कहानी — एक दिन की नायिका

एक दिन की नायिका

वो गांव के बाहर  की तरफ टीलों से होते हुए भैरों जी के स्थान पर धोक देने और नए जीवन के लिए उनका आशीर्वाद लेने अपने बींद के पीछे पीछे आगे बढ़ रही थी और साथ ही पूरे दिल से अपने मन के ईश्वर को बार बार धन्यवाद भी दे रही थी .. उस ख़ुशी के लिए, उस अनुभव के लिए….. लाल प्योर जॉर्जट पर गोटा तारी के काम वाला उसका बेस (दुल्हन की पोशाक), ठेठ राजस्थानी स्टाइल में बने आड़, बाजूबंद, हथफूल, राखड़ी, शीशफूल, पाजेब अंगूठियां, लाल गोटे जड़ी जूतियां, और नाक के कांटे में जड़ा हीरा…… उस घडी वो  नायिका थी वहां कीउस गावं की, उन पगडंडियों की, और उन रेत के  टीलों की भी…….. अपने बींद के पीछे पीछे वो  बिलकुल वैसे चल रही थी जैसे गावं में लाल जोड़े में,घूंघट में किसी नै नवीली बींदणी को चलना चाहिए था….. वो बेहद सहजता से शर्म को ओढ़ कर धीमे धीमे कदम भर रही थी…….. लहंगे की लावन में कुछ कांटे लग गए थे जो कभी कभी पैरों को छू जाते थे पर उनसे कोई दर्द हुआ हो ऐसा उसे  याद नहीं…. ब्याह के चार दिन पहले छीदाये नाक में कोई टीस उठी हो यह भी उसे पता नहीं……. वो तो खोई थी…. चल भी रही थी तो जैसे सपनो में हो, सपने आनेवाले दिनों के, सपने आने वाली रातों के, ……… लम्बे चौड़े अपने मुटियार को एक नज़र उठा के देख लेती फिर डर जाती की कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया…. कितने लोग थे वहां…. कितनो की नज़रों के नीचे थी नै बींदणी अपने बींद को देखने की बेशर्मी कैसे करती उनके बीच …. फिर से वो अपना ध्यान उस दिन को पूरा पूरा जीने पर ले आई…… ढोली ढोल बजा रहा था और बीरम कभी गोरबन्ध कभी चिरमी और कभी मूमल गा रहा था…. और वो पग भर रही थी टीलों पर बिलकुल नखराली मूमल की तरह ……. वो नायिका थी उस दिन की…. आगे आगे उसका बींद…. पीछे पीछे सपनो से भरी सपनों सी सुन्दर सजी धजी बींदणी….
जैसे जैसे वो आगे बढ़ रहे थे, और लोग साथ हो लेते थेगावं में ब्याह एक बहुत चहल पहल की घटना होती है…. बुलाये बिन बुलाये सब शामिल होते हैं ….. नै बींदणी होती है उन सब की बातों का केंद्र…….. घर परिवार की औरतें तो थी ही …….. जेठानियों ने नई बींदणी को दोनों और से संभाल रखा थाकहीं नए नए कपड़ों और घूंघट में उलझ कर बींदणी गिर जाए….. सर्दियों के दिनों में भी जो टीलों पर गर्मी होती है…. उसमे नाजुक सी बींदणी थक जाये ……..छोटी छोटी और जवान होती सब छोरियाँ नयी बींदणी की हर एक चीज़ को बड़े ध्यान से देख रही थीं, और मन ही मन तय कर रहीं थीं की उन्हें अपने ब्याह में क्या क्या बनवाना है…..  लुगाइयाँ सब टाबर टोलियों को लेकर गप्पे मारती, हंसी करती, नए बींद बींदणी को छेड़तीं, साथ साथ चल रहीं थीं  …….. कोई कोई तो ऐसी चुटकी ले लेती की उसका बींद शर्मा के आगे बढ़ जाता और वो अपने लाल ओढने सी लाल हो जाती……और दोनों को शर्माता देखकर सब कहीं कहीं अपनी शादी का दिन याद कर खुद भी शर्माने लगतीं

 पर उस घडी तो उसकी शर्म भी उन सब से कितनी अलग थी …..नयी बींदणी थी वो,  उस दिन की नायिका थी…..

माताजी के स्थान पर धोक देने के बाद परिक्रमा के लिए जैसे ही मढ़ के पीछे पहुंची …….. बींद ने धीरे से पीछे मुड़ कर पूछ लिया था …. तुम ठीक तो हो ……. और वो लजाई सी जवाब देना भी भूल गई थी …… और तब तो बिलकुल सकुचा गई जब जिठानियों ने उस पर भी चुटकी ले ली……. बना  बड़ी देर लगाई आपने परिक्रमा में …. आज मिल जायेगा भाई आपको अपनी बींदणी से बातें करने का मौका ….. दिन ढलने तक थोड़ा इंतज़ार और कर लो सा…….

दिन
ढलने का इंतज़ार? नहीं वो नहीं
चाहती थी की दिन ढले, नहीं चाहती थी की
ढोली का ढोल रुके कभी, बीरम का गीत
थमे कभी, ……. पर दिन को और जीवन को दोनों को ढलने से कब कौन रोक पाया है………. बींदणी बनी आज जो धीमे धीमे पग धर मिटटी के धोरों को लावन में समेटती घर लौट रही हैदेवी देवताओं को धोक कर अपने नए जीवन की शुरुआत कर रही हैयही धोरों की नायिका जाने कब माई, काकी, भाबिसा,
और फिर भाबू बन जाएगीजब और बूढी होगी तो बूजीसा बन जाएगी…….. सुसरो जी की जिस चौखट पर और अपने बींद के जिस गॉव में वो नई बींदणी बनी छनकते पग भर रही है, वहीँ किसी दिन भाबूसा बन टाबरियों
को डराने के काम आएगी, आते जाते लोग वहीँ उन्ही धोरों में कहीं डोकरी राम राम कहकर पास से निकल
जायेंगे…………….






किसी
ऊँचे से टीले से उसने  एक झलक जी भर के अपना ससुराल देखा फिर आँखें बंद कर उन धोरों को, सारंगी की आवाज़
को, ढोल की थाप को, बीरम की राग
को, गोटे तारी की किनरियों को, उन जवान
छोरियों को जिन के जीवन में बींदणी बनना सबसे बड़ा सपना था, उन नाक
टपकते टाबरियों को, अपने साथ चल रही
देवरानीयो जिठानियों को, केसरिया साफा पहने आगे आगे चलते अपने बींद को,
और अपने जीवन में सौभाग्य से आये उस दिन को….. हमेशा हमेशा के लिए अपने मन में संजो लिया………




वो नायिका थी उस एक दिन की 




अपर्णा परवीन कुमार 




लेखिका अपर्णा




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