कितने जंगल काटे हमने, कितने वृक्ष गिराए हैं

कितने जंगल काटे हमने, कितने वृक्ष गिराए हैं



कितने जंगल काटे हमने
कितने वृक्ष गिराए हैं
नीड़ बिना बेघर पंक्षी
मौसम ने मार गिराए हैं
कितने—

चारों ओर कोलाहल भारी
जहर घुल गया सांसों में
उन्नति के सोपानों पर चढ़
अवनति द्वार बनाए हैं
कितने—

जल स्रोतों को सुखा मिटा कर 
हमने महल बनाए हैं
धधक रही अवनी की छाती
रेगिस्तान बुलाए हैं
कितने—

जिन पवित्र नदियों पर गर्वित
सदा रहे इतराते हम
उनके ही निर्मल जल में
मल का अम्बार लगाए हैं
कितने—


लाज नहीं आती हमको 
निर्लज्जों की श्रेणी में हम
बात शान्ति की करते , लेकिन
एटम बम गिराए हैं
कितने–

होगा क्या भविष्य अब अपना 
प्रज्ञा बेंच , गवाएं हैं
रजस्वला हो रही धरा के
अनगिन गर्भ गिराए हैं
कितने–‘–

विविधायुध घनघोर गरजते
देशों की सीमाओं पर
पंचमहाभूतों पर अब तो 
हमने दांव लगाए हैं
कितने—”


उषा अवस्थी

कवियत्री व् लेखिका

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