जूनून
छत की मुंडेर पर खड़ी वो
कभी हाथ हिलाती तो
कभी गले से स्कार्फ उतारकर उसको लहराती
लग रहा था कि कहीं
उसके अंतर्मन में
आजादी का
कोई कीड़ा रेंग रहा है
जो उसे प्रेरित कर रहा है
कुछ ऐसा जुनून पैदा करने के लिए
जो उसके आत्मसम्मान को
हिमालय की चोटियों से भी
ऊँचा पहुंचा सके
अल सुबह टूटे हाथ के साथ
देख रहा हूँ उसे स्कूल जाते हुए
शायद शाम को मुंडेर से गिर गई थी वो
मगर चेहरा
ताजमहल का संगमरमर दमकता हुआ
सीमा पर तैनात जवानों जैसा आत्मविश्वास
सालों बाद आज उसे फिर देखा
सिगरेट के अधजले टुकड़ों और
शराब की टूटी बोतलों के बीच
लाशों के ढेर के पास खड़ी
वो तलाश रही थी
अपने बाप की लाश
जो आज
उसी के हाथों मारा गया
ख़त्म कर दिया था उसने
आतंकवाद का एक अध्याय
माँ को विधवा कर
कई महिलाओं को बचाया होने से विधवा
सपने में भी देखा था उसने एक सपना
अपने खून से भी बढ़ कर है देश अपना
जूनून जारी था उसका
आत्मविश्वास
अब हिमालय को भी पिघला रहा था..
निराशा
———
आज बाँट रहा था खाना
उसने कहा बेटा
रोज रोज यहाँ ना आना,
तुम कर दोगे शायद मुझे कमज़ोर
हो गई थी मैं पूरी तरह कठोर,
नहीं छेड़ना चाहती
वो दिल के पुराने तार
जब कभी था उस पूत के लिए
इस अबला माँ का प्यार,
बंद कर ली हैं मैंने
अपनी इच्छाएं और संवेदनायें
नहीं चाहती की कोई
अवचेतन मन मे भी उसे जगाये,
तेरी चाहत और तेरा प्यार
कहीं खोल ना दे प्यार का द्वार,
और ..मैं कहीं फिर ठगी ना जाऊँ
पुत्र शब्द ही हमेशा के लिए भूल जाऊँ
विनाश
तेज़ हवा की धुन पर
नाच रहा था समुन्दर अठखेलियां करती लहरें मदहोश कर रही थीं अट्टालिकाओं को झूमने के लिए नतमस्तक हो गईं थीं वे लहरों की मादकता मे बारिश की घुड़की से भाग रहे थे बड़े बड़े पत्थर नदी भी अपने पूरे यौवन पर थी प्रेमी पत्थर डूब रहे थे इस यौवन मे दरख़्त भी मदहोशी मे खो चुके थे अपनी जड़ें प्रकृति थी गुस्से मे कर रही थी तांडव नृत्य आईना दिखा रही थी बता रही थी हमारे कृत्य सुनामी हो या भूकंप मच जाता हर तरफ हड़कम्प प्रकृति है जीवन की सांस छेड़ोगे तो होगा विनाश
चंद्र मौलि पाण्डेय
उप वन संरक्षक
भोपाल
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