एक गुस्सैल आदमी

उसे बात – बात पर गुस्सा आता था
क्योंकि उसे लगता था
कुछ भी ठीक नहीं है
वह टकराना चाहता था व्यवस्था से
यहाँ तक की ईश्वर से
जिसने किया है इतना भेद – भाव
आदमी और आदमी में

जब हुंकारता व्यवस्था के खिलाफ
उसके चारों और खड़ी  हो जाती एक भीड़
जिसे यकीन था की एक दिन वो सब बदल देगा
पर भीड़ बदलना चाहती उसका गुस्सा
वो उसे दुलराती – पुचकारती , समझाती
काना वही सब
बस कम कर दो अपना गुस्सा

वो फिर हुंकारता , नकारता
और चल पड़ता अपने लक्ष्य की ओर
पीछे – पीछे चल पड़ती भीड़
उसकी अनुगामी बन कर
व्यवस्था को बदलने के लिए

एक दिन उसने समझा गुस्से का अर्थ शास्त्र
और त्याग दिया गुस्सा
अब वो शांति से बात करता
कुछ बढ़ा कर कुछ घटा कर
बीच – बीच में जोड़ देता कुछ जुमले
जो साबित कर देते की
उसमें भी है विनोदप्रियता

सुना है
अब उसके चारों ओर की भीड़ छंटने लगी
उसके गुस्से में एक आग थी
जिससे लोगों को आस थी
उसका गुस्सा खत्म होते ही
खत्म हो गया लोगों का यकीन
व्यवस्था परिवर्तन पर

सुना है
अब वो फिर से सीख रहा है गुस्सा करना
और भीड़
फिर से ढूंढ रही है
एक गुस्सैल आदमी
जिसके गुस्से में छिपा हो यकीन
व्यवस्था परिवर्तन का

स्व . ओमकार मणि त्रिपाठी
                                             

रिलेटेड पोस्ट …..

ओमकार मणि त्रिपाठी की सात कवितायें


जिंदगी कुछ यूँ तनहा होने लगी है


सच की राहो में देखे है कांटे बहुत


इंतज़ार

Leave a Comment