रधिया सुबह उठ, अपने घर मे, गुनगुनाते हुए, चाय का पानी रख चुकी
थी।तभी उसकी बहन गायत्री ने उसे टोका, क्या बात है, कहे सुबह-सुबह जोर जोर से गाना गा रही है? कोई चक्कर है क्या?
हाँ! है तो, आंख तरेरते हुए रधिया बोली, सबको अपनी तरह समझा है न? और दोनों बहनें
खिलखिला कर हँस दी।
रधिया, गायत्री, निम्न वर्ग की, साधारण शक्ल सूरत की लड़कियां, सांवली अनाकर्षक,पर हंसी शायद हर
चेहरे को खूबसूरत बना देती है।
अब उनका घर वैसा निम्न वर्ग भी नही रह गया था,जैसा गरीबों का घर
होता है।
जबसे रधिया, गायत्री, बड़ी हुई थी, पूनम को मानो दो बाहें मिल गई थी।तीनो ही घरों में खाना बनाने
से लेकर झाड़ू, पोछें और बर्तन का काम करती, और कोठी वालों की कृपा से उनको हर वो समान
मिल चुका था, जो कोठियों में अनावश्यक होता, मसलन, डबल बेड, पुराना फ्रिज, गैस का चूल्हा, सोफे भी।
तीज, त्योहार के अलावा, वर्ष भर मिलने वाले कपड़े,बर्तन और इनाम इकराम
अलग से।मौज में ही गुज़र रही थी सबकी ज़िंदगी।
पूनम का पति रमेसर चाय का ठेला लगाता था,और रात में देसी
दारू पीकर टुन्न पड़ा रहता।
गाली गलौज करता पर तीनो को ही उसकी परवाह न थी।
अगर वो हाथ पैर चलाता, तो तीनों मिलकर उसकी कुटाई कर देती,और वो पुनः रास्ते
पर।
दिन भर तीनों अपने अपने बंगलों में रहती।
रधिया का मन,अपने मालिक,जिनको वो अंकल जी कहती थी,वहां खूब लगता।
अंकल जी लड़कियों की शिक्षा के पक्षधर थे,सो रधिया को निरंतर
पढ़ने को प्रेरित करते रहते।
और उन्ही की प्रेरणा के कारण वो हाई स्कूल और इंटर तृतीय श्रेणी
में पास कर सकी थी।
इस घर मे पहले उसकी मां काम करती थी, तब वो मुश्किल से 3,4 वर्ष की रही होगी।
नाक बहाती ,गंदी सी रधिया। पर बड़े होते होते उसे कोठियों में रहने का सलीका
आ चुका था और कल की गंदी सी रधिया, साफ सुथरी रधिया में बदल चुकी थी।
अंकल जी का एक ही बेटा था। जो मल्टीनेशनल में काम करता था।
रधिया बचपन से ही उसे सुधीर भइया कहती थी। सुधीर की शादी में दौड़ दौड़ कर काम करने
वाली रधिया, प्रिया की भी प्रिय बन चुकी थी।अपने सारे काम वो रधिया के सर डाल निश्चिन्त रहती। क्योंकि वो
भी एक कार्यरत महिला थी और उसका लौटना भी रात में देर से ही होता।बाद में बच्चा होने के बाद उस बच्चे से भी रधिया को अपने बच्चे
की तरह ही प्यार था।
उसे घर मे उसे 15 वर्ष हो चले थे। प्यार उसे इतना मिला था कि अपने घर जाने का मन
ही न करता। सुधीर की आंखों के आगे ही बड़ी हुई थी
रधिया। सो उसे चिढ़ाने से लेकर उसकी चोटी खींच देने से भी वो
परहेज न करता।
रधिया भी भइया भइया कहते हुए सुधीर के आगे-पीछे डोलती रहती।
आज भी रोज की भांति कार का हॉर्न सुन रधिया बाहर भागी। सुधीर के
हाथों ब्रीफ़केस पकड़ वो अंदर चली।
उसे पता था अब सुधीर को अदरक, इलायची वाली चाय चाहिए। जब चाय का कप लेकर
वो सुधीर के कमरे में पहुंची, तो सुधीर टाई की नॉट ढीली कर के आराम कुर्सी पर पसरा था,और उसके हाथों में
था एक ग्लास, जिसमे से वो घूंट
घूंट करके पीता जा रहा था।
रधिया के लिए ये कोई नया दृश्य न था। बगैर कुछ कहे वो पलटी, और थोड़ी ही देर में
दालमोठ और काजू, एक प्लेट में लाकर, सामने की मेज पर रख दिया।
भइया, थोड़े पकौड़े बना दूं?
हाँ बना दे, कह कर सुधीर पूर्ववत पीता रहा।
थोड़ी देर में ही पकौड़ी की प्लेट के साथ पुनः लौटी रधिया, इस बार सुधीर को
टोकती हुई बोली,ठीक है भइया, पर ज्यादा मत पिया करो
वरना भाभी से शिकायत कर दूंगी।
अच्छा??? इस बार सुधीर की आंखों में कौतुक के साथ, होंठों पर मंद स्मित
भी था।
कर देना शिकायत भाभी से— कहते हुए उसने रधिया को अपनी ओर खींच
लिया।
दरवाजा बंद हो चुका था और लाइट ऑफ।
आश्चर्य! रधिया की तरफ से कोई प्रतिवाद न था।
उस दिन के बाद से उसका मन उस कोठी में और लगने लगा था। आखिर
“अछूत” से छुए जाने योग्य जो बन गई थी और ये उसके लिए एक अवर्चनीय सुख
था।
रश्मि सिन्हा
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