लेखिका – श्रीमती सरबानी सेनगुप्ता
जीवन भर दौड़ने भागने के बाद जब जीवन कि संध्या बेला में कुछ
पल सुस्ताने का अवसर मिलता है तो न जाने क्यों मन पलट –पलट कर पिछली स्मृतियों में से कुछ खोजने लगता है | ऐसी ही एक खोज आज कल मेरे दिमाग में चल रही है , जो मुझे विवश कर रही है यह सोचने को कि ईश्वर कि बनायीं इस
सृष्टि में ,
जन्म –जन्मांतर के खेल में कुछ कड़ियाँ ऐसी जरूर हैं जो हमें पिछले
जन्मों के अस्तित्व पर सोचने पर विवश कर देती हैं |
पल सुस्ताने का अवसर मिलता है तो न जाने क्यों मन पलट –पलट कर पिछली स्मृतियों में से कुछ खोजने लगता है | ऐसी ही एक खोज आज कल मेरे दिमाग में चल रही है , जो मुझे विवश कर रही है यह सोचने को कि ईश्वर कि बनायीं इस
सृष्टि में ,
जन्म –जन्मांतर के खेल में कुछ कड़ियाँ ऐसी जरूर हैं जो हमें पिछले
जन्मों के अस्तित्व पर सोचने पर विवश कर देती हैं |
इन दार्शनिक बातों से इतर आज
अपना एक अनुभव साझा कर रही हूँ | जो मेरी
समझ के परे है ,
शायद आप कि समझ में आ जाए और
सुलझ जाए उस जन्म से इस जन्म के फेर में फंसी मन कि गुत्थी | मेरा परिचय बस इतना है कि मैंने अपनी जिंदगी के बेहतरीन ३२
साल शिक्षा के क्षेत्र में बिताये |मैं
हमेशा प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाती आ रही हूँ | बात उन
दिनों कि है जब मैं दिल्ली के एक नामी –गिरामी
पब्लिक स्कूल कि प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाती थी | नए सेशन का पहला दिन था | नन्हे –मुन्ने बच्चे जिनकी उम्र कोई ४ , साढ़े चार साल रही होगी , लुढकते फिसलते एक पंक्ति में मेरी कक्षा में आये | उनकी टीचर सुबकते –सिसकते
बच्चों को मुझे सौंप कर अपनी कक्षा में चली गयी | उनमें से कुछ बच्चे ऐसे भी थे जो हंस –बोल भी रहे थे और अपनी कक्षा के ही दूसरे रोते सिसकते बच्चों
को अवाक होकर देख रहे थे | तभी एक
बच्चा बौखलाया सा मेरी कक्षा में दाखिल हुआ | पीछे –पीछे उसकी माँ भी थी जो मुझसे मिलना चाहती थी |
क्योंकि ये बच्चा नया था इसलिए
उसकी माँ ने मुझसे कहा , “ मैंम , नमस्ते , हम मुंबई
से आये हैं |
मेरा बेटा इस स्कूल में नया है , आप इसे जरा संभाल लेना | स्कूल का प्रथम दिन , ऊपर से
कक्षाओं की अदला बदली | उफ़ !
इतना शोर की मैं उसकी माँ से ज्यादा बात नहीं कर पायी | वह बच्चे को छोड़ कर चली गयी | जैसे –जैसे दिन
बीतते गए , वह बच्चा मुझे अजीब सा लगने लगा | वह न तो दूसरे बच्चों कि तरह खेलता , न हँसता , न्
ज्यादा बोलता था | इतने
छोटे बच्चे ,
जिनका अभी बालपन और भोलापन गया
नहीं था ,वह सब मुझमें अपनी माँ को खोजते | मेरे नज़दीक आकर मुझ से लिपटते | पर वह नया बच्चा निर्भीक ( परिवर्तित नाम ) अपनी उम्र के
बच्चों से ज्यादा ही परिपक्व था | | वह मेरी
ओर हमेशा बेरुखी कि नज़रों से देखता , हाथ
पकड़ों तो हाथ छुड़ा कर भाग जाता | दिन
बीतने लगे |
निर्भीक को मैं अपने ज्यादा
करीब नहीं पाती थी |हाँ , कभी कभी वो थोड़ी बहुत बात चीत कर लेता था | निर्भीक अपने नाम के अनुरूप ही निडर व् चुस्त था |
एक दिन मैं अपनी कुर्सी पर बैठी
नोटबुक्स चेक कर रही थी | अचानक
निर्भीक मेरे पास आया और मेरी चूड़ियां हटा कर हाथ को सहलाने लगा | फिर धीरे से बुदबुदाया , “ मैंम यू आर सो फेयर |” ओह गॉड !
मुझे ४४० वाल्ट का करंट लगा | उसकी इस
हरकत पर मैं हैरान रह गयी | उसके हाव
–भाव से मुझे अपने कालेज के ज़माने में
पढ़े गए मिल्स एंड बून सीरीज के नोवल्स के हीरो याद आ गए | जो कभी हमारी कल्पना में आकर नींद उड़ाते थे | बात आई गयी हो गयी | सेशन
ख़त्म हो गया |
एक बार फिर वाही दिन आया | मैं अपने बच्चों को प्रथम कक्षा में छोड़ आई | फिर नए बच्चे आये | पुराने
बच्चे रीसेस में मुझसे मिलने आते | पर
निर्भीक , वो कभी सबके साथ नहीं आता | कभी खिड़की से , कभी
दरवाजे के पीछे से बिना कुछ कहे मुझे देखता | कभी पानी
पीने , कभी टॉयलेट जाने के बहाने आता | मैं अब उसकी गहरी नज़रों से डरने लगी थी |
समय पंख
लगा कर उड़ने लगा | अब वो
पांचवीं कक्षा में आ गया था | उसका छुप
–छुप कर मुझे देखना जारी रहा | एक दिन उसकी माँ आई और बोली ,” मैंम मैं निर्भीक को खींच कर लायी हूँ | यह रोज आपकी बातें करता है | अभी तक आप को भूला नहीं है | इसने
मुझसे कहा है जब बड़ा हो जाएगा तो आपको अपने घर ले जाएगा | आपसे शादी भी करेगा | मुझे
उसकी बात पर हंसी आ गयी | मैं
निर्भीक कि पीठ थपथपाकर कहा ,” हां बेटा
, तुम पढ़ लिख कर बड़े हो जाओ , अच्छी नौकरी करों , अच्छे
इंसान बनों |
तभी तो मैं तुम्हारे घर जाऊँगी | पता नहीं मेरी इस बात का उस पर क्या असर हुआ , अब वह कभी –कभी ही
मेरी कक्षा में बाहर से झांकता | मैं
बच्चों में मशरूफ होने के बावजूद हाथ हिला देती और मुस्कुरा देती और वह बिना कुछ
कहे सुने चला जाता |
लगा कर उड़ने लगा | अब वो
पांचवीं कक्षा में आ गया था | उसका छुप
–छुप कर मुझे देखना जारी रहा | एक दिन उसकी माँ आई और बोली ,” मैंम मैं निर्भीक को खींच कर लायी हूँ | यह रोज आपकी बातें करता है | अभी तक आप को भूला नहीं है | इसने
मुझसे कहा है जब बड़ा हो जाएगा तो आपको अपने घर ले जाएगा | आपसे शादी भी करेगा | मुझे
उसकी बात पर हंसी आ गयी | मैं
निर्भीक कि पीठ थपथपाकर कहा ,” हां बेटा
, तुम पढ़ लिख कर बड़े हो जाओ , अच्छी नौकरी करों , अच्छे
इंसान बनों |
तभी तो मैं तुम्हारे घर जाऊँगी | पता नहीं मेरी इस बात का उस पर क्या असर हुआ , अब वह कभी –कभी ही
मेरी कक्षा में बाहर से झांकता | मैं
बच्चों में मशरूफ होने के बावजूद हाथ हिला देती और मुस्कुरा देती और वह बिना कुछ
कहे सुने चला जाता |
धीरे –धीरे ऋतुएं बदली | नए साल
पुराने होते चले गए | समय का
काफिला आगे बढ़ता चला गया | वह अब
किशोरावस्था में पहुँच गया था | बीच –बीच में निर्भीक मुझसे मिलने आता | औपचारिक बातों के बीच सिर्फ पढ़ाई कि बातें होती | मैं उसे सफलता के गुर सिखाती | वह मेरी बातें ध्यान से सुनता और उडती नज़र से मुझे देख कर चला जाता
| कभी –कभी मेरे कोरिडोर से गुजरने पर निर्भीक अपने मित्रों कि टोली छोड़
कर दौड़ा –दौड़ा मेरे पास आता, और बिना कुछ कहे चला जाता | पता नहीं किन शब्दों को अपने मन में दबाये | बारहवी कक्षा का परीक्षा परिणाम घोषित होते ही वह मेरे पास
आया और मुझसे लिपट कर चहक कर बोला मैंम , यू आर
माय इंस्पीरेशन ,
यू आर रीयली ग्रेट | मैं उसकी इस हरकत पर हकपका सी गयी | मेरी आँखें नम थी कि वो अब स्कूल छोड़ कर चला जाएगा | निर्भीक स्कूल छोड़ कर चला गया पर उसके फोन आते रहे और मैं
उसे जी भर के आशीर्वाद देती रही | उसने
नामी –गिरामी कालेज से इंजीनियरिंग की , एम .बी ए किया | वह हमेशा
कहता मैंम ये सब आपके आशीर्वाद का परिणाम है | और उसके शब्दों पर मेरे ह्रदय से आशीर्वाद कि झड़ी यूँहीं लग जाती
जैसे उगते सूरज को देखकर हरसिंगार अपने सारे पुष्प स्वयम ही अर्पित कर देता है |
एक दिन अचानक निर्भीक मेरे पास
आया और मेरे पैर छू कर रोते हुए बोला , “ मैंम
मेरी एक बहुत अच्छी कम्पनी में नौकरी लग गयी है | मुझे अगले हफ्ते अमेरिका जाना है | मैं आपको कभी नहीं भूल पाऊंगा | मुझे पता नहीं क्यों , “ पर आप
सदा से मेरी आदर्श रही हैं , कभी कह
नहीं पाया पर मन में सदा लगता रहता की अपनी आदर्श मैंम को मैं कैसे खुश कर पाऊ | लगता आप को कुछ बन कर दिखाना है | आप खुश होंगी तो मेरा मन खिल उठेगा | पर अब आप से दूर जाते समय एक बेहद खालीपन का अहसास हो रहा है
, जैसे कुछ अपना सा छूट रहा हो | मेरी आँखों से गंगा –जमुना
बहने लगी | जिसमें बह रहा था स्नेह आशीर्वाद , दुआएं …. और कहीं
तलहटी में कुछ खालीपन भी |
निर्भीक चला गया और मुझे कुछ
प्रश्नों के साथ अकेला छोड़ गया | एक तरफ
जहाँ मुझे ख़ुशी है कि मेरा लगाया एक नन्हा पौधा एक हर भरा वृक्ष बन गया है | वहीँ एक प्रश्न भी है की मैं उसकी क्या थी , दोस्त , माँ टीचर
या फिर मात्र पथ –प्रदर्शक
? हम लोगों के बीच में “ वो क्या था ? “ जो इस
लोक कि समझ से परे है जिस के रहस्य कहीं गहरे पिछले जन्म में जुड़े हैं | मान्यताओं के विपरीत मैं मानती हूँ कि , हम रिश्ते बनाते नहीं , रिश्ते
हमें चुनते हैं |
जैसे निर्भीक ने मुझे चुना था
इतनी अध्यापिकाओं के मध्य | वो धागे
जो पिछले जन्म में कहीं छूट जाते हैं वहां आत्मा खिंचती है |
अपने विचारों कि गुत्थम –गुत्थी में नम आखों के साथ मेरे होंठ बुदबुदा उठते हैं , “ निर्भीक बेटा , जहाँ भी रहो , खुश रहो ………… मुझे विश्वास है ये आशीर्वाद निर्भीक
तक पहुँच गया होगा |
तक पहुँच गया होगा |
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अद्र्निया आपका बहुत ही सादगी और बिना लग लपेट के लिखा गया मर्मस्पर्शी संस्मरण मन को भिगो गया | सचमुच ऐसे रिश्तों से हर संवेदनशील इंसान दो चार होता ही | पर इनकी गहराई और सच्चाई को ईश्वर ही बेहतर जानता होगा कि क्यों इतनी बड़ी दुनिया एक दो या फिर कुछ लोग ही खास बनते हैं और उनमे से भी एक दो के लिए तो ये प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं | सादर आभार और नमन इस भावपूर्ण अनुभव् को साझा करने के लिए |
धन्यवाद रेनू जी