डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
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हमारी संस्कृति ऐसी है कि इसमें हर पल, हर समय हम अपने माँ, पिता, गुरुओं, मित्रों को अपने साथ लेकर चलते है। इनसे मिली शिक्षाएँ, सबक जीवन भर हमारे मार्ग को आलोकित करते हैं, प्रशस्त करते हैं, कठिन घड़ी में संबल बनते हैं तो ये जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं।
प्रथम गुरु माँ और पिता से शुरू हुई सीखने की यह यात्रा आज भी अनवरत चल रही है। माँ-पिता से मिली सीख, सबक, शिक्षाएँ कभी खोती नहीं। भूलना भी चाहें तो भी भूलती नहीं। उनका वास्तविक अर्थ तब समझ में आता है जब हम स्वयं माता-पिता बन कर उन स्थितियों से दो-चार होते है।
मेरे माता-पिता ऐसे शिक्षक थे जो जीवन भर विद्यार्थी बने रहे। जो भी चीज सामने आए..उसे सीखने के लिए बच्चों जैसी ललक उनमें रहती। और सीख कर ही वे दम लेते थे। वे हमेशा कहते…जो सीख सको..सीखते जाओ। जीवन में कब कौन सी सीखी हुई चीज काम आ जाए… क्या पता! आत्मनिर्भर बनने की ओर यह पहला कदम है, इसलिए सीखने में संकोच मन करो। पर ये बात तब उतनी समझ नही आ पाती थी।
मेरी माँ मुझे सिलाई सिखाना चाहती थी। उन्होंने सिलाई में एक वर्ष का प्रशिक्षण भी लिया था। मेरी रुचि सिलने में नहीं थी। उन्होनें सोचा.. कि मुझसे तो ये सीखेगी नहीं तो उन्होंने स्कूल की छुट्टियों में एक महीना मेरी रुचि परखने के लिए भेजा, लेकिन मैं एक सप्ताह के बाद वहाँ गई ही नहीं। साइकिल सिखाने की भी बहुत कोशिश की, पर संकोच के मारे मेरी गाड़ी आगे चल ही नहीं पाई। आज जब छोटे-छोटे काम के लिए टेलर के पास भागना पड़ता है, कहीं जाने के के लिए पति, और बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता है, तब उनका कहा बहुत याद आता है। इसी कारण बेटी को साइकिल और कार चलानी सिखाई।
आज वह आत्मनिर्भर है। मुझे भी जरूरत पड़ने पर लेकर जाती है और पति की अनुपस्थिति में अपने ससुराल में भी अपनी दादी सास, सास ससुर जो को लेकर सब काम करवा लाती है तो देख कर संतोष होता है। उसके नाना-नानी भी अपनी दूसरी दुनिया से देख कर बहुत प्रसन्न होते होंगे कि जो बेटी की कमी को नातिन ने अपने में नहीं रहने दिया।
आज मुझे आठवीं कक्षा में पढ़ने के समय के अंग्रेजी के शिक्षक पांडे सर की बहुत याद आ रही है। वे सप्ताह के अंतिम दिन शनिवार के पीरियड में लिखाई अच्छी कैसे हो…इस बारे में बता कर, फिर उस पर अभ्यास करवाया करते थे। उनका कहना होता था कि जब लिखना आरंभ करो तो अक्षर अलग-अलग पैन उठा कर मत लिखो, बल्कि लिखना आरंभ करो और शब्द पूरा होने पर पैन उठाओ और तब दूसरा शब्द लिखो। पहले-पहले बहुत असंभव लगा। लेकिन शनिवार में उनके इस पीरियड की बहुत प्रतीक्षा रहती। कब वे कहेंगे कि अब तुम ऐसा लिखने में पारंगत हो गई…. इसके लिए मैं घर में भी अभ्यास करती रहती थी। कक्षा में कॉपी देखते समय जब वे लाल निशान लगाते कि यहाँ पैन बीच में ही उठा दिया…तो यह देख कर प्रसन्नता भी बहुत होती कि मेरी कॉपी में सबसे कम लाल निशान लगते थे। जिस दिन कॉपी में लाल निशान नहीं लगा और उन्होंने मुझे कहा कि अब तुम पारंगत हो गई हो तो उनका वो कहना मेरे लिए किसी मैडल मिलने से कम नहीं था। कक्षा में जैसा लिखना पांडे सर सिखाना चाहते थे…वैसा जल्दी से जल्दी सीख कर पारंगत होने वाली कक्षा की मैं सबसे पहली विद्यार्थी थी। आज जब सब मेरी अंग्रेजी और हिंदी की लिखावट की बहुत प्रशंसा करते हैं तो इसमें सर्वाधिक योगदान पांडे सर का ही है जिन्होंने सिखा-बता कर अभ्यास पर शिक्षक होने के साथ विद्यार्थी बने रह भी सिखाने में रुचि ली थी।
कॉलेज में जब पहुँची तो उस समय की प्रसिद्ध कहानीकार, उपन्यासकार शशिप्रभा शास्त्री महादेवी कन्या पाठशाला डिग्री कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष थी।
साहित्य प्रेम पापा से मिला था और वे ही मेरे साहित्यिक गुरु भी थे। तो शशिप्रभा शास्त्री जी लेखिका है, वे हमें पढ़ाएंगी भी, दिखने में कैसी होंगी…आदि-आदि जानने की बहुत ही उत्सुकता थी। उनकी लिखी रचनाएँ ढूँढ-ढूँढ कर पढ़ डाली थी। वे जब पढ़ाती तो मैं मनोयोग से सुनती।
गर्व भी होता था कि एक बड़ी लेखिका से पढ़ने का अवसर मुझे मिल रहा है। पारिवारिक उपन्यास, कहानियाँ पढ़ने की ओर रुचि उन्होंने ही मुझमें जगाई। देहरादून के रचनाकारों में मैंने उन्हें ही सबसे ज्यादा पढ़ा।
और अब साहित्य के संसार से, जिसमें प्रवेश पापा के ही कारण हो पाया था, नाता इतना दृढ़ हो गया है कि चाह कर भी टूट नही पाता।
सोशल मीडिया ने फ़ेसबुक का मंच प्रदान किया… जिसके कारण बहुत से मित्रों का संसार बना। इसमें विभा रानी श्रीवास्तव, जितेंद्र कमल आनंद जी और वंदना वाजपेयी जी मित्र बने….पर कब प्रेरणा गुरु बन गए पता ही नहीं चला। विभा रानी श्रीवास्तव जी के सम्पर्क-सानिध्य से वर्ण पिरामिड जैसी विधा से परिचित हुई, हाइकू, लघुकथा लेखन में गतिशील हुई और इस तरह वे मेरी गुरु संगी बनीं। वंदना वाजपेयी जी…जिनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन ने मुझमें नई ऊर्जा का संचार किया, आत्मविश्वास प्रदान किया। रचनाओं पर मिलने वाले इनके कमेंट्स निरंतर और अच्छा करने की ओर मुझे प्रेरित करते हैं…. इस तरह वंदना जी मेरी प्रेरणा-प्रोत्साहन गुरु बन कर मेरे जीवन में शामिल हुई।
इसी फ़ेसबुक के संसार में अपने पापा के बाद आध्यात्मिक साहित्य गुरु के रूप में, मार्गदर्शक के रूप में मुझे जितेंद्र कमल आनंद गुरु जी मिले। जिनसे रचनाओं में सुधार भी प्राप्त होता है, विभिन्न काव्य विधाओं की जानकारी भी प्राप्त होती है और आध्यात्मिक संसार से भी परिचित होते चलते हैं।
जीवन में मिलने वाली ठोकरें, धोखे, ठगी..इन सब ने भी कोई न कोई सबक सिखाया ही है। उन मिले सबको ने भी व्यक्तित्व को निखारने के काम किया ही है।
आज दिवस परंपरा के कारण अपने इन सब गुरुओं को स्मरण करते हुए मुझे पावन गंगा में स्नान करने जैसी अनुभूति हो रही है। नमन मेरे इन सभी ज्ञात और अज्ञात गुरुओं को भी…जिन्होंने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में मुझे गढ़ने का काम किया है।
बहुत सुन्दर तरीकों से तथ्य सामने रखते हुए शिक्षक की महत्ता लेख के माध्यम से प्रदर्शित की है ।अत्यंत सुंदर लेख ।