आँखें फाड़ – फाड़ कर देखती है
घूंघट वाली औरत
पड़ोस में आकर बसी
जींस पहनने वाली औरत को
याद आ जाते हैं
वो दो गज लम्बे दुप्पटे
जिन्हें भी तहा कर रख आई थी
माँ की संदूक में
की अब बस साड़ी ही पहननी है
यही ससुराल का ड्रेस कोड है
इसके इतर कुछ पहनने पर
लग जायेंगे
उसके संस्कार पर प्रश्न चिन्ह ?
नाप दिए जायेंगे बाप – दादा
पर वो , कैसे पहन पाती है जींस
फिर अपने ही प्रश्न को
पलट देती है , तवे पर रोटी के साथ
फुर्सत में सोंचेगी
पहले सबको खाना तो खिला दे
बड़ी हसरतों से देखती है
घूँघट वाली औरत
सुबह कपडे धोते हुए
जींस वाली औरत को
फोन पर अंग्रेजी में गपियाते हुए
याद आ जाती हैं वो किताबें
वो स्कूल का जीवन
वो अधूरी शिक्षा
जो पिता के जल्दी कन्यादान कर
गंगा नहाने की इच्छा में
गंगा नहाने की इच्छा में
आंसुओं में बह गयी
पर वो …. कैसे पढ़ पायी
फिर बहा देती है अपने ही प्रश्न को
कपडे के मैल के साथ
भीगी पलकों से
झरोखे से निहारती है
घूँघट वाली औरत
कार चला कर
बाहर जाती जींस वाली औरत को
अचानक खिड़की के जिंगले
गड़ने लगते हैं सीने में
बढ़ा देती है कदम
वो भी बाहर जाने को
की ठीक दरवाजे की चौखट के आगे
सुनाई पड़ती है
खखारते ससुर की आवाज़
भले घर की औरतें
अकेली बाहर नहीं जाती
भरती है आह
फिर याद आ जाती है
विदाई के समय माँ की शिक्षा
की उस घर से अर्थी ही जाए
पी जाती है अपनी ही चाह को
अपने आंसुओं के साथ
बड़े गुस्से से देखती है
घुंघट वाली औरत
जींस वाली औरत को
की उसका पति आजकल
घर के वरामदे में
ज्यादा मंडराया करता है
तुलना करता है उसकी जींस वाली औरत से
और बात – बात पर देता है
उसे गंवार की उपाधि
पर वो …. वो तो भाव नहीं देती उसके पतिको
जानती है वो
न उसे बाहर जाने को मिलेगा
न उस पर लगा गंवार का लेवल हटेगा
इस बार नहीं पलट पाती अपने ही प्रश्न को
न तवे पर रोटी के साथ
न कपड़ों के साथ
न आंसुओं के साथ
दिन रात मंथन करती है
घूंघट वाली औरत
जींस वाली औरत के कारण
अनायास ही उपजी समस्या का
पतिव्रता , घर के बाहर कह नहीं सकती है
पति के खिलाफ एक भी शब्द
साथ जो निभाना है जीवन भर
सुना है आजकल उसने घर – बाहर कहना शुरू कर दिया है
जींस वाली औरत के बारे में
निर्लज्ज है , बेहया ,संस्कारहीन
न जाने कैसे कपडे पहनती फिरती है
सुना है
सुन – सुन कर
आजिज़ आ चुकी जींस वाली औरत भी
पुकारने लगी है उसे
पिंजड़े की मैना
जो दूसरे पर अँगुली उठाने से पहले
काबू में न रख पायी
अपने पति को
मेरे , आप के हम सबके
मुहल्ले में है
घूँघट वाली औरत और जींस वाली औरत में तनातनी
अंगुलियाँ उठ रही हैं दोनों ओर से
इस बीच एक तीसरा पक्ष भी है
जो लगता है दोनों पर सरेआम आरोप
कुछ नहीं
“ औरत ही औरत की दुश्मन है “
स्वीकृति में हिलते सरों के बीच
कहीं कोई प्रश्न नहीं उठता
“ आखिर औरत को औरत की दुश्मन बनाया किसने “
वंदना बाजपेयी
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वंदना जी, वास्तव में औरत औरत की दुश्मन नहीं है। वास्तव ये लडाई है संस्कारों की जो दोनों तरह की औरतों को दिए गए है। सुंदर रचना।
धन्यवाद