आज भले ही महिलाओं ने अपनी एक अलग पृष्ठभूमि तैयार कर ली है ,पर
अभी भी हमारे पुरुष प्रधान समाज मे स्त्रीयों की हालत काफी नाजुक है | समय बदला,युग
बदला और नारी ने भी अपना मुकाम बनाया ,पर
एक सत्य जिसे नकारा नहीं जा सकता वह यह है कि आज भी स्त्री पुरुष के अधीन है | हमारे समाज में जो एक शोर चहुंओर व्याप्त है वो
यह है कि स्त्रीयों की दुनियां में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं | आज स्त्री अपनी मुकाम खुद बना रही है, उसने दहलीज के बाहर अपने कदम पूरी सख्ती से जमा
लिए हैं , उसने अपना आकाश तलाश लिया है ……..बहुत हद तक
यह सही भी है , पर इतना भी नहीं जितना सुनने को मिल रहा है| स्त्री संबंधी कई ऐसे मसले भी हैं जो अभी भी
अनसुलझे ही हैं, जहां तक अभी हम पहुँच ही नहीं पाये हैं |
अभी भी हमारे पुरुष प्रधान समाज मे स्त्रीयों की हालत काफी नाजुक है | समय बदला,युग
बदला और नारी ने भी अपना मुकाम बनाया ,पर
एक सत्य जिसे नकारा नहीं जा सकता वह यह है कि आज भी स्त्री पुरुष के अधीन है | हमारे समाज में जो एक शोर चहुंओर व्याप्त है वो
यह है कि स्त्रीयों की दुनियां में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं | आज स्त्री अपनी मुकाम खुद बना रही है, उसने दहलीज के बाहर अपने कदम पूरी सख्ती से जमा
लिए हैं , उसने अपना आकाश तलाश लिया है ……..बहुत हद तक
यह सही भी है , पर इतना भी नहीं जितना सुनने को मिल रहा है| स्त्री संबंधी कई ऐसे मसले भी हैं जो अभी भी
अनसुलझे ही हैं, जहां तक अभी हम पहुँच ही नहीं पाये हैं |
जरूरी है देखना कामकाजी स्त्रियों की सही तस्वीर
एक सत्य जरूर है कि नब्बे के दशक के बाद सबसे
अधिक चर्चा नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण पर ही हुआ है ,पर बिडंबना यह है कि खुद को सशक्त और सक्षम कहने
वाली स्त्री की अपनी कोई पहचान नहीं है, कोई
पृष्टभूमि नहीं है | दरअसल अभी भी वो ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहां से
उसे कोई साफ और सुदृढ़ छवि नजर नहीं आ रही है | वह
कल्पनाओं और दोहरे द्वंद में फंसी है ,और
आज भी वह एक दिखावटी छवि लेकर समाज के सामने खुद को प्रस्तुत करती है | कहने को तो वह पुरुष के समानांतर खड़ी है,पर नजदीक से देखने के बाद हालात कुछ और ही ब्यान
करते हैं | समाज में अपनी असली भूमिका से अभी भी वह वंचित है
,
समाज में उसकी छवि
शोषिता की ही है , आज भी उसकी गिनती पुरुष के बाद ही होती है | अगर हम ईमानदारी से नजर डालें तो पाएंगे कि
अभी भी स्त्री पुरुषों के अधीन समझी जानेवाली ही एक हँसती-बोलती कठपुतली है | इसलिए बाहर से नकली चमक ओढ़े इन स्त्री के हँसते
चेहरे से बेहतर है हम इनके खामोशी से,जबरदस्ती
के ओढ़े हुए आवरण को हटाकर परदे के पीछे की तस्वीर को भी देखें |
अधिक चर्चा नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण पर ही हुआ है ,पर बिडंबना यह है कि खुद को सशक्त और सक्षम कहने
वाली स्त्री की अपनी कोई पहचान नहीं है, कोई
पृष्टभूमि नहीं है | दरअसल अभी भी वो ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहां से
उसे कोई साफ और सुदृढ़ छवि नजर नहीं आ रही है | वह
कल्पनाओं और दोहरे द्वंद में फंसी है ,और
आज भी वह एक दिखावटी छवि लेकर समाज के सामने खुद को प्रस्तुत करती है | कहने को तो वह पुरुष के समानांतर खड़ी है,पर नजदीक से देखने के बाद हालात कुछ और ही ब्यान
करते हैं | समाज में अपनी असली भूमिका से अभी भी वह वंचित है
,
समाज में उसकी छवि
शोषिता की ही है , आज भी उसकी गिनती पुरुष के बाद ही होती है | अगर हम ईमानदारी से नजर डालें तो पाएंगे कि
अभी भी स्त्री पुरुषों के अधीन समझी जानेवाली ही एक हँसती-बोलती कठपुतली है | इसलिए बाहर से नकली चमक ओढ़े इन स्त्री के हँसते
चेहरे से बेहतर है हम इनके खामोशी से,जबरदस्ती
के ओढ़े हुए आवरण को हटाकर परदे के पीछे की तस्वीर को भी देखें |
दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी महिलाएं
आज भले ही वो नौकरी मे अपने पति के बराबर के
पोस्ट पर है या उससे ज्यादा ऊंचे ओहदे पर है पर घरेलू जिम्मेदारियों से वह बच नहीं
सकती | एक बात जो हमने हमेशा महसूस किया है कि जिस घर
में पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं वहाँ हर दिन एक सा रूटीन होता है | पति-पत्नी में आपसी संवाद बहुत ही कम या जरूरतभर होती है , दोनों
अपने-अपने काम के बोझ तले इस कदर दबे रहते हैं कि जीवन के छोटे -छोटे क्षण जिनसे
मिलकर दाम्पत्य की डोर मजबूत बनती है को दरकिनार कर अपने काम और सिर्फ काम में
मशगूल रहते हैं | उनके हर काम का एक निश्चित टाइम बना है और वे इस
नियम के पक्के पाबंद रहते हैं ,जब दोनों काम से
लौटते हैं तो जहां पत्नी अपनी बिखरी गृहस्थी को सँवारने लग जाती है वहीं पति महोदय
चाय की चुस्कीयों संग टी. वी का आनंद उठाते हैं | किसी
-किसी जगह पर पति भी कुछ मदद कर देता है पर ऐसा उसके मूड पर निर्भर करता वह चाहे
तो काम करे या न करे कोई दबाव नहीं होता है | लेकिन
स्त्री की हालत ठीक इसके विपरीत होती है वह न चाहते हुये भी अपनी उन जिम्मेदारियों
से मुक्त नहीं हो सकती | किचेन में जाना उसकी मजबूरी और जरूरत दोनों हो
जाती है , मान लें अगर वह सहायिका या मेड रख भी ले तो वह तो
घरेलू काम ही करेगी न …….खाना निकालना, बच्चों
के होमवर्क कराना, घर के कई छोटे-मोटे काम जैसे,चाय बनाना ,घर
को व्यवस्थित करना आदि अनगिनत काम ऐसे हैं जो हर महिला को करना ही पड़ता है |
पोस्ट पर है या उससे ज्यादा ऊंचे ओहदे पर है पर घरेलू जिम्मेदारियों से वह बच नहीं
सकती | एक बात जो हमने हमेशा महसूस किया है कि जिस घर
में पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं वहाँ हर दिन एक सा रूटीन होता है | पति-पत्नी में आपसी संवाद बहुत ही कम या जरूरतभर होती है , दोनों
अपने-अपने काम के बोझ तले इस कदर दबे रहते हैं कि जीवन के छोटे -छोटे क्षण जिनसे
मिलकर दाम्पत्य की डोर मजबूत बनती है को दरकिनार कर अपने काम और सिर्फ काम में
मशगूल रहते हैं | उनके हर काम का एक निश्चित टाइम बना है और वे इस
नियम के पक्के पाबंद रहते हैं ,जब दोनों काम से
लौटते हैं तो जहां पत्नी अपनी बिखरी गृहस्थी को सँवारने लग जाती है वहीं पति महोदय
चाय की चुस्कीयों संग टी. वी का आनंद उठाते हैं | किसी
-किसी जगह पर पति भी कुछ मदद कर देता है पर ऐसा उसके मूड पर निर्भर करता वह चाहे
तो काम करे या न करे कोई दबाव नहीं होता है | लेकिन
स्त्री की हालत ठीक इसके विपरीत होती है वह न चाहते हुये भी अपनी उन जिम्मेदारियों
से मुक्त नहीं हो सकती | किचेन में जाना उसकी मजबूरी और जरूरत दोनों हो
जाती है , मान लें अगर वह सहायिका या मेड रख भी ले तो वह तो
घरेलू काम ही करेगी न …….खाना निकालना, बच्चों
के होमवर्क कराना, घर के कई छोटे-मोटे काम जैसे,चाय बनाना ,घर
को व्यवस्थित करना आदि अनगिनत काम ऐसे हैं जो हर महिला को करना ही पड़ता है |
पहले स्त्री खाना बनाती थी ,बच्चों
को संभालती थी तथा घर के तमाम काम करती थी और पुरुष बाहरी काम संभालता था | पहले बच्चे की ज़िम्मेदारी भी उतनी कठिन नहीं थी ,तब संयुक्त परिवार होता था और हर घर में चार-पाँच
या फिर उससे भी अधिक बच्चे होते थे जिनकी पढ़ाने-लिखने की ज़िम्मेदारी घर का कोई
सदस्य समूहिक रूप से कर देता था | तब पढ़ाई भी उतना
जटिल नहीं था ,एक सामान्य पढ़ाई थी जो बच्चे की माँ भी बैठे-बैठे
कर सकती थी पर आज तो बच्चों की किताबें देखकर ऐसा लगता है कि पता नहीं कौन सा कठिन
प्रश्न बच्चे कर दें और उसका उतर न देने की स्थिति में क्या होगा ??? इन्हीं समस्याओं से निजात हेतु आज ट्यूटर एक
जरूरत सी बन गई है |
को संभालती थी तथा घर के तमाम काम करती थी और पुरुष बाहरी काम संभालता था | पहले बच्चे की ज़िम्मेदारी भी उतनी कठिन नहीं थी ,तब संयुक्त परिवार होता था और हर घर में चार-पाँच
या फिर उससे भी अधिक बच्चे होते थे जिनकी पढ़ाने-लिखने की ज़िम्मेदारी घर का कोई
सदस्य समूहिक रूप से कर देता था | तब पढ़ाई भी उतना
जटिल नहीं था ,एक सामान्य पढ़ाई थी जो बच्चे की माँ भी बैठे-बैठे
कर सकती थी पर आज तो बच्चों की किताबें देखकर ऐसा लगता है कि पता नहीं कौन सा कठिन
प्रश्न बच्चे कर दें और उसका उतर न देने की स्थिति में क्या होगा ??? इन्हीं समस्याओं से निजात हेतु आज ट्यूटर एक
जरूरत सी बन गई है |
बच्चों की असफलता का दोष आता है माँ के हिस्से
आज परवरिश एक कठिन कार्य बन गया है इन सबके
वावजूद अगर आपका बच्चा अच्छा निकाल गया तो इसका सारा श्रेय पति महोदय ले जाते हैं
और अगर दुर्भाग्य से बच्चा नालायक निकल गया
तो , स्त्री जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है उसके
हाथ सिर्फ बच्चों के बिगाड़ने का आरोप लगता है | इस
स्थिति में स्त्री का मानसिक पतन होता है और वह खुद में आत्मविश्वास की कमी महसूस
करती है | आज एकल परिवार का जमाना है ,स्त्री भी नौकरी करने लगी है , इससे जो गृहस्थी है वो डगमगाने लगी है | मेरी समझ से होना तो यह चाहिए था कि स्त्री जब
बाहर से काम करके लौटे तो उसे घर में सुकून के कुछ पल मिलने चाहिए था पर ठीक इसके
विपरीत उसके कार्यों में दोगुना इजाफा हो गया है | आज
तो हालत यह है कि आज जब स्त्री काम से वापस लौटती है तो बच्चों को क्रेश से लेती
है घर के लिए जरूरत का समान खरीदती है और तो और जब से फोन का जमाना आ गया है उसके
एक-दो काम और बढ़ गए है …..टेलीफोन बिल भरना, बिजली
बिल भरना ,गैस का नंबर लगाना आदि | कहने का मतलब यह है कि जिन चीजों का वह फायदा
उठाती है उसकी भरपाई भी स्त्री को ही करना पड़ता है | घरेलू
कामों के साथ-साथ स्त्री को परिवार के लोगों को भी समय -समय पर फोन द्वारा ही सही
पर यह एहसास दिलाना होता है कि उसे उनकी चिंता है क्योंकि पति महोदय तो शादी करके
अपनी सारी जिम्मेदारियों को स्त्री को सौंपकर खुद
मुक्त हो जाते हैं |
वावजूद अगर आपका बच्चा अच्छा निकाल गया तो इसका सारा श्रेय पति महोदय ले जाते हैं
और अगर दुर्भाग्य से बच्चा नालायक निकल गया
तो , स्त्री जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है उसके
हाथ सिर्फ बच्चों के बिगाड़ने का आरोप लगता है | इस
स्थिति में स्त्री का मानसिक पतन होता है और वह खुद में आत्मविश्वास की कमी महसूस
करती है | आज एकल परिवार का जमाना है ,स्त्री भी नौकरी करने लगी है , इससे जो गृहस्थी है वो डगमगाने लगी है | मेरी समझ से होना तो यह चाहिए था कि स्त्री जब
बाहर से काम करके लौटे तो उसे घर में सुकून के कुछ पल मिलने चाहिए था पर ठीक इसके
विपरीत उसके कार्यों में दोगुना इजाफा हो गया है | आज
तो हालत यह है कि आज जब स्त्री काम से वापस लौटती है तो बच्चों को क्रेश से लेती
है घर के लिए जरूरत का समान खरीदती है और तो और जब से फोन का जमाना आ गया है उसके
एक-दो काम और बढ़ गए है …..टेलीफोन बिल भरना, बिजली
बिल भरना ,गैस का नंबर लगाना आदि | कहने का मतलब यह है कि जिन चीजों का वह फायदा
उठाती है उसकी भरपाई भी स्त्री को ही करना पड़ता है | घरेलू
कामों के साथ-साथ स्त्री को परिवार के लोगों को भी समय -समय पर फोन द्वारा ही सही
पर यह एहसास दिलाना होता है कि उसे उनकी चिंता है क्योंकि पति महोदय तो शादी करके
अपनी सारी जिम्मेदारियों को स्त्री को सौंपकर खुद
मुक्त हो जाते हैं |
समाधान ढूँढने होने
आज जो स्त्री इस दोहरी ज़िंदगी को नहीं स्वीकारती
है वो अपना नौकरी
छोड़कर घर की
ज़िम्मेदारी उठाना ज्यादा उचित समझती है | स्त्री
के लिए यह दोयम दर्जा काफी कठिन एवं चुनौती भरा होता है | इन सब परेशानियों एवं दोहरी जिमीदारी से एक बात
जो निकलकर सामने आती है वो यह है कि इस दोहरी ज़िम्मेदारी में एक आम स्त्री जूझती
हुई नजर आ रही है | आज जरूरत है समाज में स्त्री -पुरुष एक दूसरे को
सम्मान एवं आदर दें व एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बनें तभी एक बेहतर समाज का
निर्माण संभव है |
है वो अपना नौकरी
छोड़कर घर की
ज़िम्मेदारी उठाना ज्यादा उचित समझती है | स्त्री
के लिए यह दोयम दर्जा काफी कठिन एवं चुनौती भरा होता है | इन सब परेशानियों एवं दोहरी जिमीदारी से एक बात
जो निकलकर सामने आती है वो यह है कि इस दोहरी ज़िम्मेदारी में एक आम स्त्री जूझती
हुई नजर आ रही है | आज जरूरत है समाज में स्त्री -पुरुष एक दूसरे को
सम्मान एवं आदर दें व एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बनें तभी एक बेहतर समाज का
निर्माण संभव है |
संगीता सिंह ”भावना”
सह-संपादिका —-त्रैमासिक पत्रिका
करुणावती साहित्य धारा
वाराणसी
वाराणसी
यह भी पढ़ें ………
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बहुत सही सार्थक लेख👌
धन्यवाद स्वेता जी