गुरु नहीं बहुरूपिये करते हैं संत परंपरा को बदनाम
कभी-कभी मनुष्य की परिस्थितियाँ इतनी विपरीत हो जाती हैं कि आदमी का दिमाग काम करना बंद कर देता है और वह खूद को असहाय सा महसूस करने लगता है ! ऐसे में उसे कुछ नहीं सूझता ! निराशा और हताशा के कारण उसका मन मस्तिष्क नकारात्मक उर्जा से भर जाता है! ऐसे में यदि किसी के द्वारा भी उसे कहीं छोटी सी भी उम्मीद की किरण नज़र आती है तो वह उसे ईश्वर का भेजा हुआ दूत या फिर ईश्वर ही मान बैठता है ! ऐसी ही परिस्थितियों का फायदा उठाया करते हैं साधु का चोला पहने ठग और उनके चेले ! वे मनुष्य की मनोदशा को अच्छी तरह से पढ़ लेते हैं और ऐसे लोगों को अपनी मायाजाल में फांसने में कामयाब हो जाते हैं ! ये बहुरूपिये हमारी पुरातन काल से चली आ रही संत समाज को बदनाम कर रहे हैं !
संत हमेशा से ही सुख सुविधाओं का स्वयं त्यागकर योगी का जीवन जीते हुए मानव कल्याण हेतु कार्य करते आये हैं! माता सीता भी वन में ऋषि के ही आश्रम में पुत्री रूप में रही थीं ! आज भी कुछ संत निश्चित ही संत हैं लेकिन ये बहुरूपिये लोगों की आस्था के साथ इतना खिलवाड़ कर रहे हैं कि अब तो किसी पर भी विश्वास करना कठिन हो गया है !
गुरु पर मेरा निजी अनुभव
आज से करीब उन्तीस वर्ष पूर्व मुझे भी एक संत मिले जो झारखंड राज्य , जिला – साहिबगंज, बरहरवा में पड़ोसी के यहाँ आये हुए थे! मुझे तब भी साधु संत ढोंगी ही लगते थे इसीलिए मैं उनसे पूछ बैठी..
बाबा किस्मत का लिखा तो कोई टाल नहीं सकता फिर आप क्या कर सकते हैं ? तो गुरू जी ने बड़े ही सहजता से कहा कि भगवान राम ने भी शक्ति की उपासना की थी…
जैसे तुमने दिया में घी तो भरपूर डाला है लेकिन आँधी चलने पर दिया बुझ जाता है यदि उसका उपाय न किया जाये तो ! जीवन के दिये को भी आँधियों से बचा सकतीं हैं ईश्वरीय शक्तियाँ! फिर मैंने पूछा कि हर माता पिता की इच्छा होती है कि अपने बच्चों की शादी विवाह करें आप अपने माता-पिता का तो दिल अवश्य ही दुखाए होंगे न इसके अतिरिक्त साधु बनना तो एक तरह से अपने सांसारिक कर्तव्यों से पलायन करना ही हुआ न!
इसपर उन्होंने बस इतना ही कहा कि मेरी माँ सौतेली थी!
इस प्रकार का कितने ही सवाल मैनें दागे और गुरू जी ने बहुत ही सहजता से उत्तर दिया!
सच्चे गुरु भौतिक सुखों से दूर रहते हैं
गुरू जी खुद कोलकाता युनिवर्सिटी में इंग्लिश के हेड आफ डिपार्टमेंट रह चुके थे लेकिन साधु संतों की संगति में आकर उनसे प्रभावित हुए और भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग कर योगी का जीवन अपना लिये थे!
कभी-कभी गुरु आश्रम के महोत्सव में हम सभी गुरु भाई बहन सपरिवार पहुंचते थे जहाँ हमें एक परिवार की तरह ही लगता था! सभी को जमीन पर दरी बिछाकर एक साथ खाना लगता था ! गुरु जी भी सभी के साथ ही खाते थे ! बल्कि कभी-कभी तो सभी के थाली में कुछ कुछ परोस भी दिया करते थे! वे स्वयं को भगवान का चाकर ( सेवक ) कहते थे खुद को भगवान कहकर कभी अपनी पूजा नहीं करवाई ! बल्कि कोई बीमार यदि अपनी व्यथा कहता तो उसे डाॅक्टर से ही मिलने की सलाह दिया करते थे!
तब उनका आश्रम बंगाल के साइथिया जिले में एक कुटिया ही था जिसे कुछ अमीर गुरु भाई बहन खुद बनवाने के लिए कहते थे लेकिन गुरु जी मना कर दिया करते थे! बल्कि गरीब गुरु भाई बहनों के बेटे बेटियों की शादी में यथाशक्ति मदद करवा दिया करते थे हम सभी से ! अब तो गुरू जी की स्मृति शेष ही बच गई है!
गुरु कीजे जान कर
लिखने का तात्पर्य सिर्फ़ इतना है कि किसी एक के खराब हो जाने से उसकी पूरी प्रजाति तथा विरादरी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता !आवश्यकता है अपने दिमाग को प्रयोग करने की , सच और झूठ और पाप पुण्य की परिभाषा समझने की , स्वयं को दृढ़ करने की !
कोई मनुष्य यदि स्वयं को ईश्वर कह रहा है तो वह ठगी कर रहा है! हर मानव में ईश्वरीय शक्तियाँ विराजमान हैं आवश्यकता है स्वयं से साक्षात्कार की!
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