रश्मि सिन्हा
शहर में एक नया कॉलेज खुला था। बाद से बैनर टंगा था ,यहां शिक्षा निशुल्क प्राप्त करें,और वहां छात्र और छात्राओं का एक भारी हुजूम था।
तभी एक छात्र की नज़र एक बोर्ड पर पड़ी, जिसपर एडमिशन के नियम व शर्तें लिखयी हुई थीं। जिसमे लिखा था,” केवल उन्ही को प्रवेश,शिक्षा, निशुल्क दी जाएगी जो अपने नाम के साथ,”सर नेम के रूप में,दूसरे धर्म या सम्प्रदाय का नाम लगाएंगे, उदाहरणार्थ, रोहित शुक्ला की जगह रोहित खान या रोहित विक्टर।
यह पढ़ते ही वहां ख़ुसर पुसर शुरू हो गई।
ये कैसे संभव है? पागल है क्या कॉलेज खोलने वाला?
तभी पीछे से आवाज़ आई,मैं अपना नाम अफ़ज़ल पाठक लिखा दूंगा।एक और आवाज़ में नीलिमा शुक्ला की जगह नीलिमा वर्गीज़—
फिर तो वहां तरह-तरह के नामों को गढ़ने की होड़ लग गई।
अचानक एक जगह और भीड़ देख मैं वहां बढ़ा वहां का भी वही आलम।
वहां नौकरी का प्रलोभन था। अजीब सी शर्तें
नौकरी उसी शख्स को दी जाएगी जो भगवा वस्त्र
तहमत टोपी, दाढ़ी, केश, साफा आदि का विसर्जन कर के एक सभ्य इंसान की तरह पैंट शर्ट पहन कर रहेगा।
कुसी के गले मे ताबीज, ओम, या किसी भी प्रकार का ऐसा प्रतीक नही होगा जिससे उस के किसी वर्ग विशेष के होने का पता चले।
हाँ घरों में वे अपना धर्म मानने को स्वतंत्र होंगे।
एक पुरजोर विरोध के बाद, वहां भी कुछ सहमति के आसार नजर आ रहे थे।
रोजी रोटी का सवाल था। सरदार अपना केश कर्तन करवाके, और मौलाना अपनी दाढी बनवाने के बाद, एक से नज़र आ रहे थे।
नाम पूछने पर कोई अरविंद खान, तो कोई विक्टर अग्रवाल बात रहे थे।
ये सब देखकर मेरे मुँह से हंसी छूट पड़ी।
तभी मुझे किसी के द्वारा झकझोरने का अहसास हुआ। मेरी माँ थी।
क्या हुआ रोहित? हंस क्यों रहा है?कितनी देर सोएगा?
और में इस अजीब से सपने के बारे में सोचते हुए ब्रश करने चल दिया।
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गलती किसकी