आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ?



वंदना बाजपेयी



शहरीकरण संयुक्त परिवारों का टूटना और बच्चों का विदेश में सेटल हो जाना , आज अकेलापन महानगरीय जीन में एक बहुत बड़ी समस्या बन कर उभरा है | जिसका ताज़ा उदाहरण है मुबई की आशा जी जो टूटते बिखरते रिश्तों में निराशा की दास्तान हैं |


मुबई के एक घर में एक महिला का कंकाल मिलता है | घर में अकेली रहने वाली ये महिला जो एक विदेश में रहने वाले पुत्र की माँ भी है कब इहलोक छोड़ कर चली गयी न इसकी सुध उसके बेटे को है न पड़ोसियों को न रिश्तेदारों को | यहाँ तक की किसी को शव के कंकाल में बदलने पर दुर्गन्ध भी नहीं आई |

सच में मुंबई की आशा जी की घटना बेहद दर्दनाक है | कौन होगा जिसका मन इन हृदयविदारक तस्वीरों को देख कर विचलित न हो गया हो | ये घटनाएं गिरते मानव मूल्यों की तरफ इशारा करती हैं | एक दो पीढ़ी पहले तक जब सारा गाँव अपना होता था | फिर ऐसा क्या हुआ की इतने भीड़ भरे माहौल में कोई एक भी अपना नज़र नहीं आता | हम अपने – अपने दायरों में इतना सिमिट गए हैं की की वहां सिर्फ हमारे अलावा किसी और का वजूद हमें स्वीकार नहीं | अमीरों के घरों में तो स्तिथि और दुष्कर है | जहाँ बड़े – बड़े टिंटेड विंडो ग्लास से सूरज की रोशिनी ही बमुश्किल छन कर आती है , वहां रिश्तों की गुंजाइश कहाँ ? अभी इसी घटना को देखिये ये घटना आशा जी के बेटे पर तो अँगुली उठाती ही है साथ ही उनके पड़ोसियों व् अन्य रिश्तेदारों पर भी अँगुली उठाती है | आखिर क्या कारण है की उनका कोई भी रिश्तेदार पड़ोसी उनकी खैर – खबर नहीं लेता था | ये दर्द नाक घटना हमें सोंचने पर विवश करती है की आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? आखिर क्यों हम इतने अकेले होते जा रहे हैं ?

एक अकेली महिला की कहानी

आशा जी की घटना को देख कर मुझे अपने मुहल्ले की एक अकेली रहने वाली स्त्री की याद आ रही है | जिसे मैं आप सब के साथ शेयर करना चाहती हूँ | दिल्ली के पोर्श समझे जाने वाले मुहल्ले में ये लगभग ७० वर्षीय महिला अपने १० – १5 करोण के तीन मंजिला घर में अकेली रहती है | बेटा विदेश में है | महिला की अपनी कामवाली पर चिल्लाने की आवाज़े अक्सर आती रहती हैं |उसके अतिरिक्त बंद दरवाजों के भीतर का किसी को कुछ नहीं पता | पर हमेशा से ऐसा नहीं था | पहले ये तीन मंजिला घर खाली नहीं था | ग्राउंड फ्लोर पर महिला के पेरेंट्स रहते थे | फर्स्ट फ्लोर पर उनके भाई- भाभी अपने परिवार के साथ रहते थे | भाभी डॉक्टर हैं , व् थर्ड फ्लोर जो दूसरे भाई का था ( जो दिल्ली के बाहर कहीं रहते हैं ) किराए पर उठा था | जहाँ १० साल से एक ही किरायेदार रह रहे थे | जिनकी सभ्यता व् शालीनता के मुहल्ले में सब कायल थे | ये महिला अपने पति से विवाद के बाद तलाक ले कर अपने पिता के घर उनके साथ रहने लगी | बेटी पर तरस खा कर पिता ने यूँहीं कह दिया की ये मकान मेरे बाद तुम्हारा होगा | पिता की मृत्यु के बाद महिला ने कच्चे पक्के दस्तावेज से अपने भाइयों से झगड़ना शुरू कर दिया | सबसे पहले तो किरायेदार से यह कहते हुए घर खाली करवाया की ये घर की मालकिन अब वह हैं और अब उन्हीं के अनुसार ही किरायेदार रहेंगे |उनकी इच्छा है की घर खाली ही रहे | किरायेदारों ने एक महीने में घर खाली कर दिया | फिर उन्होंने अपने भाई – भाभी से झगड़ना शुरू कर दिया | भाभी जो एक डॉक्टर हैं व् जिनकी मुहल्ले में सामजिक तौर पर बहुत प्रतिष्ठा है ने रोज – रोज की चिक – चिक से आजिज़ आ कर अपने परिवार समेत घर खाली कर दिया |छोटा भाई जो दिल्ली के बाहर रहता है उसके दिल्ली आने पर घर में प्रवेश ही नहीं करने दिया |

शांत रहने वाले मुहल्ले में इस तरह का शोर न हो ये सोंच कर वो भाई यहाँ आने ही नहीं लगा |इतना ही नहीं मुहल्ले के लोगों को वो घर के अंदर आने नहीं देतीं | उन्हें सब पर शक रहता है , की उनके भेद न जान लें |उनके घर में फिलहाल किसी को जाने की इजाजत है तो वो हैं कामवालियां | वो भी सिर्फ बर्तन के लिए | कामवालियों के मुताबिक़ गंदे – बेतरतीब पड़े घर में वो सारा दिन कंप्यूटर पर बैठी रहती हैं | साल में एक बार बेटे के पास जाती हैं | बेटे की अपनी जद्दोजहद है पहली पत्नी के साथ तलाक हो चुका है , दूसरी के साथ अलगाव चाहता नहीं है | शायद इसी पशोपेश में वो स्वयं चार साल से भारत नहीं आया | और फिलहाल उसकी माँ अपने तीन मंजिला घर में , जिसके दो फ्लोर पूरी तरह अँधेरे में रहते हैं , अकेली रहती है |सबसे अलग , सबसे विलग |

कहाँ से हो रही है अकेलेपन की शुरुआत


मुहल्ले में अक्सर ये चर्चा रहती है की जिस मकान के लिए वो इतना अकेलापन भोग रही हैं वो तो उनके साथ जाएगा ही नहीं | निश्चित तौर पर ये पुत्र मोह नहीं है ये लिप्सा है | अधिक से अधिक पा लेने की लिप्सा | जब ” पैसा ही सब कुछ और रिश्ते कुछ नहीं की नीव पर बच्चे पाले जाते हैं वो बच्चे बड़े हो कर कभी अपने माता पिता को नहीं पूँछेंगे | वो भी पैसे को ही पूँछेंगे | कितना भी पैसा हो किसी का स्नेह खरीदा नहीं जा सकता | पुराने ज़माने में बुजुर्ग कहा करते थे की इंसान अपने साथ पुन्य ले कर जाता है | इसीलिए मानव सेवा रिश्ते बनाने , निभाने पर बहुत जोर दिया जाता था |पर क्या आज इस तरह रिश्ते निभाये जा रहे हैं ? क्या एक् पीढ़ी पहले रोटी के लिए शहरों आ बसे लोगों ने खुद को समेटना नहीं शुरू कर दिया था ? हमें कारण खोजने होंगे |


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क्या हम ही अकेलापन चुनते हैं ?

कारण कहीं यह तो नहीं की पहले हम संकुचित होते चलते हैं फिर उसी के दुष्परिणाम सामने आते हैं |तब मानवता की दुहाई देते हैं | इतना अकेलापन तब आता है जब मेरा घर मेरे बच्चे के अलावा रिश्ते बनाये ही नहीं होते हैं | ये बच्चों का मोह नहीं ” my life my rules की चाह है | रिश्तों को स्पेस देने की अवधारणा भी भारत में लगभग एक डेढ़ दशक पुरानी है |इस स्पेस की अवधारणा के कारण हम अपने आस – पड़ोस , जान पहचान वालों के लिए भी ” नो एंट्री ” का बोर्ड ” लगा लेते हैं | शुरू में तो बड़ा अच्छा लगता है | चाहे जो करें कोई टोंकने वाला नहीं है | परन्तु बाद में ये स्पेस किसी ब्लैक होल की तरह रिश्तों को ही लीलना शुरू कर देती है | कोई नहीं बचता , बिलकुल करीब का रिश्ता भी नहीं | अब समझना चाहिए की जब यंग थे तब रिश्ते बनाए नहीं , फिर बुढापे में कोई साथ नहीं देता |

अक्सर इतना अकेलापन भोगने वालों के रिश्तेदारों के साथ बात करने पर एक अलग ही तथ्य उभर कर सामने आता है | या यूँ कहिये देवरानी , जेठानी ,नन्द सबके पास अतीत की अपनी कहानी होती है | अपमान की उपेक्षा की व् साथ न देने की | मसलन जब हमें जरूरत थी तब तो साथ दिया नहीं , मेरी बेटी की शादी में इतना ही दिया , इतने पैसे वाले हैं पर अपने भाई की बिमारी में मांगने पर एक धेला भी नहीं दिया , वो तड़प कर चले गए आदि आदि |


बुढापे के लिए तैयार रखे प्लान बी  

 रिश्ते बनाने और निभाने में मेहनत पड़ती है | बहुत कुछ सहन करना पड़ता है | त्याग करना पड़ता है |ये सच है की बच्चों के सपनों को रोका नहीं जा सकता | रोकना भी नहीं चाहिए क्योंकि कुंठित बच्चे माता – पिता के साथ रह कर भी बेगानों सा व्यवहार करते हैं | | इसलिए अपने बुढापे में अकेलेपन से बचने के लिए ” प्लान बी जरूर तैयार रखना चाहिए | यानी की बुढापे की तैयारी जवानी से करनी पड़ती है |प्लान बी है ” निवेश ” | निवेश न सिर्फ पैसों का जो बुढापे में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से जूझते समय काम आ सके |बच्चों के लिए इतना लोन मत लें की अपने पास कुछ बचे ही नहीं व् दूसरा रिश्तों में निवेश | अपना बेटा विदेश में है , दुसरे शहर में है तो भी बहन भाई के बच्चे स्नेह की डोरी से इतना बंधे हैं की वो हाल – चाल पूंछते रहते हैं | पड़ोसी से रिश्ता इतना घनिष्ठ है की एक दिन न दिखो तो बेल बजा कर खोज खबर ले लेते हैं | घरों में हम अक्सर बुजुर्गों को कहते सुनते हैं की बड़ा अच्छा इंसान था मिटटी उठी तो इतनी भीड़ थी | जाहिर सी बात है अगर रिश्तों को समय से सींचा जाए तो कोई न कोई रिश्ता साथ जरूर देता है |

यह सच है की हम सब आज तेजी से अकेले होते जा रहे हैं पर इसके कारण हमीं को तलाशने होंगे और इलाज़ भी |

वंदना बाजपेयी


7 thoughts on “आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ?”

  1. Akelapan aap ke samaj ki bahut badi samaya hai. Aapne sahi kaha hame mera ghar mere bacche ke alava anayrishte bhi sambhale honge. Disha dikhata alekh… Saurabh MIttal

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  2. बहुत सही।लिखा है आपने। कई बार वृद्ध या वृद्धा खुद ही अपने अकेलेपन के जिम्मेदार होते हैं।उन्हें सबसे सहानुभूति तो मिलती है पर कारण लोगों को नहीं पता होता
    मैंने भी लूछ ऐसे लोग देखे हैं ।
    बुढापा अच्छा कटे,इसकी तैयारी युवावस्था में ही शुरू हो जानी चाहिए ।रिश्ते शीशे से सम्भाल कर रखने होते हैं।

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