जब हम किसी से मिलते हैं,तो उसके तन या मन के आधार पर आकर्षित या विकर्षित होते हैं। तन का आकर्षण दीर्घावधि तक नहीं रह सकता,क्योंकि तन की एक निर्धारित आयु है और यौवन के चरम पर पहुंचने के बाद दिन-ब-दिन तन की चमक फीकी पडने लगती है।लेकिन जब किसी का मन और आत्मा आकर्षण का केन्द्र बनता है,किसी के विचार मन को भाने लगते हैं,तो उसका तन कैसा भी हो,सर्वाधिक सुन्दर लगने लगता है
। दोनों तरह के आकर्षणों में मूलभूत अंतर यही है कि तन का आकर्षण बहुधा मन की देहरी तक नहीं पहुंच पाता,जबकि मन और आत्मा का आकर्षण स्वत: तन को आकर्षक बना देता है।
जब किसी के विचार या उसकी विचारशैली हृदय में प्रवेश करती है,तो धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति आती है,जब उसमें कोई कमी और दोष दिखना बंद हो जाते हैं।उसकी कमियां भी खूबियां जैसी दिखने लगती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कोई संशय नहीं रह जाता और अटूट विश्वास का सृजन होता है और यह तो सर्वविदित है कि विश्वास की किसी भी रिश्ते की सबसे मजबूत नींव होती है।
रिश्ते उस समय और प्रगाढ हो जाते हैं,जब यह विश्वास गर्व का रुप धारण कर लेता है।यह विश्वास की चरमावस्था है,जब किसी को अपने साथी के साथ पर गर्व होने लगता है।विश्वास की नींव पर टिकी रिश्तों की इमारत को जब गर्व का गुम्बद मिलता है,तो वह रिश्ता एक मंदिर बन जाता है। जब किसी रिश्ते के प्रति कोई गौरवान्वित होता है,तो यह गौरव आत्मविश्वास का सम्बल भी बन जाता है।
जिस रिश्ते में भाव पक्ष जितना मजबूत होता है,भौतिक पक्ष का उतना ही अभाव होता जाता है। इन रिश्तों में न तो शरीर का कोई महत्व होaता है और न ही क्षणभंगुर शरीर की किसी तस्वीर का,क्योंकि इस तरह के रिश्ते में शरीर का हर रुप और उस शरीर की हर तस्वीर खुद-ब-खुद दुनिया की सबसे खूबसूरत तस्वीर दिखेगी।