रंगनाथ द्विवेदी।
जौनपुर (उत्तर-प्रदेश)।
जब बेचैन कर देता है————
मेरे अंदर का मरुस्थल मुझको,
तब मै लिखने बैठता हूँ कोई गीत।
जब————
शब्द के होंठ पे चुभती है कोई नागफनी,
तब मै लिखने बैठता हूँ कोई गीत।
जब पथ की रेत पे———–
चलता जाता हूँ दूर पथिक सा
और फूट जाते है पाँव के छाले,
तब मै लिखने बैठता हूँ कोई गीत।
जब————
बहुत सन्नाटा मेरे भीतर का,
उधेड़ता है मुझको———
तब मै लिखने बैठता हूँ कोई गीत।
बोता हूँ रेत पे कुछ शब्द,
पर कटिले वृक्ष के विरवे ही पनपते है,
उन्ही वृक्षो की————
खरोंच जब आ जाती है बन के पीर,
तब मै लिखता हूँ कोई गीत।
अच्छा प्रयास किया है आपने ।
धन्यवाद