कितनी कवितायें भाप बन कर उड़ गयी थी
उबलती चाय के साथ
कितनी मिल गयी आपस में
मसालदान में
नमक मिर्च के साथ
कितनी फटकार कर सुखा दी गयी
गीले कपड़ों के साथ धूप में
तुम पढ़ते हो
सिर्फ शब्दों की भाषा
पर मैं रच रही थी कवितायें
सब्जी छुकते हुए
पालना झुलाते हुए
नींद में बडबडाते हुए
कभी सुनी , कभी पढ़ी नहीं गयी
कितनी रचनाएँ
जो रच रहीहै
हर स्त्री
हर रोज
सृजन और स्त्री का गहरा नाता है | पहला रचियता वो ईश्वर है और दूसरी स्त्री स्वयं | ये जीवन ईश्वर की कल्पना तो है पर मूर्त रूप में स्त्री की कोख में आकार ले पाया है | सृजन स्त्री का गुण है , धर्म है | वह हमेशा से कुछ रचती है | कभी उन्हीं मसालों से रसोई में कुछ नया बना देती है की परिवार में सब अंगुलियाँ चाटते रह जाएँ | कभी फंदे – फंदे जोड़ कर रच देती है स्वेटर | जिसके स्नेह की गर्माहट सर्द हवाओ से टकरा जाती है | कभी पुराने तौलिया से रच देती है नयी दरी | जब वो इतना सब कुछ रच सकती है तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? कभी – कभी तो मुझे लगता है की क्या हर स्त्री के अंदर कविता बहती है , किसी नदी की तरह या कविता स्वयं ही स्त्री है ? फिर भी भी लम्बे समय तक स्त्री रचनकार अँगुलियों पर गिने जाते रहे | क्या कारण हो सकता है इसका … संयुक्त परिवारों में काम की अधिकता , स्त्री की अशिक्षा या अपनी खुद की ख़ुशी के लिए कुछ भी करने में अपराध बोध | या शायद तीनों |
आज स्त्री ,स्त्री की परिभाषा से आज़ाद हो रही है | सदियों से परम्परा ने स्त्री को यही सिखाया है की उसे केवल त्याग करना है | परन्तु वो इस अपराध बोध से मुक्त हो रही है की वो थोडा सा अपने लिए भी जी ले | उसने अपने पंखों को खोलना शुरू किया है | यकीनन इसमें स्त्री शिक्षा का भी योगदान है | जिसने औरतों में यह आत्मविश्वास भरा है की आसमान केवल पुरुषों का नहीं है | इसके विस्तृत नीले विस्तार में एक हरा कोना उनका भी है | ये भी सच है की आज तमाम मशीनी उपकरणों के इजाद के बाद घरेलु कामों में भी आसानी हुई है | जिसके कारण महिलाओं को रसोई से थोड़ी सी आज़ादी मिली है | जिसके कारण वो अपने समय का अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल करने में थोडा सा स्वतंत्र हुई है | साहित्य से इतर यह हर क्षेत्र में दिख रहा है | फिर से वही प्रश्न … तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? निश्चित तौर पर इसका उत्तर हाँ है | पर उसके साथ ही एक नया प्रश्न खड़ा हो गया …कहाँ और किस तरह ? और इसका उत्तर ले कर आये मार्क जुकरबर्ग फेसबुक के रूप में | फेसबुक ने एक मच प्रदान किया अपनी अभिव्यक्ति का |
यूँ तो पुरुष हो या महिला फेसबुक सबको समान रूप से प्लेटफ़ॉर्म उपलब्द्ध करा रहा है | परन्तु इसका ज्यादा लाभ महिलाओं को मिल रहा है | कारण यह भी है की ज्यादातर महिलाओ को अपनी लेखन प्रतिभा का पता नहीं होता | साहित्य से इतर शिक्षा प्राप्त महिलाएं कहीं न कहीं इस भावना का शिकार रहती थी की उन्होंने हिंदी से तो शिक्षा प्राप्त की नहीं है, तो क्या वो सही – सही लिख सकती हैं | और अगर लिख भी देती हैं तो क्या तमाम साहित्यिक पत्रिकाएँ उनकी रचनाएँ स्वीकार करेंगी या नहीं | फेसबुक पर पाठकों की तुरंत प्रतिक्रिया से उन्हें पता चलता है की उनकी रचना छपने योग्य है या उन्हें उसकी गुणवत्ता में क्या -क्या सुधार करने है | कुछ महिलाएं जिन्हें अपनी प्रतिभा का पता होता भी है प्रतिभा बच्चो को पालने व् बड़ा करने में खो जाती है |वो भी जब पुन : अपने को समेटते हुए लिखना शुरू करती हैं तो पता चलता कि की साहित्य के आकाश में मठ होते हैं जो तय करते हैं कौन उठेगा ,कौन गिरेगा। किसको स्थापित किया जायेगा किसको विस्थापित।इतनी दांव – पेंच हर महिला के बस की बात नहीं | क्योंकि अक्सर साहित्य के क्षेत्र में जूझती महिलाओ को ये सुनने को अवश्य मिलता है की ,” ये भी कोई काम है बस कागज़ रंगती रहो | मन निराश होता है फिर भी कम से कम हर रचनाकार यह तो चाहता है कि उसकी रचना पाठकों तक पहुँचे। रचना के लिए पाठक उतने ही जरूरी हैं जितना जीने के लिए ऑक्सीज़न। इन मठाधीशों के चलते कितनी रचनायें घुट -घुट कर दम तोड़ देती थी और साथ में दम तोड़ देता था रचनाकार का स्वाभिमान ,उसका आत्मविश्वास। यह एक ऐसी हत्या है जो दिखती नहीं है |कम से कम फेस बुक नें रचनाकारों को पाठक उपलब्ध करा कर इस हत्या को रोका है।
हालंकि महिलाओ के लिए यहाँ भी रास्ते आसान नहीं है | उन्हें तमाम सारे गुड मॉर्निंग , श्लील , अश्लील मेसेजेस का सामना करना पड़ता है | अभी मेरी सहेली ने बताया की उसने अपनी प्रोफाइल पिक बदली तो किसी ने कमेंट किया ” मस्त आइटम ” | ये कमेन्ट करने वाले की बेहद छोटी सोंच थी | ये छोटी सोंचे महिलाओं को कितना आहत करती हैं इसे सोंचने की फुर्सत किसके पास है | वही किसी महिला के फेसबुक पर आते ही ऐसे लोग कुकरमुत्ते की तरह उग आते हैं जो उसके लेखन को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए उसे रातों रात स्टार बनाने में मदद देने को तैयार रहते हैं | याहन इतना ही कहने की जरूरत है की छठी इन्द्रिय हर महिला के पास है और उसे लोगों के इरादों को भांपने और परखने में जरा भी देर नहीं लगती | क्योंकि देखा जाए तो ऐसे लोग कहाँ नहीं हैं | ऐसे लोगों की भीड़ में ही महिलाओं ने चलना सीख लिया है | अब वो रुकने वाली नहीं हैं | कम से कम फेसबुक ऐसे अवांछनीय तत्वों को अनफ्रेंड या ब्लाक करने की सुविधा तो देता है | हम सब नें कक्षा ५ से ८ के बीच में एक निबंध जरूर लिखा होगा “विज्ञानं वरदान या अभिशाप “इसमें हम विज्ञानं के अच्छे बुरे पहलुओं को लिखने के बाद एक निष्कर्ष निकालते थे …… कि यह हमारे ऊपर है की हम विज्ञानं का किस प्रकार प्रयोग करते हैं। हम चाहे तो मुट्ठी भर यूरेनियम से हज़ारों मेगावॉट की बिजली बना कर कोई घरों में उजाला कर सकते हैं या परमाणु बम बना कर पूरी की पूरी सभ्यता समाप्त कर सकते हैं।कुछ -कुछ यही बात हमारी फेस बुक पर भी लागू होती है , हम चाहे तो इसे मात्र फालतू मैसज करने , श्लील – अश्लील फोटो अपलोड करने या महज चैटिंग करके अपना और दूसरों का समय बर्बाद करने का अड्डा बना सकते हैं या फिर कविता कहानी और लेख के माध्यम से अपने विचारों के विनिमय का केंद्र बना सकते हैं।
फेसबुक पर बड़ी संख्या में लेखको के आने पर एक नया शब्द इजाद हुआ ” फेसबूकिया साहित्यकार ” | सुनने में ये शब्द कितना भी प्यारा क्यों न लगता है पर इसका इस्तेमाल अपमान या तिरिस्कार के रूपमें होता है | सीधे – सीधे आप इसे नए ज़माने की नयी गाली कह सकते हैं | क्योंकि कहने वाले तो यह तक कहते हैं की फेसबुक पर लिख कर कोई साहित्यकार नहीं बन सकता | सबसे पहले तो मैं इस वक्तव्य का खंडन करना चाहूंगी “कि फेस बुक पर लिख कर कोई साहित्यकार नहीं बन सकता। “जरा सोचिये कबीर दास जी नें तो कागज़ पर भी नहीं लिखा था ………… “मसि कागद छुओ नहीं ‘, उनके शिष्यों नें उनके काम का संकलन किया था। तब उनका काम हमारे सामने आया अन्यथा हम कबीर दास जी के श्रेष्ठ साहित्य से वंचित ही रहते। प्रतिभा का सामने आना जरूरी है। आज कौन सा सहित्यकार होगा जिसने कबीर को न पढ़ा हो ? उनके ज्ञान के आगे बड़े – बड़े ज्ञानी नतमस्तक हैं |यही काम आज के युग में फेस बुक कर रहा है वो नव -रचनाकारों को एक मंच उपलब्ध करा रहा है। नव प्रतिभाओं को पहचाना जा रहा है , और उन्हें अपना आकाश मिल रहा है।
हालांकि ये अलग बात है की इसको देख कर कुछ लोग डर गए हैं | उन्हें लगता है जो पाठक वर्ग हमने इतने जूते – चप्पल घिसने के बाद तैयार किया था | वो इन्हें यूँ ही मिला जा रहा है | मैंने खासतौर से जूते चप्पल शब्द का इस्तेमाल किया है , क्योंकि सब जानते हैं की दो – चार प्रतिष्ठित पत्रिकाओ में छपने के लिए कितने चक्कर काटने होते थे या या कितने साहित्यिक कार्यक्रमों में अपनी शक्ल दिखानी होती थी | तभी तो साहित्य केवल कुछ बड़े शहरों में सिमट कर रह गया था | जैसे छोटे शहरों में कोई लिखता ही नहीं | और अपने बचपन के कारण जो छोटे शहरों के नाम की मलाई खा भी रहे थे वह भी वास्तव में युवावस्था के बाद से बड़े शहरों में ही रह रहे थे | कुछ अपवाद हो सकते हैं | कुछ वरिष्ठ लेखिकाओं द्वारा ये सवाल भी बार – बार उठाया जा रहा है कि लेखन के क्षेत्र में महिलाओं की भीड़ आ रही है | जो पुरुस्कारों जलसों में उलझ कर रह गयी हैं | गंभीर लेखन का आभाव है | इसलिए ये उम्मीद कम है की भविष्य में कुछ ऐसे नाम उभरेंगे जो स्त्री विमर्श के ध्वजा वाहक होंगे | जहाँ तक मुझे समझ में आता है तो यह सच है की सोशल मीडिया के उदय के बाद बहुत से लोगों को फेसबुक ट्विटर , व्हाट्स एप के माध्यम से अपने विचारों को अभिवयक्त करने का अवसर मिला है और वो कर भी रहे हैं | तो इसमे गलत क्या है ? लेखन में रत महिलाओं को भीड़ मान लेना कहीं न कहीं उचित प्रतीत नहीं होता | अगर इसे महिलाओं की भीड़ मान भी लिया जाए तो भी मुझे लगता है की लेखन ही क्यों महिला शिक्षा के साथ – साथ हर क्षेत्र महिलाओं की संख्या बढ़ी है | ये निराशा का नहीं उत्साह का विषय है | विशेष तौर पर लेखन को ही लें तो अगर इतने सारे स्वर एक सुर में बोलेंगे तो हम समाज के बदलने की आशा कर सकते हैं | निर्विवाद सत्य है की समूह में शक्ति होती है | स्त्री होने के नाते हमारा उद्देश्य तो इस सामाज को बदलने का ही है |सुखद है की भिन्न विषयों पर स्त्रियों के विचार खुल कर सामने आ रहे हैं | आने भी चाहिए |आज शहर की स्त्री के अपने अलग संघर्ष हैं जो उसकी दादी के संघर्षों से अलग हैं | वो जिन समस्याओं से जूझ रही है उन्हें स्वर देना चाहती है , उन्हें ही पढना चाहती है |उनका हल ढूंढना चाहती है | दादी का संघर्ष घर के अंदर था , पोती का घर के बाहर | ये सच है की अगर दादी ने घर के अंदर संघर्ष न किया होता तो पोती को घर के घर के बाहर संघर्ष करने का अवसर न मिलता | पोती का संघर्ष दादी के संघर्ष का विस्तार है प्रतिद्वंदी नहीं | जहाँ पोती के ह्रदय में दादी के संघर्षों के लिए अथाह सम्मान होना चाहिए | वहीं दादी को संघर्ष करती पोती की आगे बढ़कर पीठ थपथपानी चाहिए | घर हो , साहित्य हो या कोई अन्य क्षेत्र पुरानी पीढ़ी को नयी पीढ़ी की परिस्तिथियों , उनकी पीड़ा व् उनके संघर्ष को समझ कर उनकी हौसलाअफजाई करना नयी पीढ़ी के मन में पुरानी पीढ़ी के सम्मान को कई गुना बढा देती है | वर्ना अपने संघर्षों से जूझते हुए हर पीढ़ी अपना रास्ता स्वयं बना ही लेती हैं |
रही किसी एक विशेष नाम के उभरने की बात तो पुरुस्कारों और जलसों से परे हर नाम उतनी ही ऊंचाई तक जाएगा जितनी उसके बीज में क्षमता है | कुछ एक वर्षीय पौधे होंगे , कुछ झाड़ियाँ , कुछ छोटे पेड़ परन्तु निश्चित रूप से कुछ बरगद भी बनेंगे | ऐसा मेरा विश्वास है | समय हर युग में बरगद तैयार करता है | यह प्रकृति की विशेषता है | हाँ , कई बार हम अपने समय में , अपने समय के बरगदों को पहचान नहीं पाते | ऐसा सिर्फ साहित्य के क्षेत्र में नहीं है हर क्षेत्र में है | साहित्य से इतर एक उदाहरण मेरे जेहन में आ रहा है | सर ग्रेगर जॉन मेंडल का | वो अपने समय के बरगद थे पर उनका काम उनकी मृत्यु के 100 – १५० वर्ष बाद पहचाना गया | बाद में उन्हें फादर ऑफ़ जेनेटिक्स का खिताब मिला |मेरे विचार से तमाम निराशों को दरकिनार कर आवश्यक है की
बीज रोपते चलें क्या पता कौन गुलाब बनें ,कौन बरगद बने |
अंत में महिला लेखन के क्षेत्र में फेसबुक के योगदान पर कायम रहते हुए मैं कहना चाहती हूँ, किसी भी साहित्य को जो पाठकों की , संपादकों की , रचनाकारों की कसौटी पर शिल्प , भाव, संवेदनाओं व् प्रस्तुतीकरण के आधार पर खरा उतरता है चाहे वो फेस बुक में ही क्यों न लिखा गया हो उसे फसबुकिया साहित्य कह कर अपमानित नहीं करना चाहिए। मैं अमीश त्रिपाठी की “इममॉर्टल्स ऑफ़ मेलुहा ‘”को उदाहरण के तौर पर पेश करना चाहती हूँ ,जिसे शुरू में कोई प्रकाशक नहीं मिल रहा था फिर उसके कुछ अंश फेस बुक में डालने के बाद कहानी के प्रति प्रकाशकों व् पाठकों की रूचि बढ़ी। . जैसा की सर्व विदित है इस किताब ने “बेस्ट सेलर ‘ के नए कीर्तिमान स्थापित किये।
किसी ने सच कहा है “प्रतिभा जन्मजात होती है बस उसे लिखते -लिखते परिमार्जित करना पड़ता है ठीक हीरे की तरह तभी दिख पाती है उसकी असली चमक। ऐसे में बहुत जरूरी है एक ऐसा मंच जहाँ महिलाएं लिखे ,, निखरे और सीधे उसकी रचनायें पाठकों तक पहुँचे। , उसके काम को पहचाना जाये, किसी गुट बंदी का शिकार हुए बिना, मठाधीशों के आगे सर झुकाएं बिना। फेस बुक यह काम बखूबी से कर रहा है।तमाम महिलाओं की तरफ से ये हृदय के उदगार …
मैं गुम सी हो रही थी अपने विचारों की भीड़ में
तुम मसीहा बन के आये रास्ता दिखला दिया
मैं गुम सी हो रही थी अपने विचारों की भीड़ में
तुम मसीहा बन के आये रास्ता दिखला दिया
वंदना बाजपेयी
फेसबुक ने रचनाकारों को पाठक उपलब्ध कराके बहुत ही अच्छा प्लटफोर्म उपलब्ध कराया हैं। खासकर महिला रचनाकरों को! हम महिलाएं इस कार्य के लिए फेसबुक की हृदय से आभारी हैं। बहुत सुंदर प्रस्तुति।
धन्यवाद
लिखने वाले आकाश में भी लिख सकते हैं. हाँ, प्रशंसा रूपी खाद की आवश्यकता अवश्य महसूस होती है. महिलाओं को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
धन्यवाद
लिखने वाले आकाश में भी लिख सकते हैं. हाँ, प्रशंसा रूपी खाद की आवश्यकता अवश्य महसूस होती है. महिलाओं को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
सृज्नाताम्क कार्यों से जुड़ने के लिए महिलाओं को ज्यादा जद्द्दोज़हद करनी पड़ती है ….. पर गतिशील रहने की राहें भी खोजनी जरूरी हैं |
dhanyvad monika ji
सृजनात्मक
आपकी कलम कितने आयाम तय करती है, वाकई … बहुत ही सार्थक बातों को सामने रखा है
धन्यवाद रश्मि प्रभा जी