भारतीय नारी का प्रेम
बड़ा विचित्र है भारतीय नारी का प्रेम
वह विदेशियों की तरह
चोबीसों घंटे करती नहीं है
आई लव यू –आई लव यू का उद्घोष
बल्कि
गूथ कर खिला देती है प्रेम
आटे की लोइयों में
कभी तुम्हारे कपड़ों में
नील की तरह छिड़क देती है
कभी खाने की मेज पर इंतज़ार करते हुए
दो बूँद आँखों से निकाल कर
परोस देती है खाली कटोरियों में
कभी बुखार में
गीली पट्टियाँ बन कर
बिछ –बिछ जाती है
तुम्हारे माथे पर
जानती है वो की मात्र क्षणिक उन्माद नहीं है प्रेम
जो ज्वार की तरह चढ़े और भाटे की तरह उतर जाये
और पीछे छोड़ जाये रेत
ही रेत
ही रेत
और मरी हुई मछलियां
हां उसका प्रेम
ठहराव है गंगा –जमुना के दोआब सा
जहाँ लहराती है
संस्कृति की फसलें
समर्पण
बचपन
में
में
स्मरण
नहीं कब ………….
नहीं कब ………….
जब
अम्मा ने
अम्मा ने
बताया
था शिवोपासना का महत्त्व
था शिवोपासना का महत्त्व
कि शिव
-पार्वती सा होता है
-पार्वती सा होता है
पति
-पत्नी का बंधन
-पत्नी का बंधन
और मेरे
केश गूँथते हुए
केश गूँथते हुए
बाँध
दिया था मेरा मन
दिया था मेरा मन
तुम्हारे
लिए
लिए
तब
अनदेखे -अनजाने ही
अनदेखे -अनजाने ही
तुम
लगने लगे थे
लगने लगे थे
चिर
-परिचित
-परिचित
और
तभी से
तभी से
शुरू
हो गया था
हो गया था
मेरा
समर्पण
समर्पण
तुम्हारे
लिए
लिए
जब
तुम थे अलमस्त
तुम थे अलमस्त
गुल्ली
-डंडा खेलने में
-डंडा खेलने में
तब
नंगे पाँव
नंगे पाँव
शुरू
हो गयी थी मेरी यात्रा
हो गयी थी मेरी यात्रा
शिवाले
की तरफ
की तरफ
तुम्हारे
लिए
लिए
जब
तुम किशोरावस्था में
तुम किशोरावस्था में
मित्रों
के साथ
के साथ
गली
चौराहे नुक्कड़
पर
चौराहे नुक्कड़
पर
आनंद
ले रहे थे जीवन का
ले रहे थे जीवन का
मैं
जला रही थी
जला रही थी
नन्हा
सा दिया
सा दिया
तुलसी
के नीचे
के नीचे
तुम्हारे
लिए
लिए
जब
तुम सफलता के हिमालय पर
तुम सफलता के हिमालय पर
चढ़ने
के लिए
के लिए
लगा
रहे थे
रहे थे
ऐड़ी
-चोटी का जोर
-चोटी का जोर
मैंने
शुरू कर दिए थे
शुरू कर दिए थे
सोलह
सोमवार के व्रत
सोमवार के व्रत
तुम्हारे
लिए
लिए
वर्षों
अनदेखा -अंजाना
अनदेखा -अंजाना
रिश्ता
निभाने के बाद
निभाने के बाद
जब
अग्नि को साक्षी मान मंत्रोच्चार के साथ
अग्नि को साक्षी मान मंत्रोच्चार के साथ
किया
था तुम्हारे जीवन में प्रवेश
था तुम्हारे जीवन में प्रवेश
तब
से
से
पायलों
की छन -छन से
की छन -छन से
चूड़ी
की खन -खन से
की खन -खन से
माथे
की बिंदियाँ से
की बिंदियाँ से
हाथों
की मेहँदी से
की मेहँदी से
सुर
और रंग में ढलती ही रही हूँ
और रंग में ढलती ही रही हूँ
तुम्हारे
लिए
लिए
जब
-जब सूखने लगा तुम्हारा जीवन
-जब सूखने लगा तुम्हारा जीवन
शोक
और दर्द की ऊष्मा से
और दर्द की ऊष्मा से
तो
भरने को दरारे
भरने को दरारे
सावन
की बदली बन बरसी हूँ
की बदली बन बरसी हूँ
तुम्हारे
लिए
लिए
पर
क्यों यह प्रश्न
क्यों यह प्रश्न
कौंधता
है
है
बिजली
सम मन में
सम मन में
अब
बता भी दो ना
बता भी दो ना
क्या
बचपन से लेकर आज तक
बचपन से लेकर आज तक
तुम्हारे
मन में भी रहा है
मन में भी रहा है
वैसा
ही समर्पण
ही समर्पण
मेरे
लिए.………………
लिए.………………
लाल गुलाब
आज यूं ही प्रेम का
उत्सव मनाते
लोगों में
लाल गुलाबों के
आदान-प्रदान के बीच
मैं गिन रही हूँ
वो हज़ारों अदृश्य
लाल गुलाब
जो तुमने मुझे दिए
उत्सव मनाते
लोगों में
लाल गुलाबों के
आदान-प्रदान के बीच
मैं गिन रही हूँ
वो हज़ारों अदृश्य
लाल गुलाब
जो तुमने मुझे दिए
तब जब मेरे बीमार पड़ने पर
मुझे आराम करने की
हिदायत देकर
रसोई में आंटे की
लोइयों से जूझते हुए
रोटी जैसा कुछ बनाने की
असफल कोशिश करते हो
मुझे आराम करने की
हिदायत देकर
रसोई में आंटे की
लोइयों से जूझते हुए
रोटी जैसा कुछ बनाने की
असफल कोशिश करते हो
तब जब मेरी किसी व्यथा को
दूर ना कर पाने की
विवशता में
अपनी डबडबाई आँखों को
गड़ा देते हो
अखबार के पन्नो में
दूर ना कर पाने की
विवशता में
अपनी डबडबाई आँखों को
गड़ा देते हो
अखबार के पन्नो में
तब जब तुम
“मेरा-परिवार ” और “तुम्हारा-परिवार”
के स्थान पर
हमेशा कहते हो “हमारा-परिवार”
“मेरा-परिवार ” और “तुम्हारा-परिवार”
के स्थान पर
हमेशा कहते हो “हमारा-परिवार”
और सबसे ज़यादा
जब तुम झेल जाते हो
मेरी नाराज़गी भी
और मुस्कुरा कर कहते हो
“आज ज़यादा थक गई हैं मेरी मैडम क्यूरी “
जब तुम झेल जाते हो
मेरी नाराज़गी भी
और मुस्कुरा कर कहते हो
“आज ज़यादा थक गई हैं मेरी मैडम क्यूरी “
नहीं , मुझे कभी नहीं चाहिए
डाली से टूटा लाल गुलाब
क्योंकि मेरा
लाल गुलाब सुरक्षित है
तुम्हारे हिर्दय में
तो ताज़ा होता रहता है
हर धड़कन के साथ।
डाली से टूटा लाल गुलाब
क्योंकि मेरा
लाल गुलाब सुरक्षित है
तुम्हारे हिर्दय में
तो ताज़ा होता रहता है
हर धड़कन के साथ।
“प्रेम कविता “
मैं लिखना चाहती थी
प्रेम कविता
पर लिख ही नहीं पायी
ढालना चाहती थी ,उस गहराई को
पर शब्द कम पड़ गए
उकेरना चाहती थी ,उस गम्भीरता को
पर वाक्य अधूरे छूट गए
प्रेम कविता
पर लिख ही नहीं पायी
ढालना चाहती थी ,उस गहराई को
पर शब्द कम पड़ गए
उकेरना चाहती थी ,उस गम्भीरता को
पर वाक्य अधूरे छूट गए
नहीं व्यक्त कर पायी
अपने मन के वो भाव
जब तुम्हारे साथ
खाना खाने की प्रतीक्षा में
दिन -दिन भर भूखी बैठी रही
अपने मन के वो भाव
जब तुम्हारे साथ
खाना खाने की प्रतीक्षा में
दिन -दिन भर भूखी बैठी रही
जब तुम्हारी मन पसंद
डिश बनाने के लिए
सुबह से ले कर रात तक
हल्दी और तेल लगी साडी में
नहीं सुध रही
अपने बाल सवाँरने की
डिश बनाने के लिए
सुबह से ले कर रात तक
हल्दी और तेल लगी साडी में
नहीं सुध रही
अपने बाल सवाँरने की
जब तुम्हारे घर देर से आने पर
और फोन न उठाने पर
चिंता और फ़िक्र में
डबडबाई आँखों से तुम्हारी कुशलता हेतु
मान लेती हूँ निर्जला व्रत
और फोन न उठाने पर
चिंता और फ़िक्र में
डबडबाई आँखों से तुम्हारी कुशलता हेतु
मान लेती हूँ निर्जला व्रत
जब तुम्हारी गृहस्थी के
कुशल संचालन में
घडी की सुइयों के मानिंद
बिना उफ़ किये ,चलती रहती हूँ
चौबीसों घंटे ,बारहों महीने
अनवरत -लगातार
कुशल संचालन में
घडी की सुइयों के मानिंद
बिना उफ़ किये ,चलती रहती हूँ
चौबीसों घंटे ,बारहों महीने
अनवरत -लगातार
मुझे मॉफ करना
सुबह से शाम तक न जाने
कितनी प्रेम कवितायेँ लिखती हूँ मैं
जो तैरती है हमारे बीच हवा में
बजता है जिनका संगीत
घर के कोने -कोने में
पर नहीं पहना पाती
उन्हें शब्दों के वस्त्र
क्योंकि मेरा प्रेम
सदा से था ,है और रहेगा
मौन ,अपरिभाषित और अव्यक्त
सुबह से शाम तक न जाने
कितनी प्रेम कवितायेँ लिखती हूँ मैं
जो तैरती है हमारे बीच हवा में
बजता है जिनका संगीत
घर के कोने -कोने में
पर नहीं पहना पाती
उन्हें शब्दों के वस्त्र
क्योंकि मेरा प्रेम
सदा से था ,है और रहेगा
मौन ,अपरिभाषित और अव्यक्त
“लाल से लाल तक “
विदाई की बेला में
आँखों में अश्रु लिए
एक ही जीवन में दो जन्मों के
मध्य का पुल पार कर जब लाल जोड़े में
प्रवेश किया था तुम्हारे घर में
तब से
अपनी लाल बिंदियाँ पर
सजाया है परिवार का मान
लाल चूड़ियों की धुरी पर रख कलाई
निभाएं है असंख्य कर्तव्य
पैरों में लगी लाल महावर से
रंगती रही हूँ ,तुम्हारी जिंदगी,
अनंत बार बांधें है मन्नत के लाल धागे
तुम्हारी छोटी -छोटी ख़ुशी के लिए
पर जब भी जुड़े हैं
यह दो हाँथ अपने लिए
माँगा है ,बस इतना ही
की विदाई की बेला में
जब पार करू
दो जन्मों के मध्य का पुल
तब तुम आँखों में
दो बूँद प्रेम के अश्रु लेकर
भर देना मेरी मांग पुनः
लाल सिन्दूर से
ऊपर से नीचे तक
और
पूरा हो जाये मेरा
“लाल से लाल “तक का सफर
वंदना बाजपेयी
आँखों में अश्रु लिए
एक ही जीवन में दो जन्मों के
मध्य का पुल पार कर जब लाल जोड़े में
प्रवेश किया था तुम्हारे घर में
तब से
अपनी लाल बिंदियाँ पर
सजाया है परिवार का मान
लाल चूड़ियों की धुरी पर रख कलाई
निभाएं है असंख्य कर्तव्य
पैरों में लगी लाल महावर से
रंगती रही हूँ ,तुम्हारी जिंदगी,
अनंत बार बांधें है मन्नत के लाल धागे
तुम्हारी छोटी -छोटी ख़ुशी के लिए
पर जब भी जुड़े हैं
यह दो हाँथ अपने लिए
माँगा है ,बस इतना ही
की विदाई की बेला में
जब पार करू
दो जन्मों के मध्य का पुल
तब तुम आँखों में
दो बूँद प्रेम के अश्रु लेकर
भर देना मेरी मांग पुनः
लाल सिन्दूर से
ऊपर से नीचे तक
और
पूरा हो जाये मेरा
“लाल से लाल “तक का सफर
वंदना बाजपेयी
बहुत बहुत सुंदर कविताएँ वंदना जी👌
धन्यवाद स्वेता जी
कविताएँ मन को छू गयी वंदना जी | बहुत ही सुन्दर रचनाए | धन्यवाद |
धन्यवाद बबिता जी
सुंदर कवितायें
धन्यवाद
बेहतरीन….मानो किसी ने अनुभवों को शब्द दे दिए हों!
धन्यवाद
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" आज सोमवार 18 दिसम्बर 2017 को साझा की गई है……………… http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा….धन्यवाद!
हार्दिक शुक्रिया यशोदा जी
बहुत सुन्दर रचनाएं
धन्यवाद सुशील जी
लाजवाब कविताएँ…..
धन्यवाद सुधा जी
सुन्दर रचना
शुक्रिया नीतू जी
अत्यंत सुंदर रचनाएँ, स्त्री मन की सही पहचान लिए हुए…सादर बधाई।
शुक्रिया मीना जी