(लघुकथा)
–विनोद खनगवाल ,सोनीपत (हरियाणा)
सरकार के द्वारा
इस बार दिवाली पर चीन निर्मित उत्पादों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। टीवी पर
खबरों में लोग इन उत्पादों का बहिष्कार करके देशभक्ति निभाने की कसमें खा रहे थे।
इस विषय पर पड़ोसी दोस्तों के साथ एक गर्मागर्म चर्चा के बाद मैं भी अपनी बेटी के
साथ दिवाली की खरीदारी करने चल दिया था।
इस बार दिवाली पर चीन निर्मित उत्पादों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। टीवी पर
खबरों में लोग इन उत्पादों का बहिष्कार करके देशभक्ति निभाने की कसमें खा रहे थे।
इस विषय पर पड़ोसी दोस्तों के साथ एक गर्मागर्म चर्चा के बाद मैं भी अपनी बेटी के
साथ दिवाली की खरीदारी करने चल दिया था।
“पापा ये लो! पापा
ये भी ले लो!!”-बेटी ने एक दुकान पर कई चीजें पसंद आ गई थीं।
ये भी ले लो!!”-बेटी ने एक दुकान पर कई चीजें पसंद आ गई थीं।
“कितने के होंगे
भाई ये सब सामान?”
भाई ये सब सामान?”
“साहब! दस हजार के
करीब हो जाएगा।”-दुकानदार ने हिसाब लगाकर बताया।
करीब हो जाएगा।”-दुकानदार ने हिसाब लगाकर बताया।
“कुछ और अच्छी सी
वेरायटी का सामान नहीं है क्या तुम्हारे पास…..?”
वेरायटी का सामान नहीं है क्या तुम्हारे पास…..?”
“साहब, आप अंदर चले जाइए। आपको आपके हिसाब का सारा
सामान मिल जाएगा।”- दुकानदार की अनुभवी आँखों ने मेरे चेहरे के भाव पढते हुए
पर्दे के पीछे बनी दुकान में जाने का इशारा कर दिया।
सामान मिल जाएगा।”- दुकानदार की अनुभवी आँखों ने मेरे चेहरे के भाव पढते हुए
पर्दे के पीछे बनी दुकान में जाने का इशारा कर दिया।
“ये तो चाइनीज
आइटम हैं!!! सरकार ने इसको बैन कर रखा है ना…?”
आइटम हैं!!! सरकार ने इसको बैन कर रखा है ना…?”
“साहब, पर्दे के पीछे सब चलता है। कोई दिक्कत नहीं है
सबकी फीस उन तक पहुँच चुकी है।”
सबकी फीस उन तक पहुँच चुकी है।”
अब दिवाली की
खरीदारी मजबूरी थी इसलिए बिना कोई बहस किये अंदर चला गया।
खरीदारी मजबूरी थी इसलिए बिना कोई बहस किये अंदर चला गया।
वहाँ जाकर देखा तो
देशभक्ति की कसमें खाने वाले दोस्तों की मंडली पहले से ही वहाँ मौजूद थी। सभी की
नजरें आपस में मिली तो चहरों पर एक खिसियानी मुस्कुराहट दौड़ गई। सभी के मुँह से
एक साथ निकला– “यार, हम तो सिर्फ देखने आए थे।”
देशभक्ति की कसमें खाने वाले दोस्तों की मंडली पहले से ही वहाँ मौजूद थी। सभी की
नजरें आपस में मिली तो चहरों पर एक खिसियानी मुस्कुराहट दौड़ गई। सभी के मुँह से
एक साथ निकला– “यार, हम तो सिर्फ देखने आए थे।”
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सच है आज के युग का सिर्फ खोखली बातें ही करते है लोग और सहूलियत के हिसाब से बदलते है मापदंड अपने।
सत्य का दर्पण दिखाती रचना।
धन्यवाद स्वेता जी