वह दैहिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ एक युवक था । उसके मित्रजन उसे इन सम्बन्धों से मिलने वाली स्वार्गिक आनन्द की अनुभूति का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान करते। उसका पुरुषसुलभ अहम् जहाँ उसे धिक्कारता, वहीं उसके संस्कार उसे इस ग़लत काम को करने से रोकते थे । इस पर हमेशा उसके अहम् और संस्कारों में युद्ध होता था । एक बार अपने अहम् से प्रेरित हो वह एक कोठे पर जा पहुँचा। वहाँ पर वह अपनी मर्दांनगी सिद्ध करने ही वाला था कि, उसके संस्कारों ने उसे रोक लिया। चँूकि वह संस्कारी था, सो वह वापस आने के लिये उद्यत हो गया,
इस पर उस कोठेवाली ने बुरा सा मँुह बनाया, और लगभग थूकने के भाव से बोली-साला हिजड़ा।
बाहर निकलने पर उसके मित्रों ने उससे उसका अनुभव पूछा, इस पर उसने सब कुछ सच-सच बता दिया। इस पर उसके मित्रों का भी वही कथन था-साला हिजड़ा।
…इतना होने पर भी वह आज संतुष्ट है, और सोचता है कि, वह हिजड़ा ही सही, है तो संस्कारी।
आलोक कुमार सातपुते