संकलन – प्रदीप कुमार सिंह
मैं उदयपुर, राजस्थान का रहने वाला हूं। मैंने नोएडा के कैलाश
अस्पताल में बारह-तेरह साल नौकरी की है। मैं गरीबों को मुफ्त में दवाएं बांटने के
मिशन से कैसे जुडा, इसकी एक कहानी है। वर्ष 2008 में दिल्ली के लक्ष्मीनगर में जब मेट्रो का काम चल रहा था,
तब वहां एक दुर्घटना
हुई, जिसमें कुछ लोग मरे, तो कुछ घायल हुए। ये सभी गरीब लोग थे। मैं तब संयोग से लक्ष्मीनगर से गुजर रहा
था और बस में बैठा था। दुर्घटनास्थल पर मैं उतर गया। चूंकि अस्पताल में काम करने
का मेरा अनुभव था, इसलिए मैं भी घायलों के साथ तेगबहादुर मेडिकल काॅलेज अस्पताल में चला गया।
वहां मीडिया की भारी भीड़ थी, इसलिए मरीजों के प्रति डाॅक्टरों का रवैया रक्षात्मक था।
लेकिन मैंने देखा कि गंभीर रूप से घायल मरीजों को भी डाॅक्टर दवा न होने की बात
कहकर लौटा रहे हंै। मैं यह देखकर स्तब्ध रह गया। मेरे मन में सवाल उठने लगे कि दवा
के अभाव में होने वाली मौतों को कैसे रोका जाए। छह-सात दिन मंथन करने के बाद मैंने
फैसला कर लिया कि जहां तक संभव होगा, मैं गरीबों को दवाएं बाटूंगा और दवाओं के अभाव में
उन्हें मरने नहीं दूंगा।
अस्पताल में बारह-तेरह साल नौकरी की है। मैं गरीबों को मुफ्त में दवाएं बांटने के
मिशन से कैसे जुडा, इसकी एक कहानी है। वर्ष 2008 में दिल्ली के लक्ष्मीनगर में जब मेट्रो का काम चल रहा था,
तब वहां एक दुर्घटना
हुई, जिसमें कुछ लोग मरे, तो कुछ घायल हुए। ये सभी गरीब लोग थे। मैं तब संयोग से लक्ष्मीनगर से गुजर रहा
था और बस में बैठा था। दुर्घटनास्थल पर मैं उतर गया। चूंकि अस्पताल में काम करने
का मेरा अनुभव था, इसलिए मैं भी घायलों के साथ तेगबहादुर मेडिकल काॅलेज अस्पताल में चला गया।
वहां मीडिया की भारी भीड़ थी, इसलिए मरीजों के प्रति डाॅक्टरों का रवैया रक्षात्मक था।
लेकिन मैंने देखा कि गंभीर रूप से घायल मरीजों को भी डाॅक्टर दवा न होने की बात
कहकर लौटा रहे हंै। मैं यह देखकर स्तब्ध रह गया। मेरे मन में सवाल उठने लगे कि दवा
के अभाव में होने वाली मौतों को कैसे रोका जाए। छह-सात दिन मंथन करने के बाद मैंने
फैसला कर लिया कि जहां तक संभव होगा, मैं गरीबों को दवाएं बाटूंगा और दवाओं के अभाव में
उन्हें मरने नहीं दूंगा।
दवाओं के लिए भीख मांगने की शुरूआत मैंने दिल्ली की
सरकारी काॅलोनी आरके पुरम के सेक्टर-1 से की। मैं लोगों के सामने हाथ जोड़कर कहता था कि
जो दवा आपके पास बच गई है, वह मुझे दे देंगे, तो इससे किसी गरीब की जान बच जाएगी। बस इस तरह दवा लेकर मैं राममनोहर लोहिया
अस्पताल के जनरल वार्ड में पहुंचकर मरीजों से पूछता कि डाॅक्टर ने ऐसी कोई दवा
लिखी हो, जो आपके पास नहीं है, तो मैं दे सकता हूं। इस तरह मेरे काम की शुरूआत हुई। पर मेरा विरोध भी शुरू हो
गया।
सरकारी काॅलोनी आरके पुरम के सेक्टर-1 से की। मैं लोगों के सामने हाथ जोड़कर कहता था कि
जो दवा आपके पास बच गई है, वह मुझे दे देंगे, तो इससे किसी गरीब की जान बच जाएगी। बस इस तरह दवा लेकर मैं राममनोहर लोहिया
अस्पताल के जनरल वार्ड में पहुंचकर मरीजों से पूछता कि डाॅक्टर ने ऐसी कोई दवा
लिखी हो, जो आपके पास नहीं है, तो मैं दे सकता हूं। इस तरह मेरे काम की शुरूआत हुई। पर मेरा विरोध भी शुरू हो
गया।
आॅल इंडिया रेडियो में चंद्रमोहन नाम के एक शख्स थे,
जिन्होंने मुझे कहा
कि आप इस तरह मरीजों को दवा नहीं दे सकते। लिहाजा मैं मरीजों को सीधे दवा न देकर
धार्मिक संस्थाओं को दवा देने लगा। लेकिन इस बीच कुछ वकील मेरे साथ हो गए और
उन्होंने कहा कि बेशक आप मरीजों को अपनी मर्जी से दवा नहीं दे सकते, लेकिन डाॅक्टर की पर्ची के
आधार पर दे सकते हैं। इस तरह जरूरतमंदों को दवा मुहैया कराने का मेरा काम जारी
रहा। आज मैं बारह से पंद्रह लाख दवाएं प्रति महीने लोगों को मुफ्त में बांटता हूं।
कोई भी आदमी, जिसके पास दवा खरीदने का पैसा नहीं है, वह डाॅक्टर की पर्ची लेकर मेरे पास आ सकता है। और
अब मैं सिर्फ दवाए नहीं, अस्पताल का बेड, निमुलाइजर, स्टिक आदि जरूरी चीजें गरीब मरीजों को मुहैया कराता हूं। इस समय मेरे पास
किडनी ट्रांस्प्लांट कराने वाले चैदह मरीज हैं, जिनके लिए दवाओं की व्यवस्था मैं करता हूं।
जिन्होंने मुझे कहा
कि आप इस तरह मरीजों को दवा नहीं दे सकते। लिहाजा मैं मरीजों को सीधे दवा न देकर
धार्मिक संस्थाओं को दवा देने लगा। लेकिन इस बीच कुछ वकील मेरे साथ हो गए और
उन्होंने कहा कि बेशक आप मरीजों को अपनी मर्जी से दवा नहीं दे सकते, लेकिन डाॅक्टर की पर्ची के
आधार पर दे सकते हैं। इस तरह जरूरतमंदों को दवा मुहैया कराने का मेरा काम जारी
रहा। आज मैं बारह से पंद्रह लाख दवाएं प्रति महीने लोगों को मुफ्त में बांटता हूं।
कोई भी आदमी, जिसके पास दवा खरीदने का पैसा नहीं है, वह डाॅक्टर की पर्ची लेकर मेरे पास आ सकता है। और
अब मैं सिर्फ दवाए नहीं, अस्पताल का बेड, निमुलाइजर, स्टिक आदि जरूरी चीजें गरीब मरीजों को मुहैया कराता हूं। इस समय मेरे पास
किडनी ट्रांस्प्लांट कराने वाले चैदह मरीज हैं, जिनके लिए दवाओं की व्यवस्था मैं करता हूं।
दिल्ली की आबादी आज पौने दो करोड़ है। इनमें से एक
करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास दवाओं की अतिरिक्त पत्ती मौजूद होगी। मेरा नारा ही है- ‘बची दवाई दान में, न कि कूड़ेदान में। मेडिसिन
बाबा का एक ही सपना, गरीबों का मेडिसिन बैंक हो अपना। मैंने पता किया है, दुनिया में कही भी मेडिसिन
बैंक नहीं है। मेरी इच्छा एक मेडिसिन बैंक की स्थापना करने की है। दवाओं के लिए
अस्सी साल से अधिक की उम्र में भी पांच-छह किलोमीटर रोज चलता हूं। अब सुमन कुमार
यानी गुप्ता साहब और सचिन गांधी जैसे लोग मेरे काम में मेरी मदद करते हैं। मेडिसिन
बाबा ट्रस्ट भी बन चुका है। पर मेरा काम अभी खत्म नहीं हुआ है।
करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास दवाओं की अतिरिक्त पत्ती मौजूद होगी। मेरा नारा ही है- ‘बची दवाई दान में, न कि कूड़ेदान में। मेडिसिन
बाबा का एक ही सपना, गरीबों का मेडिसिन बैंक हो अपना। मैंने पता किया है, दुनिया में कही भी मेडिसिन
बैंक नहीं है। मेरी इच्छा एक मेडिसिन बैंक की स्थापना करने की है। दवाओं के लिए
अस्सी साल से अधिक की उम्र में भी पांच-छह किलोमीटर रोज चलता हूं। अब सुमन कुमार
यानी गुप्ता साहब और सचिन गांधी जैसे लोग मेरे काम में मेरी मदद करते हैं। मेडिसिन
बाबा ट्रस्ट भी बन चुका है। पर मेरा काम अभी खत्म नहीं हुआ है।
साभार अमर उजाला
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