जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ मेरी बेटी लगती है !






उषा लाल 
                            जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ 
                           मेरी बेटी लगती है !
घड़ी घड़ी जिज्ञासित हो कर
बहुत प्रश्न वह करती है 
भर कौतूहल आँखों में
हर नई वस्तु को तकती है !
बात बात पर घूम घूम फिर
वही सवाल उठाती है
उत्तर पा कर , याददाश्त को
वह दोषी ठहराती है !

जोश वही है उनका अब भी
चाहे पौरुष साथ न दे
सब कुछ करने को आतुर वह
घर में जो भी काम दिखे !
निद्रामग्न रहें जब बेसुध
शिशु समान वह दिखतीहै
वयस तिरासी बिता चुकी है
लेकिन दो ही लगती है !
बचपन में मुझको अम्माँ , इक
आटे की चिड़िया दे कर
चौके में बैठा लेती थी
खेल कूद में उलझा कर!
जी करता है मैं भी उनको
कुछ वैसे ही बहलाऊँ
छोटे छोटे बर्तन ला कर
चूल्हा – चौका करवाऊँ !
ईश्वर दया दिखाना इतनी
उन्हें सुरक्षित तुम रखना
हाथ -पाँव सब स्वस्थ रहें
बस बोझ किसी पर मत करना!
बिना दाँत का भोला मुखड़ा
कितनी प्यारी दिखती है
जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ
मुझको मेरी बेटी लगती है 



Leave a Comment