भारतीय संस्कृति में अक्टूबर नवम्बर माह का विशेष महत्त्व है,क्योंकि यह महीना प्रकाशपर्व दीपावली लेकर आता है.दीपावली अँधेरे पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है भौतिक रूप से दीपावली हर साल सिर्फ एक साँझ की रौशनी लेकर आती है और साल भर के लिए चली जाती है,किन्तु प्रतीकात्मक रूप से उसका सन्देश चिरकालिक है.प्रतिवर्ष दीपपर्व हमें यही सन्देश देता है कि अँधेरा चाहे कितना ही सघन क्यों न हो,चाहे कितना ही व्यापक क्यों न हो और चाहे कितना ही भयावह क्यों न हो,लेकिन उसे पराजित होना ही पड़ता है.एक छोटा सा दीप अँधेरे को दूर करके प्रकाश का साम्राज्य स्थापित कर देता है.
अंधेरे का खुद का कोई अस्तित्व नहीं होता,खुद का कोई बल नहीं होता,खुद की कोई सत्ता नहीं होती.
अंधेरे का खुद का कोई अस्तित्व नहीं होता,खुद का कोई बल नहीं होता,खुद की कोई सत्ता नहीं होती.
अँधेरा प्रकाश के अभाव का नाम है और सिर्फ उसी समय तक अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है,जब तक प्रकाश की मौजूदगी न हो.अँधेरा दिखाई भले ही बहुत बड़ा देता हो,लेकिन इतना निर्बल होता है कि एक दीप जलते ही तत्काल भाग खड़ा होता है.दीपक प्रकाश का प्रतीक है और सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है। दीपक से हम ऊंचा उठने की प्रेरणा हासिल करते हैं।
शास्त्रों में लिखा गया है ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर चलने से ही जीवन में यथार्थ तत्वों की प्राप्ति सम्भव है। अंधकार को अज्ञानता, शत्रु भय, रोग और शोक का प्रतीक माना गया है। देवताओं को दीप समर्पित करते समय भी ‘त्रैलोक्य तिमिरापहम्’ कहा जाता है, अर्थात दीप के समर्पण का उद्देश्य तीनों लोकों में अंधेरे का नाश करना ही है।
आज बाहर के अँधेरे से ज्यादा भीतर का अँधेरा मनुष्य को दुखी बना रहा है.विज्ञानं ने बाहर की दुनिया में तो इतनी रौशनी फैला दी है,इतना जगमग कर दिया है कि बाहर का अँधेरा अब उतना चिंता का विषय नहीं रहा,लेकिन उसी विज्ञानं की रौशनी की चकाचौंध में भीतर की दुनिया हीन से हीनतर बनती |
जा रही है,जिसका समाधान तलाश पाना विज्ञानं के बस की बात नहीं है.भीतर के अँधेरे से मानव जीवन की लड़ाई बड़ी लम्बी है.जब भीतर का अँधेरा छंटता है.तो बाहर की लौ जगमगा उठती है ,नहीं तो बाहर का घोर प्रकाश भी भीतर के अँधेरे को दूर नहीं कर पाता | जैसे जैसे जीवन में एकाकीपन बढ़ता है मन का अँधेरा और घना होता जाता है | कभी – कभी यह त्यौहार हमारे अन्दर के खालीपन को और बढ़ा देते हैं| क्योंकि त्योहारों में जबरन हंसने के बाद एकाकीपन और महसूस होता है | कभी अवसाद के शिकार किसी व्यक्ति से मिलिए सब कुछ होते हुए भी उसके अन्दर का अँधेरा बहुत घना होता है | भीतर की दुनिया का अँधेरा सिर्फ सकारात्मक सोच और प्रेरक विचारों से ही दूर किया जा सकता है.भीतर का अँधेरा दूर करने के लिए आत्मतत्व को पहचानना जरूरी है |सकारात्मक विचारों का प्रचार प्रसार इतना हो पूरी धरा से निराशा के अँधेरे का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाये.यहाँ सकारात्मक विचारों का अर्थ केवल अच्छा सोंच कर स्वप्नों की दुनिया में रहना ही नहीं , उनको यथार्थ में तब्दील करना है | किसी के आंसूं पोछने हैं , किसी के होठों पर मुस्कराहट लाने का प्रयास करना है | किसी एकाकी व्यक्ति से आत्मीयता के साथ उसका हाल पूँछ लेना हैं | जिससे ये सकर्त्मकता हर तरह फ़ैल जाए और मन का अँधेरा कहीं टिक न पाए | जरूरी है दीप से दीप जलाने का यह सिलसिला तब तक चलता रहे,तब तक मानव मन से अँधेरे का समूल नाश नहीं हो जाता| अंत में गोपालदास नीरज जी की कुछ पंक्तियाँ …….
जा रही है,जिसका समाधान तलाश पाना विज्ञानं के बस की बात नहीं है.भीतर के अँधेरे से मानव जीवन की लड़ाई बड़ी लम्बी है.जब भीतर का अँधेरा छंटता है.तो बाहर की लौ जगमगा उठती है ,नहीं तो बाहर का घोर प्रकाश भी भीतर के अँधेरे को दूर नहीं कर पाता | जैसे जैसे जीवन में एकाकीपन बढ़ता है मन का अँधेरा और घना होता जाता है | कभी – कभी यह त्यौहार हमारे अन्दर के खालीपन को और बढ़ा देते हैं| क्योंकि त्योहारों में जबरन हंसने के बाद एकाकीपन और महसूस होता है | कभी अवसाद के शिकार किसी व्यक्ति से मिलिए सब कुछ होते हुए भी उसके अन्दर का अँधेरा बहुत घना होता है | भीतर की दुनिया का अँधेरा सिर्फ सकारात्मक सोच और प्रेरक विचारों से ही दूर किया जा सकता है.भीतर का अँधेरा दूर करने के लिए आत्मतत्व को पहचानना जरूरी है |सकारात्मक विचारों का प्रचार प्रसार इतना हो पूरी धरा से निराशा के अँधेरे का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाये.यहाँ सकारात्मक विचारों का अर्थ केवल अच्छा सोंच कर स्वप्नों की दुनिया में रहना ही नहीं , उनको यथार्थ में तब्दील करना है | किसी के आंसूं पोछने हैं , किसी के होठों पर मुस्कराहट लाने का प्रयास करना है | किसी एकाकी व्यक्ति से आत्मीयता के साथ उसका हाल पूँछ लेना हैं | जिससे ये सकर्त्मकता हर तरह फ़ैल जाए और मन का अँधेरा कहीं टिक न पाए | जरूरी है दीप से दीप जलाने का यह सिलसिला तब तक चलता रहे,तब तक मानव मन से अँधेरे का समूल नाश नहीं हो जाता| अंत में गोपालदास नीरज जी की कुछ पंक्तियाँ …….
” जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए ”
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए ”
ओमकार मणि त्रिपाठी
प्रधान सम्पादक
प्रधान सम्पादक