जुलाहा हूँ







रंगनाथ द्विवेदी।
जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।



मै पंडित नही————
तेरी मस्जिद का अजा़न,
और तेरी बस्ती का जुलाहा हूँ।
देख लेता हूँ सारे कौमो का खुदा मै,
फिर बुनता हूं एक धागे से मुहब्बत की चादर,
मै कबीर सा हिन्दू —————-
और उसकी मस्ती सा जुलाहा हूँ।


मुझे नापसंद है धुआँ अलग-अलग,
मुझे नापसंद है कुआँ अलग-अलग,
मुफ़लिस और रईस सब छके पानी,
आचमन और वज़ू सब एक से ही है,
ये सर जहां झुके———
मै उस मिट्टी का जुलाहा हूँ।
हर मासूम हँसे खेले एक हो आँगन,
ना समझ सके वे राम और जुम्मन,
जिस गोद खुश हो जाये वे मासूम सी बच्ची,
एै “रंग” मै———-
एैसी हर उस बच्ची का जुलाहा हूँ।




2 thoughts on “जुलाहा हूँ”

  1. ये सर जहाँ झुके … सच है उसी मिटटी उसी समाज उसी पल का जुलाहा होना ही मनुष्य होना है … धर्म जात से परे …
    बहुत ही उत्कृष्ट रचना …

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