गीता का तीसरा अध्याय कर्म योग के नाम से भी जाना जाता है प्रस्तुत है गीता के कर्मयोग की सरल काव्यात्मक व्याख्या /geeta ke karmyog ki saral kaavyaatmak vyakhya
श्रीमती एम .डी .त्रिपाठी ( कृष्णी राष्ट्रदेवी )
अर्जुन ने प्रभु से कहा
सुनिए करुणाधाम
मम मन में संदेह अति
निर्णय दें घनश्याम
ज्ञान अगर अति श्रेष्ठ है
कर्मों से दीनानाथ
लगा रहे हो घोर फिर
कर्मों में क्यों नाथ
कहा प्रभू ने पार्थ सुनो
ये दो निष्ठाएं जग में हैं
ज्ञान योग व् कर्म योग में
कुछ भी तो भेद नहीं है
कोई भी नर एक क्षण भी तो
नहीं कर्म किये बिना रह सकता है
यदि तन से नहीं तो मन से ही
वह कर्म का चिंतन करता है
इसलिए कर्म को त्यागना
संभव नहीं है पार्थ
हर क्षण में है कर्म का
नर जीवन में साथ
हठ पूर्वक रोक जो इन्द्रियों को
जो कर्म का चिंतन करता है
ऐसा नर निश्चय ही अर्जुन
मिथ्याचारी कहलाता है
इन्द्रियों को जो वश में रख के
आसक्ति रहित हो कर्म करे
वही श्रेष्ठ पुरुष कहलाता है
जो शास्त्र विहित कर्तव्य करे
कर्तव्य कर्म का करना ही
सब भांति मनुज के हित में है
निष्काम कर्म करने से ही
कल्याण जीव का होता है
जो शास्त्र विहित हैं कर्म सभी
वे यज्ञ स्वरुप हो जाते हैं
फिर अनासक्त हो जाने से
बंधन भी सब छुट जाते हैं
प्रभु अर्पण यदि तुम कर्म करो
सब इच्छित फल पा जाओगे
आसक्ति भाव से कर्म किया
तो बंधन में बंध जाओगे
इसलिए निरंतर हे अर्जुन
आसक्ति रहित तू कर्म करे
दो लोक बनेगे तब तेरे
किंचित फल की आशा न करे
आरभ सृष्टि के ब्रह्मा ने
है प्रजा की रचना यज्ञ से की
तुम अनासक्त हो कर्म करो
निज प्रजा को भी यह आज्ञा दी
हे पार्थ सुनो सम्पूर्ण जीव की
उत्पत्ति अन्न से होती है
अरु अन्न की उत्पत्ति वर्षा से
वर्षा कर्म यज्ञ से होती है
जीवन उसका ही धनी की जो
प्रभु हित कर्तव्य कर्म करता
जो स्वार्थ युक्त हो कर्म करे
वो पाप अन्न ही खाता है
जनकादिक सभी ज्ञानियों ने
आसक्ति रहित ही कर्म किये
फिर लोक कल्याण को पा कर के
है अंत मोक्ष को प्राप्त किये
त्रैलोक्य में भी मुझको अर्जुन
कुछ भी कर्तव्य है शेष नहीं
परलोक हितार्थ सदा ही तो
कर्तव्य कर्म से दूर नहीं
परवश स्वाभाव से हो प्राणी
कर्मों को करता रहता है
” मैं करता हूँ ” अपने में
भावना यह धारण करता है
यह ही बंधन का कारण है
इससे ही दुःख उठाते हैं
इस गुण विभाग के तत्वों को
ज्ञानी जन खूब जानते हैं
कामना रहित कर्मों द्वारा
आचरण शुद्ध हो जाएगा
बस अनासक्त हो जाने से
बंधन भी सब छुट जाएगा
इस काम रूप बैरी का ही
हे अर्जुन प्रथम विनाश करो
जो सर्वशक्ति आत्मा तेरी
उस पर अटल विशवास करो ||
लेखक परिचय : श्रीमती एम डी त्रिपाठी , हिंदी की व्याख्याता रहने के बाद प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों की सेवा में पूर्ण रूप से लग गयी | उन्होंने श्री कृष्ण भक्ति पर अनेकों पुस्तके लिखी है | प्रस्तुत रचना संक्षिप्त गीतामृतम से है |हम श्रीमती त्रिपाठी जी का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं |
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