वो माँ भी है और बेटी भी |इस अनमोल रिश्ते में अनमोल प्रेम तो है ही पर जहाँ एक और उसके ह्रदय में अपनी माँ के प्रति कृतज्ञता का भाव है वहीँ अपने बच्चों के प्रति कर्तव्य का बोध | कैसे संभाल पाती है एक स्त्री स्नेह के इन दो सागरों को एक साथ | तभी तो छलक जाती हैं बार बार आँखें , और लोग कहतें हैं की औरतें रोती बहुत हैं | आज मदर्स डे के अवसर पर हम लाये हैं एक साथ सात स्त्री स्वर , देखिये कहीं आप की आँखें भी न छलक पड़ें | इसमें आप पढेंगें वंदना गुप्ता , संगीता सिंह ” भावना “, डॉ . किरण मिश्रा , आभा खरे , सरस दरबारी , डॉ . रमा द्विवेदी और अलका रानी की कवितायें
कब आओगी तुम
माँ
कहाँ हो तुम ?
जाने से पहले
यूँ भी न सोचा
तुम्हारे बाद
मेरा क्या होगा?
कौन मुझे चाहेगा?
कौन मुझे दुलारेगा ?
मेरे होठों की हँसी के लिए
कौन तड़प -तड़प जाएगा
मेरी इक आह पर
कौन सिसक- सिसक जाएगा
कहाँ हो तुम ?
जाने से पहले
यूँ भी न सोचा
तुम्हारे बाद
मेरा क्या होगा?
कौन मुझे चाहेगा?
कौन मुझे दुलारेगा ?
मेरे होठों की हँसी के लिए
कौन तड़प -तड़प जाएगा
मेरी इक आह पर
कौन सिसक- सिसक जाएगा
पिता ने तो अपनी
नई दुनिया बसा ली है
अब तो नई माँ की हर बात
उन्होंने मान ली है
तुम ही बताओ
अब कहाँ जाऊँ मैं
किसे माँ कहकर पुकारूँ मैं
यहाँ पग-पग पर
ठोकर और गाली है
तुम्हारी लाडली के लिए अब
कोई जगह न खाली है
नई दुनिया बसा ली है
अब तो नई माँ की हर बात
उन्होंने मान ली है
तुम ही बताओ
अब कहाँ जाऊँ मैं
किसे माँ कहकर पुकारूँ मैं
यहाँ पग-पग पर
ठोकर और गाली है
तुम्हारी लाडली के लिए अब
कोई जगह न खाली है
माँ , कहाँ हो तुम ?
क्या मेरे दर्द को नही जानती
क्या अब तुम्हें दर्द नही होता
अपनी बेटी की पीड़ा से
क्या अब तुम्हारा
दिल नही रोता
क्यूँ चली गई जहान छोड़कर
मुझे भरी दुनिया में
अकेला छोड़कर
क्या मेरे दर्द को नही जानती
क्या अब तुम्हें दर्द नही होता
अपनी बेटी की पीड़ा से
क्या अब तुम्हारा
दिल नही रोता
क्यूँ चली गई जहान छोड़कर
मुझे भरी दुनिया में
अकेला छोड़कर
किससे अपने सुख दुःख बाटूँ
कैसे मन के गुबार निकालूं?
कैसे मन के गुबार निकालूं?
कौन है जो मेरा है ?
ये कैसा रैन-बसेरा है ?
जहाँ कोई नही मेरा है
अब तो घुट-घुट कर जीती हूँ
और खून के आंसू पीती हूँ
जिस लाडली के कदम
जमीं पर न पड़े कभी
वो उसी जमीं पर सोती है
और तुम्हारी बाट जोहती है
ये कैसा रैन-बसेरा है ?
जहाँ कोई नही मेरा है
अब तो घुट-घुट कर जीती हूँ
और खून के आंसू पीती हूँ
जिस लाडली के कदम
जमीं पर न पड़े कभी
वो उसी जमीं पर सोती है
और तुम्हारी बाट जोहती है
इक बार तो आओगी तुम
मुझे अपने गले लगाओगी तुम
मुझे हर दुःख की छाया से
कभी तो मुक्त कराओगी तुम
बोलो न माँ
कब आओगी तुम ?
कब आओगी तुम?
मुझे अपने गले लगाओगी तुम
मुझे हर दुःख की छाया से
कभी तो मुक्त कराओगी तुम
बोलो न माँ
कब आओगी तुम ?
कब आओगी तुम?
वंदना गुप्ता
अनुपम कृति है …..’माँ ‘
मैं भी लिखना चाहती हूँ
माँ पर कविता ,
माँ यशोदा की तरह
प्यारी न्यारि ……
लिखती हूँ जब कागज
के पन्नों पर ,
एक स्नेहिल छवि उभरती है
शायद…….संसार की सबसे
अनुपम कृति है …..’माँ ‘
जब भी सोचती हूँ माँ को ,
हर बार या यूं कहें बार-बार
माँ के गोद की सुकून भरी रात
और साथ ही ,,,,,,
नरमी और ममता का आंचल
और भी बहुत कुछ
प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार
ऐसा होता है माँ का प्यार …….
हर शब्द से छलक़ता ,,,,,
प्यार ही प्यार …
सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह
और समर्पण ,
ही पहचान है ,उसकी अपनी
तभी तो इस जगत में,
”माँ” महान है …….!!!
माँ पर कविता ,
माँ यशोदा की तरह
प्यारी न्यारि ……
लिखती हूँ जब कागज
के पन्नों पर ,
एक स्नेहिल छवि उभरती है
शायद…….संसार की सबसे
अनुपम कृति है …..’माँ ‘
जब भी सोचती हूँ माँ को ,
हर बार या यूं कहें बार-बार
माँ के गोद की सुकून भरी रात
और साथ ही ,,,,,,
नरमी और ममता का आंचल
और भी बहुत कुछ
प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार
ऐसा होता है माँ का प्यार …….
हर शब्द से छलक़ता ,,,,,
प्यार ही प्यार …
सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह
और समर्पण ,
ही पहचान है ,उसकी अपनी
तभी तो इस जगत में,
”माँ” महान है …….!!!
संगीता सिंह ”भावना”
माँ का सबक
जब उड़ने लगती है सड़क पर धूल
और नीद के आगोश में होता है फुटपाथ
तब बीते पलों के साथ
मैं आ बैठती हूँ बालकनी में ,
अपने बीत चुके वैभव को ,अभाव में तौलती
अपनी आँखों की नमी को बढाती
पीड़ाओं को गले लगाती ।
तभी न जाने कहां से
आ कर माँ पीड़ाओं को परे हटा
हँस कर ,
मेरी पनीली आँखों को मोड़ देती है फुटपाथ की तरफ
और बिन कहे सिखा देती है
अभाव में भाव का फ़लसफा ।
मेरे होठों पर ,
सजा के संतुष्टि की मुस्कान
मुझे ले कर चल पडती है
पीड़ाओं के जंगल में
जहाँ बिखरी पडी हैं तमाम पीड़ायें
मजबूर स्त्रियां
मजदूर बचपन
मरता किसान
इनकी पीड़ा दिखा सहज ही बता जाती हैं
मेरे जीवन के मकसद को
अब मैं अपनी पीड़ा को बना के जुगनू
खोज खोज के उन सबकी पीड़ाओं से
बदल रही हूँ
माँ की दी हुई मुस्कान
और सार्थक कर रही हूँ
माँ के दिए हुए इस जीवन को।
और नीद के आगोश में होता है फुटपाथ
तब बीते पलों के साथ
मैं आ बैठती हूँ बालकनी में ,
अपने बीत चुके वैभव को ,अभाव में तौलती
अपनी आँखों की नमी को बढाती
पीड़ाओं को गले लगाती ।
तभी न जाने कहां से
आ कर माँ पीड़ाओं को परे हटा
हँस कर ,
मेरी पनीली आँखों को मोड़ देती है फुटपाथ की तरफ
और बिन कहे सिखा देती है
अभाव में भाव का फ़लसफा ।
मेरे होठों पर ,
सजा के संतुष्टि की मुस्कान
मुझे ले कर चल पडती है
पीड़ाओं के जंगल में
जहाँ बिखरी पडी हैं तमाम पीड़ायें
मजबूर स्त्रियां
मजदूर बचपन
मरता किसान
इनकी पीड़ा दिखा सहज ही बता जाती हैं
मेरे जीवन के मकसद को
अब मैं अपनी पीड़ा को बना के जुगनू
खोज खोज के उन सबकी पीड़ाओं से
बदल रही हूँ
माँ की दी हुई मुस्कान
और सार्थक कर रही हूँ
माँ के दिए हुए इस जीवन को।
डॉ किरण मिश्रा
माँ को समर्पित
बढ़ती उम्र के साथ अब मै
माँ तुम जैसी लगने लगी हूँ..
इतराती हूँ और ख़ुद को
तुम जैसी ख़ूबसूरत कहने लगी हूँ..
तेरी बिंदिया और पायल पहन
मैं और भी सजने संवरने लगी हूँ…
चुराकर तेरी मुस्कान की खुश्बू
हरसिंगार सी महकने लगी हूँ ..
मेरे हाथों में हो तेरे हांथों का हुनर
ईश्वर से ये दुआ मांगने लगी हूँ…
उतरा है यूँ तेरा नूर मुझपर
तेरी तरह बच्चों के नखरे सहने लगी हूँ…
दूर होकर भी तू होती है पास मेरे
जबसे सितारों से दोस्ती करने लगी हूँ…!!!
बढ़ती उम्र के साथ अब मै
माँ तुम जैसी लगने लगी हूँ..
इतराती हूँ और ख़ुद को
तुम जैसी ख़ूबसूरत कहने लगी हूँ..
तेरी बिंदिया और पायल पहन
मैं और भी सजने संवरने लगी हूँ…
चुराकर तेरी मुस्कान की खुश्बू
हरसिंगार सी महकने लगी हूँ ..
मेरे हाथों में हो तेरे हांथों का हुनर
ईश्वर से ये दुआ मांगने लगी हूँ…
उतरा है यूँ तेरा नूर मुझपर
तेरी तरह बच्चों के नखरे सहने लगी हूँ…
दूर होकर भी तू होती है पास मेरे
जबसे सितारों से दोस्ती करने लगी हूँ…!!!
आभा खरे
तूने मुझे शर्मसार किया
‘पुत्रवती भव’
रोम रोम हर्षित हुआ था –
जब घर के बड़ों ने –
मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था –
कोख में आते ही –
तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर!
बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने …
तू कैसा होगा रे-
तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम!
बस आजा तू यही मनाती दिन रात ……
गोद में लेते ही तुझे-
रोम रोम पुलक उठा था –
लगा ईश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !!
————-
रोम रोम हर्षित हुआ था –
जब घर के बड़ों ने –
मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था –
कोख में आते ही –
तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर!
बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने …
तू कैसा होगा रे-
तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम!
बस आजा तू यही मनाती दिन रात ……
गोद में लेते ही तुझे-
रोम रोम पुलक उठा था –
लगा ईश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !!
————-
आज…..
तूने …मेरी झोली भर दी !
शर्म से…
उन गालियों से-
जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं …
उस धिक्कार से –
जो हर आत्मा से निकल रही है …
उस व्यथा से –
जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है …
उन बददुआओंसे –
जो मेरी कोख पर बरस रही हैं ….!
तूने …मेरी झोली भर दी !
शर्म से…
उन गालियों से-
जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं …
उस धिक्कार से –
जो हर आत्मा से निकल रही है …
उस व्यथा से –
जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है …
उन बददुआओंसे –
जो मेरी कोख पर बरस रही हैं ….!
मैंने तो इक इंसान जना था –
फिर – यह वहशी !
कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू …
फिर – यह वहशी !
कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू …
आज मेरी झोली में
नफरत है –
घृणा है –
गालियाँ हैं –
तिरस्कार है – जो लोगों से मिला –
ग्लानि है –
रोष है –
तड़प है-
पछतावा है-
जो तूने दिया !!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे –
वही बददुआ बन गया !
नफरत है –
घृणा है –
गालियाँ हैं –
तिरस्कार है – जो लोगों से मिला –
ग्लानि है –
रोष है –
तड़प है-
पछतावा है-
जो तूने दिया !!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे –
वही बददुआ बन गया !
तूने सिर्फ मुझे नहीं –
‘ माँ’ – शब्द को शर्मसार किया …
‘ माँ’ – शब्द को शर्मसार किया …
सरस दरबारी
माँ के आंचल को मैं तरसती रही…
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं,
फूल से पंखुरी जैसे झरती रही ।
फूल से पंखुरी जैसे झरती रही ।
जन्म लेते ही माँ ने दुलारा बहुत,
अपनी ममता निछावर करती रही…
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
वक्त के हाथों मैं बडी हो गई,
माँ की चिन्ता की घडियां बढती रही…..
माँ की चिन्ता की घडियां बढती रही…..
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
ब्याह-कर मैं पति के घर आ गई,
माँ की ममता सिसकियां भरती रही…
माँ की ममता सिसकियां भरती रही…
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
छोड कर माँ को दिल के दो टुकडे हुए,
फिर भी जीवन का दस्तूर करती रही..
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
वक्त जाता रहा, मैं तडपती रही,
माँ के आंचल को मैं तरसती रही…
माँ के आंचल को मैं तरसती रही…
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
एक दिन मैं भी बेटी की माँ बन गई,
मेरी ममता से वह भी संवरती रही…
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
देखते-देखते वो बडी हो गई,
ब्याह-कर दूर देश में बसती रही….
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
ब्याह-कर दूर देश में बसती रही….
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
टूटकर फिर से दिल के हैं टुकडे हुए,
मेरी ममता भी पल-पल तरसती रही..
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
मेरी ममता भी पल-पल तरसती रही..
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
वक्त ढलता रहा, सपने मिटते रहे,
इक दिन माँ न रही,मैं सिसकती रही…..
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
इक दिन माँ न रही,मैं सिसकती रही…..
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
सब कुछ मिला पर माँ न मिली,
माँ की छबि ले मैं दिल में सिहरती रही…
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
फूल मुरझा के इक दिन ज़मीं पे गिरा,
मेरी यादों की लड़ियाँ दफनतीं रहीं….
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रही।
मेरी यादों की लड़ियाँ दफनतीं रहीं….
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रही।
जीवन का नियम यूं ही चलता रहे,
ममता खोती रही और मिलती रही…
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
ममता खोती रही और मिलती रही…
मेरी सांसों की घडियां बिखरती रहीं।
डा. रमा द्विवेदी, हैदराबाद
स्मृति मंजूषा
स्मृति मंजूषा में सहेजी धरोहर
निकाली बाहर परत दर परत खुलती गयी |
पल-पल याद आए बिताए संग तेरे,
आकाश सा प्रसरित आँचल तेरा |
तेरे अंक की शीतल छाया में ,
बुनती ताने-बाने ममत्व के|
ममता का वह सागर है माँ ,
जिसकी चटुल लहरें लेती हिलोरें |
वात्सल्य की वह सरित प्रवाह है माँ,
जिसमें समाहित मिलते रत्न अनेक|
बगिया की वह सुगन्धित पुष्प है माँ ,
जिसकी सुरभि से होता सुरभित चमन |है
निशा की वह शीतल चाँदनी है माँ ,
जो दुखती काया को शीतल कर देती|
दर्पण की वह अनुकृति है माँ ,
जिसमें त्याग,समर्पण,ममता दृष्टिगत होती|
तीर्थों की वह पवित्र धाम है माँ ,
जिसकी गोद में चारों धाम विराजित हैं|
पूजा की वह सुसज्जित थाली है,
जिसमें अर्चन नैवेद्य सामग्री निहित है |
चूडियाँ उसकी वह वाद्य यंत्र है ,
जिसकी थाप पर नयन लेते मीठी नींद |
अमृत का वह प्याला है माँ ,
जिसे ओष्ठों से लगाते ही कड़वाहट दूर हो जाती |
“माँ “शब्द इतना प्यारा है ,
जिसके चरणों में स्वर्ग सारा है |
माँ अनजानी सी खुली किताब के पन्नों की वह इबारत है,
जो शब्दों में , वर्णों में भी न समाती माँ……..
शब्दातीत है ……वर्णातीत है……है ……और है वर्णनातीत माँ !!!!!!!!!
निकाली बाहर परत दर परत खुलती गयी |
पल-पल याद आए बिताए संग तेरे,
आकाश सा प्रसरित आँचल तेरा |
तेरे अंक की शीतल छाया में ,
बुनती ताने-बाने ममत्व के|
ममता का वह सागर है माँ ,
जिसकी चटुल लहरें लेती हिलोरें |
वात्सल्य की वह सरित प्रवाह है माँ,
जिसमें समाहित मिलते रत्न अनेक|
बगिया की वह सुगन्धित पुष्प है माँ ,
जिसकी सुरभि से होता सुरभित चमन |है
निशा की वह शीतल चाँदनी है माँ ,
जो दुखती काया को शीतल कर देती|
दर्पण की वह अनुकृति है माँ ,
जिसमें त्याग,समर्पण,ममता दृष्टिगत होती|
तीर्थों की वह पवित्र धाम है माँ ,
जिसकी गोद में चारों धाम विराजित हैं|
पूजा की वह सुसज्जित थाली है,
जिसमें अर्चन नैवेद्य सामग्री निहित है |
चूडियाँ उसकी वह वाद्य यंत्र है ,
जिसकी थाप पर नयन लेते मीठी नींद |
अमृत का वह प्याला है माँ ,
जिसे ओष्ठों से लगाते ही कड़वाहट दूर हो जाती |
“माँ “शब्द इतना प्यारा है ,
जिसके चरणों में स्वर्ग सारा है |
माँ अनजानी सी खुली किताब के पन्नों की वह इबारत है,
जो शब्दों में , वर्णों में भी न समाती माँ……..
शब्दातीत है ……वर्णातीत है……है ……और है वर्णनातीत माँ !!!!!!!!!
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बस अब अंत में यही कहना चाहूंगी कि इस धरती पर माँ किसी चमत्कार से कम नहीं ………
मातृत्व धर्म का पालन करने वाली हर माँ को मेरा नमन!
मातृ दिवस पर हर माँ को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !!!!!
मातृत्व धर्म का पालन करने वाली हर माँ को मेरा नमन!
मातृ दिवस पर हर माँ को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !!!!!
अलका रानी