रचयिता—-रंगनाथ द्विवेदी।
जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)
तुम भी अब स्वर्ण-भस्म और शीलाजीत सी——-
कोई दवाई खाओ—राधे माँ।
बर्दाश्त नही हो रहा आशाराम और राम-रहिम से,
स्याह कोठरी का खालीपन,
किसी बगल की बैरक मे कैसे भी हो——-
तुम आ जाओ–राधे माँ।
स्त्री-गामी संसर्गो का स्वर्ग छिना,
नरक हो गया जीवन,
इस जीवन की रति-सुंदरी कि काया का——
कुछ तो दरस कराओ–राधे माँ।
हम बाबाओ के अच्छे दिन चले गये,
मालिश,काजू ,पिस्ता सब ख्वाब हुआ,
आश्रम मे पोर्न बहुत देखा,
कही नपुंसक न हो जाये हम बाबा,
अपने प्रेम का कुछ दिन ही सही,
तुम आके यहाँ गुजारो–राधे माँ।
सारे आसन कामुकता के फिर से जीवित हो,
तुम भरके हथेली मे अपने थोड़ा सा,
ये जापानी तेल लगाओ–राधे माँ।