रंगनाथ द्विवेदी
हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान——-
अगर सावन न आई।
रहि-रहि के हुक उठे छतियाँ मे दुनौव,
लागत हऊ निकल जाई बिरहा में प्रान——-
अगर सावन न आई।
हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान——
अगर सावन न आई।
ऊ निरमोही का जाने कि कईसे रहत थौ,
बिस्तर क पीड़ा ई कईसे सहत थौ,
टड़पत थौ सगरौ उमर क मछरियाँ,
बाहर के घेरे न बरसे सखी!
जबले पिया से हमरे मिलन के न घेरे बदरियाँ,
तब ले न हरियर होये सखी! ई उमरियाँ क धान,
अगर सावन न आई।
हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान—–
अगर सावन न आई।
हे!सखी का होई रुपिया अऊ दौलात,
का होई गहना,
ई है सब रही कमायल-धयामल,
बस बीत जाई हमन के उमरियाँ——-
बाहर कई देईहै दुनऊ परानी के ले लेईही बेटवा,
मरी-मरी बनावल ई सारा मकान,
फिर बाहर खूब बरसे———
लेकिन न भीगे तब तोहरे चहले ई शरिरियाँ बुढ़ान,
हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान——-
अगर सावन न आई।