकशास्त्री नारी से बेहतर भला कौन जान सकता है? इसी का प्रभाव है कि डॉ. द्विवेदी की रचनाओं में युगीन समस्याएँ उजागर हुई हैं। नारी की स्थिति पर कवयित्री का ध्यान अत्याधिक गया है। आचार्य शिवचंद्र शर्मा ने इन रचनाओं की मूलधारा को उद्घाटित करते हुए कहा है – “जीवन का बहुरंगी चित्रण होते हुए भी डॉ. द्विवेदी जी के गीतों में स्त्री वेदना विशेष रूप से मुखरित है।”2 हाइकु के रूप में उनके अंतर्मन की यह वेदना छलक ही पड़ी है कागज़ के ललाट पर– “वेदना पाती / वेदना ही मैं गाती / तुम्हें लौटाती”3। इस वेदना दो स्वर है, प्रो. टी. मोहन सिंह के शब्दों में यदि कहा जाय तो– “इस काव्य में कवयित्री की काव्य चेतना के दो तट दिखाई देते हैं। प्रथम तट नारी की मुक्ति चेतना से संपन्न है तो दूसरा तट लोकबोध संबंधी है।” समाज में इन दोनों ही तटों की समान उपयोगिता है।
नारी-चेतना की जागृति को रचनाकारों ने युगीन आवश्यकता के रूप में चिह्नित किया है और आक्रोश के साथ यत्र-तत्र अभिव्यक्त भी किया है लेकिन रमा जी की विशेषता यह है कि वे केवल आक्रोशित नहीं होती, समाधान का तार्किक मार्ग भी बताती है। इस क्रम में प्रथम चरण के रूप में कवयित्री नारी को अपने सर्वांश स्वरूप में ऊपर उठने का संकेत और संदेश देती हैं, यह वैज्ञानिक सत्य है कि जो उठता है वही ऊपर आकाश में विचरण करता है, जन-मानस में छा जाता है। कवियित्री इसीलिए मांग करती हैं– “दे दो आकाश मुझे” लेकिन वे भली प्रकार जानती हैं कि यहाँ माँगने से कुछ नहीं मिलता, अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना पड़ता है- “खुद ही खोजो/ कोई न बतायेगा/जीने की राह”4। लेकिन यह समाज जब किसी नारी को अपने मार्ग से आगे नहीं बढ़ने देता, मार्ग में नाना प्रकार के अवरोध उत्पन्न करता है तो यही नारी आक्रोशित होकर दृढ स्वरों में चेतावनी देती है–”कोमलता को कमजोर समझना/ यह है तेरी नादानी/ आती है बाढ़ नदी में जब/ जग को करती है पानी-पानी”5। नारीत्व कमज़ोरी नहीं है बल्कि नारीत्व शक्ति का मूल स्रोत है। इस क्रम में नारी की प्रकृति प्रदत्त मातृत्व-शक्ति को महिमा मंडन के साथ रेखांकित किया है। वंश वृद्धि और पुत्र के रूप में स्वयं को जीवित रखने की लालसा/ जिजीविषा ही दम्पत्ति में पुत्रमोह उतपन्न करती है और माँ-बाप ही जाने–अनजाने पुत्र मोह में फंस जाते हैं और कन्या भ्रूण हत्या जैसे घृणित कृत्य में सम्मिलित हो जाते हैं। इस भंवरजाल में फंसे दंपत्ति से कवियत्री कहती है– “वंश का नाम/ चलाता है आत्मज/ बेबुनियाद”6। बढ़ती जा रही कन्या-भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति पर इस कुत्सित–घृणित मानसिकता के लिए समाज को ही नहीं, अपने परिवार और पति को भी दोषी मानते हुए ललकारती हैं– जन्मदात्री हूँ/ बेटी भी मैं जनूंगी / रोकेगा कौन?7
स्त्री विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति:
अब स्त्री विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से यदि डॉ. द्विवेदी की रचनाओं पर बात करें तो उनकी रचनाओं में मुख्यतः तीन प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट दीखती हैं –
(क) नारी को परिभाषित करने की प्रवृत्ति, जिसमें नारी अस्मिता, महत्ता और उसके गुणों का अंकन / चित्रण है।
(ख) समाज से वार्तालाप की प्रवृत्ति, जिसमें नारी की वर्तमान दशा और संत्रास का चित्रण तथा उसपर प्रतिक्रियाएँ हैं।
(ग) गर्भस्थ भ्रूण (शिशु) से वार्तालाप की प्रवृत्ति, जिसमें भविष्यति की नारी की भावी रूपरेखा और योजनायें हैं। प्रथम दो प्रवृत्तियाँ वर्तमान की नारी परिस्थितियों के चित्रण से भूमिका, अन्याय, अत्याचार के चित्रण से विद्रोह और आक्रोश तथा तीसरी प्रवृत्ति आक्रोशित होकर भविष्य की योजना तैयार करती है। वार्तालाप की शैली रोचक और प्रवाहपूर्ण है।
एक संवेदनशील नारी होने के कारण इस संग्रह की रचयिता डॉ रमा द्विवेदी जी ने नारी-चेतना, नारी-अस्मिता और नारी-जीवन के दुःख-दर्द को युक्ति और तर्क के साथ निर्भीक और निडर होकर नारी की मातृत्त्व शक्ति को महिमा मंडित करते हुए रेखांकित किया है। बढ़ती हुयी कन्या भ्रूण हत्या के प्रति उनकी घृणित मानसिकता के लिए समाज को ही नहीं, अपने परिवार और पति को भी कठघरे में खड़ा किया है। सोच और कथ्य की दृष्टि से यह एक अनूठा कार्य है। वे सभी को ललकारते हुए कहती है- “जन्मदात्री हूँ/ बेटी भी मैं जनूंगी/रोकेगा कौन?”7 कवियित्री एक सामान्य नारी को उसकी वास्तविक शक्ति से परिचित कराना चाहती है, इसी को लक्षित कर वे लिखती हैं –“आग का गुण/ सिर्फ जलना नहीं/ जलाना भी है”8। यहाँ लक्षणा शब्दशक्ति से “आग” शब्द नारी के वाच्यार्थ में ही आया है। निश्चित रूप से सामाजिक विद्रूपताओं, अंधविश्वासों, कुरीतियों और व्यापारवाद की चक्की में पिस-रहा, घुट-रहा, जल-रहा, नारी-मन ही आग की संज्ञा से संबोधित है- “आत्मा की दूर्वा/ जल रही आग में/ देह ईंधन”9। लेकिन यह संबोधन एवं आह्वान अंततः ध्वंसात्मक और विघटनकारी नहीं, सृजनात्मक है। यह चेतावनी उनके लिए है जो प्यार, अनुग्रह, आग्रह और युक्ति-तर्क को भी नकार देते हैं जो सुनने, समझने और मनन को तैयार हैं उनके लिए कवियित्री का स्वर संयम, युक्ति और तर्क से संयुक्त है। वे प्यार से समझाती हैं– “स्त्री भ्रूण हत्या/ बिगड़ा संतुलन/ सृष्टि का नाश”10। फिर तर्क करती हैं – “बिगड़ेगा जो/ सृष्टि का संतुलन/ ब्याहोगे किसे?”11
पूर्व में ही संकेतन किया जा चुका है कि कवियित्री की एक अनूठी विशेषता यह भी है कि वह केवल समाज से ही वार्तालाप नहीं करतीं; वह गर्भस्थ-भ्रूण (शिशु) से भी वार्तालाप करती है और इसी बहाने नारी विवशता तथा आक्रोश को रेखांकित करती है। गर्भस्थ कन्या-भ्रूण माँ से कहती है- “संहार मत/अपने स्वरूप को/ माँ आने भी दो”12। प्रत्युत्तर में माँ तड़पकर, आहत होकर असहाय सी अपनी वेदना प्रकट करती है – “गर्भ सुरक्षा/ दे सकती हूँ बेटी/ बाहर नहीं”13। जानती हो क्यों? क्योंकि बाहर तेरा सबसे बड़ा शत्रु तो वही है, जिसका तू अंश है – “जीवनदाता/ बन गया राक्षस/ सुरक्षा कहाँ?”14। इस विवशता पर पतिपरमेश्वर का “अविरोध करने की परंपरागत मान्यताओं की बेड़ियों में जकड़ी एक पत्नी”, एक माँ के रूप में, एक आज्ञाकारी कुलवधू के रूप में कर ही क्या सकती है, आँसू बहाने के अतिरिक्त- “चंद कतरे/ टपक कर गिरे/ क्या क्या न कहें”15। माँ की सारी विवशता समझ जाती है, वह गर्भस्थ-कन्या इस सामाजिक कुपरम्परा के सर्वनाश का तत्क्षण ही संकल्प लेती है और माँ को भी अनुप्रेरित करती है, उसके अंतर की सुषुप्त नारी-अस्मिता को जागृत करती है, इस कुव्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह और विनाश का आह्वान करती है- “भेदना होगा/ दुष्टों का चक्रव्यूह / चंडी बन के”16। माँ तुमने बहुत सह लिया अब तक.., अब चुप न बैठो.., माँ तुम “चुप न बैठो/ काली कपाली बन/ करो संहार”17। यहाँ जब “संहार” शब्द पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह “संहार” शब्द डरावना अवश्य है लेकिन यह समाज का संहार नहीं है, यह बुराइयों का संहार है। इस संकल्प को माँ यदि पूरा न कर सकी तो गर्भस्थ कन्या, बेटी – वधू – माँ और सासू-माँ बनकर अपना यह संकल्प पूर्ण करेगी। इसलिए वह बलपूर्वक माँ से कहती है – तू चंडी बन जा, काली बन जा, कपाली बन जा, विद्रोहिणी बन जा और जन्म दे मुझे। तू मुझे केवल अस्त्तित्वमान बना दे माँ! शेष कार्य तो मैं पूरा करूँगी। मेरा यह अनुरोध स्वीकार लो माँ, इसलिए पुनः पुनः कहती हूँ- “संहार मत /अपने स्वरूप को / माँ आने भी दो”। किन्तु प्रतिक्रिया और विद्रोह का यह स्वरूप पाश्चात्य “नारी मुक्ति आन्दोलन” की छाया से पूरी तरह मुक्त है।
कवियत्री पाश्चात्य सभ्यता और अस्तित्ववादी विचारकों की तरह समाज स्वीकृत, संस्कृति अनुमोदित “विवाह संस्था” जैसे नियामक स्वरूप को नकारती नहीं, वह स्वच्छंदता को, निर्ल्लजता को, तलाक को अपनाने की सलाह नहीं देती। वह विवाह और दाम्पत्य को,इसके अर्थ को स्पष्ट करती है, दाम्पत्य में मधुरता और समरसता की बात करती है। वे कहती हैं कि विवाह मात्र कुंडली का मेल नहीं है,यह तो विचारों और संस्कारों का मेल है, यदि विचारों में साम्य नहीं तो यह निरर्थक है- “कुंडली मिली / शहनाई की गूंज / करम जली”18। करम क्यों जली? क्योकि विचार और संस्कारों में मेल नहीं। यदि विचार नहीं मिले, संस्कार नहीं मिले तो भाग्य को दोष न दो, आपसी संबंधों को, विवादों को, समझदारी से सुलझा लो क्यों कि –“समीकरण / टिका है संबंधों का / समझ पर”19। वे सुझाव देती हैं, फूल बन जा और सौहार्द्रपूर्ण दाम्पत्य जीवन की रचना करो। ज़रा देख तो सही- “फूलों ने रचा / बूंदों के सौन्दर्य से / काव्य नवीन”20। जब एक पौधा यह कर सकता है तो तू क्यों नहीं? इसलिए तू भी रच एक नया जीवन, कटुता भुलाकर। यह विवाह पाश्चात्य सभ्यता की तरह कोई समझौता नहीं है, इसकी परिणति तनाव और तलाक नहीं है, प्रेम और विवाह तो दिलों की कोमल संवेदनाएँ हैं जिन्हें निभाना पड़ता है – “प्रेम दिल की पुकार है/ हृदय का विस्तार है/ स्वप्निल संसार है/ रस की फुहार है/ तन-मन झूम जाता है/ गीत बन जाता है।” भारतीय संस्कृति में सम्बन्ध-विच्छेद और तलाक स्वीकृत नहीं है। यह तो पाश्चात्य सभ्यता है जहाँ विवाह खतरे में ही रहता है- “शादी रचा ली /माडर्न समझौता / खतरे भरी”21। वैवाहिक सुख-शान्ति के लिए अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करना पड़ता है- “खुद ही खोजो / कोई न बतायेगा / जीने की राह”22। लेकिन राह जीने की खोजो, मरने और मारने की नहीं, तलाक और परित्याग की नहीं, हाथ की बदसूरत लकीरें बदली जा सकती हैं समझ से, विवेक से, श्रम से। जानते हो- “मेहनत से / बदली है उसने / भाग्य रेखाएँ”23। सुखी-समृद्धशाली जीवन का आधार समझ और श्रम ही है, कुंडली और मंत्रोचारण नहीं -“मंत्रोच्चारण/ विवाह का आधार/ है निराधार”24। इस रूप में वे कोरी अंधविश्वास का विरोध करती है लेकिन मर्यादा के सन्दर्भ में वे नारी के लिए लज्जा, आँचल, चौखट जैसी स्थापित परंपरागत मान्यताओं का समर्थन भी करती हैं। तन-बदन के प्रदर्शन को समाज के लिए घातक मानती हैं, उसकी कटु आलोचना करती है- “उघडा तन /आधुनिक फैशन / यश की सीढ़ी”25। यश के लिए इस प्रकार के शार्टकट का विरोध करती हैं वे, क्योकि इस शार्टकट में, सुन्दर दिखनेवाले तन में घातक विष भरा है- “सुन्दर तन / कनक घट विष / मलिन मन”26। उनके अनुसार नारी समाज के लिए आँचल और चौखट का महत्व सदा से रहा है। यह जितना महत्वपूर्ण कल था, उतना ही प्रासंगिक आज भी है। इस प्रासंगिकता को रेखांकित करती हैं अपनी रचना “रेत का समंदर” में वे लिखती हैं- “दहलीज एक गतिरोध भर नहीं / यह पहचान है / उस घर की सीमाओं की /मर्यादाओं की / संस्कारों की / सुरक्षा की / आत्मीयता की/ यह वरदान भी है, गुमान भी है / और कभी कभी अभिशाप भी /आधुनिक घरों में नहीं रही दहलीज की परंपरा / इसलिए न कोई मर्यादाएँ हैं / न जीवन आचरण के मूल्य / और नई पीढ़ी दिग्भ्रमित हो भटक रही है / मूल्यहीनता की दिशा में”27। उन्हें मानवीय मूल्यों से प्यार है। जड़ता से कवियत्री लड़ना चाहती है, वह लड़ेगी भी लेकिन प्रगतिशीलता के नाम पर पारम्परिक मूल्यों को त्याग कर नही, उनकी प्रगतिशील नारी कुरीतियों से लड़ेगी, अंधविश्वास से लोहा लेगी, वैज्ञानिक शोधों को, उसके निष्कर्षों को मान्यता देगी, जीवन में स्वीकार भी करेगी, लेकिन आवरणहीन और आचरणहीन होकर नहीं। पति अब उनके लिए परमेश्वर भले ही न रहा हो, वह त्याज्य नहीं है, आपसी कटुता का इलाज तलाक नहीं है। तलाक और सम्बन्ध विच्छेद से यथासंभव बचना चाहिए क्योंकि इससे सामाजिक विकृति बढ़ेगी,यौनविकार और व्यभिचार बढ़ेगा इसलिए पाश्चात्य परंपरा का विरोध करते हुए वे आश्चर्य प्रकट करती हैं – “ये कैसी सोच / पति को फटकार / कुत्ते से प्यार”28। वे दाम्पत्य जीवन में सौहार्द्र और समरसता चाहती है। इस प्रकार के समझबूझ वाले दम्पतियों के संयुक्त प्रयास से ही सामाजिक विकृतियों को मिटाना चाहती है और इस जागरण अभियान में अपनी संतान को भी साथ सम्मिलित रखना चाहती है। सम्वेदनहीन संतान की प्रतिगामी सोच को कोसते हुए उसे नैतिकता – सामाजिकता और उत्तरदायित्व का पाठ पढ़ाना चाहती है। इस क्रम में एक संतान की, चाहे वह पुत्र हो या पुत्री, प्रथम जिम्मेदार “माँ” और “मातृभूमि” से बढ़कर क्या हो सकती है? वह “माँ” जो देवों की भी देव है, जो त्रिदेवों की जननी है, आदि शक्ति है, जन्मदात्री है, जन्मभूमि है…। उसकी उपेक्षा पर वे चिंतित है- “अजब बात / माँ को न पाल सके / उसके लाल”29। वे सीख देतीं है बच्चों को कि– “माँ वन्दनीय / चौदह भुवन में / अतुलनीय”30 और जानते हो तुम लोग जिस अलौकिक सुख की तलाश में घूमते हो मारे-मारे, वह सुख माँ के चरणों में ही है, कहीं अन्यत्र नहीं- “स्वर्ग है कहीं / माँ के ही चरणो में / ढूंढो तो सही”31।
समाज और संतान जब इस सीख और तर्क को नहीं मानता तब उनकी इस दायित्वहीनता की स्थिति पर कवियत्री चुटीला व्यंग्य करती हैं – “कैसा समाज / तार-तार अस्मिता / देश महान”32। उन्हें लगता है कि नारीशक्ति ही अब नारी-अस्मिता की, उसकी गरिमा की, मातृभूमि की और राष्ट्रीय / सांस्कृतिक मर्यादा की रक्षा कर पायेगी; कोई दूसरा नहीं, तभी तो कहती है दृढ़ता के साथ- “बढ़ा अधर्म /पियेगी रक्त काली / रक्तबीज का”33। यहाँ “काली”, “कपाली” और “दुर्गा” कोई और नहीं, नारीशक्ति ही है। यह “काली” हमारी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक प्रतीक है, यह नारी “शक्ति” की आध्यात्मिक पहचान है, इन प्रतीकों में भारतीय नारियों की अपार श्रद्धा – आस्था है। कवियित्री उन्हें अंधविश्वास-मुक्त पुरातन आस्थाओं की ओर लौटने और लौटाने की आग्रही हैं।पाश्चात्य के रंग में रंगी भारतीय नारियों से आग्रह करती हैं– “सोचने लगे / क्यों नहीं लौट चलें / आस्था की ओर”34। इस प्रकार कवियित्री का स्वर आग्रह, युक्ति, तर्क से प्रारम्भ होकर आक्रोश और ललकार के रूप में अभिव्यक्ति पाता है लेकिन इन विभिन्न अभिव्यक्तियों के बीच भी उनका आदर्श परंपरागत मूल्य है, सांस्कृतिक मूल्य, शाश्वत मूल्य। इन मूल्यों से वे समझौता नहीं चाहती क्योकि- “शाश्वत है वो / सारगर्भित है जो / अमूल्य है वो”35। अपनी संस्कृति के प्रति यह अडिग दृढ़ निष्ठा ही भीड़ में उन्हें नारी विमर्श की अन्य रचनाकारों से एकदम अलग करती है- एक विशिष्ट/अतिविशिष्ट “स्त्री विमर्श” के रचनाकार और पैरवीकार के रूप में कवयित्री तो स्वयं वीतराग है उसको न राज चाहिए न ताज चाहिए, उसे तो बस आकाश सी उन्मुक्तता, विस्तार और निर्मलता चाहिए–“राज मुबारक तुमको / ताज मुबारक तुमको / बस चाहते हैं इतना / दे दो आकाश हमको” 36कवयित्री केवल “स्व” के लिए आकाश की आकांक्षिणी नहीं है वे “सर्व” के लिए, समस्त नारी जाति के लिए खुले आकाश की आकांक्षिणी है, इसलिए वे अपने मंतव्य को स्पष्ट लिखती हैं- “मैं नारी जीवन का विस्तार चाहती हूँ… दे दो आकाश हर नारी का संकल्प बन जाए” 37। अब यदि वांछित आकाश मिल जाय विचरण के लिए तो कैसी होगी भविष्य की नारी, यह जिज्ञासा का विषय है।
कैसी होगी भविष्य की नारी?
डॉ. रमा द्विवेदी की अब तक प्रकाशित तीनों काव्य संग्रहों की रचनाओं के मुख्य स्वरों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनकी “भविष्य की आदर्श नारी” में अग्रलिखित गुण होंगे-
(१) प्रगतिशील होगी, अंधविश्वास से मुक्त, स्वतंत्र होगी लेकिन स्वच्छंद नहीं होगी, मर्यादाविहीन, आचरणहीन नहीं होगी।
(२) पर्यावरण के प्रति चैतन्य होगी, सम्वेदनशील होगी।
(३) वह एक आदर्श भारतीय नारी होगी, भारतीय संस्कृति के अनुरूप सम्पूर्ण अर्थों में एक स्त्री का सम्पूर्ण स्वरूप है- “माँ”, माँ वह तब बनेगी जब विवाहिता होगी। एक स्त्री में माँ का अपना रूप ही सत्यं है, उसका वात्सल्य भाव ही शिवं है और उसकी ममता ही सुन्दरम है। वह काली है, कपाली है, “सती” है, “शिवा” है, अपने अधिकार के लिए पति से आवश्यकतानुसार तर्क-वितर्क भी करेगी लेकिन अपने “शिव” का अपमान सहन नहीं कर सकती। चाहे अपमान करनेवाला चाहे कितना भी बलशाली – वैभवशाली क्यों न हो ,वह जन्मदाता पिता ही क्यों न हो?
(४) माँ और मातृभूमि के प्रति संवेदी और समर्पित होगी। (५) कर्त्तव्यनिष्ठ और नैतिकता की पोषिका होगी।
(६) वह आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टियों से अतिवादी नहीं होगी, वह मध्यमार्गी होगी। गुण संग्रहिका होगी, मधुसंचय की सी प्रवृत्तिवाली।
निष्कर्ष:
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विद्रोह की सी इस पृष्ठभूमि और तानाबाना में डॉ. रमा द्विवेदी की रचना का मूल एक स्वस्थ समाज, शोधित समाज, प्रगतिशील समाज की संरचना का सृजनात्मक स्वर, आशावाद की झलक और परिवर्तन की स्वस्थ रूप-रेखा है। यह प्रगतिशीलता है, जड़ता नहीं, इस आधार पर कवियत्री को प्रगतिशील विचारधारा का पोषक कहना उचित होगा,पोषक ही क्यों? इसमें तो नेतृत्व की तेजस्वी-ऊर्जा भरी पड़ी है, जिसमें सांस्कृतिक परम्परा और आधुनिक प्रगतिशीलता का अनूठा समन्वय है, जिसमे क्षैतिज विकास और ऊर्ध्व विकास का अद्भुत संतुलन है।
सदर्भ ग्रन्थ सूची:
(i) डॉ. रमा द्विवेदी : साँसों की सरगम, हिन्द युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१३।
(ii) अशोक शुभदर्शी (समीक्षा) : स्त्री विमर्श की कविताएँ “दे दो आकाश”, `भाषा”, २००६,
(iii) डॉ. रमा द्विवेदी: “रेत का समंदर”, हिन्द युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१०
(iv) प्रो. किशोरीलाल व्यास(समीक्षा) : “दे दो आकाश”, “एक उड़ान आकाश की ओर”।
(v) डॉ. जयप्रकाश तिवारी (समीक्षा) : “रेत का का समंदर, भावनाओं की ज्वार-भाटा”।
(vi) डॉ. जयप्रकाश तिवारी (समीक्षा) : “साँसों की सरगम या व्यक्त्तित्व का दर्पण”।
(vii) रश्मि प्रभा (संपा) : “शब्दों के अरण्य में”, हिन्द युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१२।
(viii) रश्मि प्रभा (संपा) : “नारी विमर्श के अर्थ”, हिन्द युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१३।
(ix) डॉ. जयप्रकाश तिवारी (समीक्षा) : “शब्दों के अरण्य में चक्रमण–परिभ्रमण”।
(x) डॉ. जयप्रकाश तिवारी (समीक्षा) : “नारी विमर्श के अर्थ का निहितार्थ”।
सहयोग: डॉ. जयप्रकाश तिवारी
: शिल्पी “मंजरी”
एम.ए. (हिंदी, शिक्षाशास्त्र), बी.एड.