घुटन से संघर्ष की ओर



पंकज ‘प्रखर 
सरला अब उठ खड़ी हुई थी ये
विवाह उसके माता-पिता और गर्वित के माता-पिता की ख़ुशी से हुआ था| लेकिन न जाने
क्यों गर्वित उससे दुरी बनाये रखता था न जाने उसे स्त्री में किस सौन्दर्य की तलाश
थी ये सोचकर उसके माथे पर दुःख की लकीरें उभर आई | पति का उसके प्रति यह व्यवहार
,
ताने, व्यंग्य,
कटूक्तियों की मर्मपीड़क बौछार सुनते- सुनते उसका अस्तित्व
छलनी हो गया था।

यदि उसके पास वासनाओं को भड़काने वाली रूप राशि नहीं हैं,
तो इसमें उसका क्या दोष है? गुणों के अभिवर्द्धन में तो वह बचपन से प्रयत्नशील रही है।
बेचैनी से उसके कदम कमरे की दीवारों का फासला तय करने लगे।



आज निर्णय की घड़ी है।
निर्णय की घड़ी क्या-निर्णय हो चुका। पति साफ कह चुके
,
मैं तुमको अपने साथ नहीं रख
सकता।
उनकी दृष्टि ने शरीर के
अलावा और कुछ कहाँ देखा
? यदि देख पाते तो …
काश…..! बेचैनीपूर्वक टहलते-टहलते पलंग पर बैठ गयी। अचानक उसने घड़ी की ओर देखा
,
शाम के 5-15 हो चुके। अब तो वे आने वाले होंगे।


तभी
दरवाजे पर बूटों की खड़खड़ाहट सुनाई दी। शायद…….मन में कुछ कौंधा। अपने को
स्वस्थ-सामान्य दिखाने की कोशिश करने लगी। थोड़ी देर में सूटेड-बूटेड
, ऊँचे, गठीले
शरीर के एक नवयुवक ने प्रवेश किया। उसके मुखमण्डल पर पुरुष होने का गर्व था। एक
उचटती-सी नजर उस पर डालकर वह कुर्सी पर बैठा व प्रश्न दाग बैठा-
हाँ तो क्या फैसला किया तुमने?

घुटन
या संघर्ष में से वह पहले ही संघर्ष चुन चुकी थी। पति का निर्णय अटल था
, अतः
उसने बन्धनों से मुक्ति पा ली|


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2 thoughts on “घुटन से संघर्ष की ओर”

  1. अपनी राह आसन कर ली … पर ऐसा क्यों है समाज … ये प्रश्न भी तो बड़ा है जिसका उत्तर जरूरी है …

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