हजारों किलोमीटर की यात्रा की शुरुआत बस एक कदम से होती है
मुहल्ले के अंकल जी वॉकर ले कर ८० की उम्र दोबारा चलना सीख रहे थे |
अभी कुछ दिन पहले गिरने से उनके पैर की हड्डी टूट गयी थी | प्लास्टर खुलने के बाद भी मांस पेशियाँ अकड गयी थी , जिन्होंने
चलने तो क्या खड़े होने में मदद देने से इनकार कर दिया था | इक इंसान जो जिंदगी भर
चलता हैं , भागता है दौड़ता है | किसी दुर्घटना के बाद डेढ़ – दो महीने में ही चलना
भूल जाता है | एक – एक कदम अजनबी सा लगता है | हिम्मत जबाब दे जाती है | लगता है
नहीं चला जाएगा | फिर एक अंत : प्रेरणा जागती है ,अरे ! , चलेंगे नहीं तो जिंदगी
कैसे चलेगी |तब जरूरत होती है अपनों के
प्यार की , वाकर के सहारे की और द्रण इच्छा शक्ति की | और शुरू हो जाती है कोशिश फिर से सीखने की |चल पड़ते
हैं कदम |
अभी कुछ दिन पहले गिरने से उनके पैर की हड्डी टूट गयी थी | प्लास्टर खुलने के बाद भी मांस पेशियाँ अकड गयी थी , जिन्होंने
चलने तो क्या खड़े होने में मदद देने से इनकार कर दिया था | इक इंसान जो जिंदगी भर
चलता हैं , भागता है दौड़ता है | किसी दुर्घटना के बाद डेढ़ – दो महीने में ही चलना
भूल जाता है | एक – एक कदम अजनबी सा लगता है | हिम्मत जबाब दे जाती है | लगता है
नहीं चला जाएगा | फिर एक अंत : प्रेरणा जागती है ,अरे ! , चलेंगे नहीं तो जिंदगी
कैसे चलेगी |तब जरूरत होती है अपनों के
प्यार की , वाकर के सहारे की और द्रण इच्छा शक्ति की | और शुरू हो जाती है कोशिश फिर से सीखने की |चल पड़ते
हैं कदम |
क्या हम सब जिंदगी के अनेकों मोड़ों पर किसी ऐसी दुर्घटनाओं के शिकार नहीं
होते जहाँ लगता है जिंदगी रुक सी गयी है | मांस पेशियाँ अकड गयी हैं | नहीं अब
बिलकुल नहीं चला जाएगा | जब कोई अपना बिछड़ जाता है , जब कोई काम बिगड़ जाता है या
जब कोई राह भटक जाता है तो अकसर हिम्मत टूट जाती है | अगर चलने की कोशिश भी करों तो आंसुओं से पथ धुंधला हो
जाता है | रास्ता दिखता ही नहीं | तब अंदर से एक आवाज़ आती है , चलों , चलोगे नहीं
तो जिंदगी चलेगी कैसे ?और डगमगाते कदम निकला पड़ते हैं अनजानी राह पर |
अक्सर ऐसे समय में अपनों का साथ नहीं मिलता ,
वाकर का सहारा भी नहीं | क्योंकि बहुधा लोग तन की तकलीफों में तो साथ खड़े हो जाते
हैं पर मन की तकलीफों में नहीं | वो दिखाई जो नहीं देती | ऐसे समय में बहुत जरूरी
है हम अपने दोनों हाथों से कानों को बंद कर लें | जिससे बाहर की कोई आवाज़ न सुनाई न दे | वो आवाजें जो रोकती हैं , वो आवाजे जो हिम्मत तोडती हैं , वो आवाजे
जो घसीट – घसीट कर अतीत में ले जाना चाहती हैं | तब सुनाई देती है वो आवाज़ जो अंदर
से आ रही हैं |जोर – जोर से बहुत जोर से , हर चीज से टकरा – टकरा कर प्रतिध्वनि
उत्पन्न करती हैं ,अरे ! चलेंगे नहीं तो
जिंदगी कैसे चलेगी …….. और जिंदगी चल पड़ती है |
वाकर का सहारा भी नहीं | क्योंकि बहुधा लोग तन की तकलीफों में तो साथ खड़े हो जाते
हैं पर मन की तकलीफों में नहीं | वो दिखाई जो नहीं देती | ऐसे समय में बहुत जरूरी
है हम अपने दोनों हाथों से कानों को बंद कर लें | जिससे बाहर की कोई आवाज़ न सुनाई न दे | वो आवाजें जो रोकती हैं , वो आवाजे जो हिम्मत तोडती हैं , वो आवाजे
जो घसीट – घसीट कर अतीत में ले जाना चाहती हैं | तब सुनाई देती है वो आवाज़ जो अंदर
से आ रही हैं |जोर – जोर से बहुत जोर से , हर चीज से टकरा – टकरा कर प्रतिध्वनि
उत्पन्न करती हैं ,अरे ! चलेंगे नहीं तो
जिंदगी कैसे चलेगी …….. और जिंदगी चल पड़ती है |
वंदना बाजपेयी
सही कहा वंदना जी। जिंदगी को चलाने के लिए चलना या चलने की शुरवात करना जरुरी हैं।
धन्यवाद ज्योति जी