ं मैं अपनी किस्मत का कोस रहा था कि पहले मैं ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठा था, अकेला। परन्तु जब ड्राइवर कम कंडक्टर ने एक-एक करके तीन आदमी उस सीट पर बैठाये तो मैं झुंझला कर बोल उठा, आप गाड़ी कैसे चलाओगे,? खुद कहाॅ बैठोगे?
‘यह मेरा काम है, मैं कर लूंगा।‘ं उसने गर्वमिश्रित साधिकार घोषणा कीं। मैं असमंजस में आ कर पीछे बैठना ही बेहतर समझा। वहाॅ, कमोवेश गिरने का डर तो नहीं रहेगा। और उस समय पीछे की सीटें पूर्णरूपेण भरी नहीं थीं, और मुझे तनिक भी आशंका नहीं थी कि पीछे की स्थिति भी बदतर हो जायेगी। वैसे भी ड्राइवर के साथ वाली जगह पर इस इलाके के प्रभावशाली लोग ही बैठते थें। इस जगह पर उनका अघोषित आरक्षण था। मुझ जैसे का उनके साथ बैठना उन्हें असहज बना रहा था। एक दो बार ईशारों से और वाक्यों से मुझे पीछे आराम से बैठने की सलाह, ड्राइवर और तथाकथित उच्च लोग दे चुके थे। परन्तु वहाॅ बैठकर मैं भी अपने को विशिष्ट समझने का भाव लिए था।ं मेरे वहाॅ से उतर कर पीछे चले जाने से उन लोगों के चेहरे से हार्दिक संतुष्टि का भाव प्रगट हो रहा था।
मेटाडोर के पीछे वाले हिस्से में दो लम्बी-लम्बी सीटें थीं, जिनपे चार चार लोग आसानी से बैठ सकते थे। परन्तु उसने देखते ही देखते उनमें छै-छै व्यक्ति खिसका-खिसका कर एडजस्ट कर दिए थे। मैं आगे और पीछे की सीटों पर बैठने की प्राथमिकताओं और उपयोगिताओं के गणित में उलझ कर रह गया था।
मेरे सामने की सीट पर चार औरतें थीं और दो आदमी। उसमें तीन औरतें और दोनों आदमी साठ-सत्तर के आसपास बूढ़े और थके थे। सिर्फ एक औरत जवान थी, शायद काली सी। वह घूंघट लिए थी और उसकी गोद में एक डेढ़ साल का बच्चा था, उस जैसा ही। उस बच्चे वाली औरत के दांत सफेद मोती जैसे थे जो घूंघट में चमक रहे थे। बच्चा अक्सर रो उठता था, जिसे चुप कराने के लिए उसे छाती से सटाकर दूध पिलाना पड़ता था, जिसके लिए उसे काफी सावधानी रखनी पड़ती थी, कि कोई नजर उसका पोषण अंग देख न ले। जिस सीट पर मैं बैठा था उसमें एक कम उम्र का जवान लड़का गेट की तरफ, दो अधेड़ औरतें, एक मुच्छड़ अधेड़, एक मैं और मेरे बगल में, ड्राइवर की सीट के एकदम पीछे एक पर्दा नसीन। ड्राइवर के साथ एक पुलिस वाला एक ठेकेदार और एक अध्यापक था, जो जोर-जोर से बातें ओर बहस करता था।
एक तो बोरियों की तरह ठुसे, ऊपर से बोरियत का आलम, कहीं कोई खूबसूरती का चिंह नहीं था। मैं कसमसाया और अन्दर चारों तरफ नजर दौड़ाई, मगर अफसोस उस यात्रियों से भरी मेटाडोर में कहीं कोई रोमांस लायक नहीं था। सारे चेहरे थके बोझिल और बूढ़े थे। ज्यादातर अधेड़ मुच्छड़ या झुर्रियों भरे चेहरे थे। मैं खूबसूरती की तलाश में था।
बच्चे वाली काली नवयौवना घूंघट की आड़ से अक्सर मुझे देख लेती थी, जब मेरी नजरें कहीं और होती थी । उसका चेहरा तो ठीक से नहीं देख पाता था परन्तु पोषण वाली जगह अक्सर दृष्टि पड़ जाती थी। वह झट से बच्चे का दूध छुटाकर अपने को पूरा ढक लेती थी। मेरी खूबसूरती की तलाश पर्दानसीन पर आकर अटक गई थी। वह बुरके में थी। लड़की, नवयुवती या स्त्री ? उसका कोई भी अंग, या कोर नहीं दिख रहा था, जिससे खूबसूरत, बदसूरत का अंदाजा लग सकें। खूबसूरती की खोज में असफल, निराश और सुन्दरता के दर्शन दुर्लभ हैं, मैंने आंखें बंद कर लीं।
कुछेक पलों बाद मैंने आंखें खोलीं तो देखा घंूघट वाली अपने बच्चे को दूध पिला रहा थी, मगर उसकी आंखें मुझ पर स्थिर थीं मैं अचकचाया और अपनी दृष्टि पर्दानसीन पर फेर दी। उसकी आंखें भी महीन जालियों में कैद थीं। बड़ी कोफ्त हो रही थी। अचानक उसने बुरके की जेब से हांथ बाहर निकाला और अपने चेहरे पर फेरेते हुए मद्धिम स्वर में कहा, ‘‘आह! क्या आफत है? मेरी सांस न घुट जाये।‘‘ उसके हांथ और साइड से चेहरे की झलक पाकर, मुझे आभास हो गया कि यह लड़की बला की खूबसूरत होगी। मुझे लगा सुन्दरता हर जगह होती है, तलाश करनी पड़ती है।
मैं उसे कनखियों से देख लेता। अब मेरा ध्यान सिर्फ उसी पर केन्द्रित था। कैसे पूर्ण चांद दिख जाये। मैंने एक नजर चारों ओर दौड़ाई, सब ऊॅंब और ऊॅघ रहे थे। सायं के सात बज रहे थे। रात का अंधेरा घिर आया था। गाड़ी अपनी गति से चल रही थी और हर आधा-एक कि0मी0 पर गाड़ी रूकती सवारियां उतारती और चढ़ाती थी। परन्तु यात्रियों की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं आ रहा था।
पर्दानसीन हसीना ने व्याकुल होकर अपने चेहरे के हिजाब को उलट दिया और मेरी तरफ मुखातिव होकर बोली, ‘बड़ी बेबसी है, घुटन है।‘ मैं हतप्रभः उसकी ओर अपलक निहारता ही रह गया। उसके चेहरे पर अजीब सा आकर्षण और सम्मोहन था, जिसने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। वह बला की खूबसूरत थी और उसका बदन तराशा हुआ था। उसकी आंखों में बेपनाह गहराई थी। वह मेरी तरफ उत्सुक नजरों से देख रही थी। मैं प्रतिक्रिया विहीन, भावशून्य अवस्था में शब्दहीन और अर्धव्याकुल था। कई सारी जोड़ी आंखें, उस पर केन्द्रित हो गयीं तो झट से उसने अपना चेहरा ढक लिया और मैं चेतन अवस्था में आ गया। मैंने सोचा इश्क करने के लिए उससे ज्यादा उपर्युक्त कोई नहीं होगा। कम से कम जिंदगी में एक अदद गर्लफ्रेन्ड होना जरूरी है, जिससे मैं अभी तक महरूम था। मेरी तलाश पूर्ण हो चुकी थी। मैंने मन ही मन अपनी दीदी का शुक्रिया अदा किया, जिन्होंने कुछ समय के लिए छुट्टियों में अपने साथ रहने को बुलाया था।
लीलापुर आ गया था। कई सवारियां उतरी थीं। बच्चे वाली औरत गायब थी, वह कब उतर गई पता ही न चला। यहाॅ पर कोई सवारी नहींे चढ़ी। मेटाडोर कुछ हल्की हो गयी थी। राहत सी महसूस हो रही थी कुछ तरह की गंधों और उमस से निजात मिली थी।
‘ठीक से बैठ जाइये।‘ हसीना बोली। मैं खिसक के बैठ गया। उसने खाली स्थान की पूर्ति कर दी। अब भी उसका जिस्म मेरे शरीर के सम्पर्क में था। काफी अच्छा लग रहा था। मैं सीट को बायें हांथ से पकड़े था, सम्भावित धचके से बचने के लिए। उसने कुूछ सोचा और अपनी हथेली ूमेरे हांथ पर टिका दी। एक करेंट हाथों से होता हुआ मनमस्तिष्क पर पहॅंच गया। खून का प्रवाह रूक गया, प्यार का आवेग चल पड़ा। मैं बुखार में दग्ध हो उठा था। मैं जड़वत वैसा ही बैठा रहा ।
‘नये हो?‘ मेरा हलक सूख गया।
हाॅ, और आप?
‘यहीं की हॅू। लालगंज घर है। प्रतापगढ़ में सर्विस करती हॅू।
‘आप स्टूडेंन्ट हैं?‘
‘सही अनुमान है, आपका। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एम0ए0 का छात्र हॅू।
एक लम्बी खामोशी। सफर जारी था। उसकी हथेली हल्के-हल्के मेरी हथेली को दबा रही थी। मादकता की अनुभूति हो रही थी। लालगंज आने वाला था, ड्राइवर ने चेताया, किराया निकाल कर रख लो। लालगंज में उस समय बिजली आ रही थी इस कारण रोशन हो रहा था लालगंज। मेटाडोर एक झटके से रूकी और हम दोंनों एकदम सट गये। लड़की ने मेरी तरफ मद्धिम खुमार भरी, उत्सुक नजरों से देखा। उसकी निगाहें शायद खुलकर दिल का राज कह देना चाहती थी, मगर कामयाब न हो सकी। उन आंखों में एक हल्की सी चमक पैदा हुई, परन्तु गुम हो गई।
सारे यात्री मेटाडोर से उतरते जाते और किराया देते जाते थे। ड्राइवर ने उसकी तरफ देखा, लड़की ने मेरी तरफ देखा। ड्राइवर बोला, ‘साथ में हो?‘ हम दोंनों में से कोई नहीं बोला। उसने दोनों का किराया मेरे से काट लिया।
हम दोंनों साथ-साथ चल रहे थे। कालाकांकर रोड में दीदी का घर था, मैं एक बार पहले भी आ चुका था। शायद उस हसीना का घर भी उधर होगा। एकदम से लालगंज की बिजली गुम हो गयी और वह मुझसे सट गई। उसने मेरी बांह पकड़ ली थी और बाॅह पकड़े-पकड़े ही चल रही थी। रोमान्टिकता फिर चल पड़ी थी। मैंने फ्रेंड बनाने की गरज से उसका नाम पूॅछा।
‘तरन्नुम।‘ और आपका?
‘आनन्द। मुझसे दोस्ती करोगी?
‘जरूर। क्यों नहीं?‘
मैंने अपना कान्टेक्ट नम्बर दिया। उसने नहीं दिया। रास्ता खामोशी और रोमांस से तय हो रहा था। मैं प्रसन्नता के उच्चतम शिखर पर था गर्वानुभूति से घिरा हुआ। अप्रत्याशित रूप से उस हसीन दोस्त का मिलना किसी सौगात् से कम नहीं था।
अचानक वह रूकी, उसने मेरी हथेली, अपनी हथेलियों से रगड़ी, और बोली ‘काम …………..काम नहीं करोगे?‘
‘काम।………….काम का मतलब?
लड़की ने अपने दोनों हाथों की अंगुलियों से मेरी दोनों हथेलियों को गुदगुदाया …….काम ……..नहीं जानते…….? उसने मेरी आंखों में अपनी आंखें डाल दीं। उसकी आंखों में नशा था, आमंत्रण था। मगर मैं संज्ञाशून्य हो चुूका था। उसका यह रूप देखकर मैं पाषाण बन चुका था। मेरी कल्पनाओं और भावनाओं को भयानक आघात लगा था। हसीना फिर लड़की में तदबील हो चुकी थी।
‘तो, ये काम करती हो?‘
‘हां, क्या करें,? मजबूरी है।‘
ऐसी क्या मजबूरी है? मैं नार्मल हो चुका था। उसकी आंखें नम थीं। गला रूंध गया था। उसने धीमे और बोझिल आवाज में कहा।
हम अब्बू अम्मी को मिलाकर दस जने का परिवार। अब्बू बढ़ई का काम करते हैं। खाने के लाले पड़े रहतंे हैं। फिर बढ़ई गिरि कभी चलती है, कभी नहीं। घर का खाना-खर्चा और भाई बहिनों की पढ़ाई लिखाई कैसे चले? अब्बू की बढ़ईगिरि से दो जने का भी खर्चा नहीं निकल सकता। मैं घर में सबसे बड़ी, मुझे भी तो घर की जिम्मेदारी निभानी है। नवीं पास, मैं और क्या काम कर सकती हॅू। मैं आगे नहीं पढ़ पाई तो क्या मेरे भाई बहिन भी पढ़ाई-लिखाई से महरूम रहें? उन्हें तो योग्य बना दूॅ। उसने मेरा हांथ छोड़ दिया था और कुछ अलग हट कर खड़ी हो गई थी।
‘ऐसी मजबूरी की दास्तान तो हर गलत काम करने वाला सुना देता है।‘ उसने गमगीन अविश्वसनीय निगाहों से मुझे देखा भर था और मेरी बर्फ पिघलने लगी थी। लड़की कुछ पल रूकी फिर उसने मेरी नजरों में झांका। शायद मेरी आंखों में अपनी बातों की सच्चाई परख रही हो, और फिर बोली आज शहर के होटल में बुलाया था, परन्तु कस्टमर शाम को ही वापस दिल्ली लौट गया। इसलिए मेरा काम नहीं हुआ। मैंने सोचा तुम नये हो तलाश में भी दिखे शायद एक रात की दुल्हन का अनुभव करना चाहोगे? परन्तु तुम तो …….। खैर…………। यह पहली बार नहीं है कि काम से खाली लौटी हॅू।‘ उस लड़की की आंखों में निराशा, हताशा पसर गई थी और मैं मुजरिम की तरह खड़ा, अपना गुनाह कबूल करने की तरफ अग्रसर था। मुझे लगा, मुझे दण्ड मिलना चाहिए, उस गुनाह की सजा जो मैंने अनजाने में की थी। उसकी उम्मीदों को ठोकर मारकर।
मैंने अपना पर्स निकाला और कुछ एक रूपये छोड़कर, सारे रूपये उसकी हथेली में रखकर उसकी मुटठी बंद कर दी। उसकी नरम और नाजुक हथेलियां बर्फ की तरह ठंडी पड़ चुकी थीं। ‘गुड बाई।‘ मैंने जल्दी में कहा, और तेज कदमों से उसे छोड़कर बढ़ गया था। मैं उससे इतनी दूर आ गया था कि वह हसीन बला पूरी तरह नजरों से ओझिल हो चुकी थी।