जी पूर्ववत वेरी गुड देकर शाबाशी देते रहे, हस्ताक्षर करते रहे। मन में एक कचोट सी उठती थी कि मैं उनसे झूठ बोल रही हूँ। एक दिन कॉपी दिखाते समय मुझसे रहा नहीं गया और कॉपी में उनके गुड लिखने से पहले ही मैं बोल उठी–गुरु जी मुझे गुड़ मत दीजिए, मैंने पाठ पूरा नहीं लिखा है। तो वे बहुत प्यार से बोले–मैं जानता था बेटी, और ये जानता था कि अपनी इस गलती को तुम स्वयं अनुभव करोगी और आकर मुझे बताओगी, क्योंकि कक्षा के जिन शैतान विद्यार्थियों के साथ आलस्य व झूठ के जिस रास्ते पर तुमने कदम रखा,वह रास्ता तो तुम्हारा है ही नहीं। इसलिए तुम्हें गुड-वेरी गुड़ देने में मुझे कभी संकोच नहीं हुआ। तुम अपने रास्ते पर लौट आई हो…तो अब देखना, जीवन में फिर कभी भी तुम ऐसे लोगों का साथ नहीं करोगी।
संस्कृत के गुरु जी के मुझ पर किये उस विश्वास की आभा ने मुझमे सही और गलत पहचानने की जो क्षमता मुझमे विकसित की, उसके कारण ही मैं आज भी गलत लोगों के साथ से दूर हूँ। इसके लिए जीवन भर मैं उन गुरु जी की ऋणी रहूँगी।
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डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई
वाह्ह…..बहुत सुंदर कहानी।
धन्यवाद स्वेता जी