इश्क़ वो आतिश है ग़ालिब


इश्क़ वो आतिश है ग़ालिब


                                                              

                                  सुमी
                                 ——
      करवट बदलते-से समय में वह एक उनींदी-सी शाम थी । एक मरते हुए दिन की उदास , सर्द शाम । काजल के धब्बे-सी फैलती हुई । छूट गई धड़कन-सी अनाम ।
ऐसा क्या था उस शाम में ? धीरे-धीरे सरकती हुई एक निस्तेज शाम थी वह जिसे बाक़ी शामों के बासी फूलों के साथ समय की नदी में प्रवाहित किया जा सकता
था । उस शाम की चटाई को मोड़ कर मैंने रख दिया था एक किनारे ।
      लेकिन ज़रूर कुछ अलग था उस शाम में । घुटने मोड़े वह शाम अपनी गोद में कोई ख़ास चीज़ समेटे थी । कौन जानता था तब कि उन यादों के रंग इतने चटखीले होंगे कि दस बरस बाद भी … कौन जानता था कि एक सलोना-सा सुख जो अधूरा रह गया था उस शाम , कि एक छोटी-सी बेज़ुबान इच्छा जो ख़ामोश रह गई थी उस शाम , आज न जाने कहाँ से स्वर पा कर कोयल-सी कूकने लगेगी मेरे जीवन में । कौन जानता था कि समय के अँधियारे में अचानक उस शाम की फुलझड़ियाँ जल उठेंगी और रोशन कर देंगी तन-मन को । मुझे कहाँ पता था कि उस शाम के बगीचे में मौलश्री के शर्मीले , ख़ुशबूदार फूल झरते रहे थे । आज कैसे दिसम्बर की वह शाम जून की इस सुबह में समय के आँगन में मासूम गिलहरी-सी फुदक रही है ।
       यादों के समुद्र के इस पार मैं हूँ । समय की साँप-सीढ़ी से बेख़बर । वह शाम आज यादों के समुद्र-तट पर स्वागत के सिंह-द्वार-सी खड़ी है । मैं हैरान हूँ वहाँ तुम्हें खड़ा पा कर — लहरों के हहराते शोर के पास आश्वस्ति-सी एक सुखद उपस्थिति … कॉलेज में भैया के दोस्त थे तुम । हमारे यहाँ बेहद पढ़ाकू माने जाते थे तुम — शिष्ट और सौम्य-से । न जाने क्यों तुम्हें देख कर मेरे मन में गुदगुदी-सी होने लगती थी … तुम जब मुस्करा कर मुझे ‘ हलो सुमी ‘ कहते तो भीतर तक खिल जाती थी मैं — मेरे गालों की लाली से बेख़बर थे क्या तुम ? तुम्हारी हर अदा को कनखियों से देखती मैं तुम्हारी ख़ामोश उपस्थिति से भी खुश हो जाती ।
        पहली बार यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में मिले थे तुम मुझे — लम्बी चोटी में सलवार-क़मीज़ पहने एक परेशान-सी लड़की कोई किताब ढूँढ़ती हुई । तुमने उस दिन लाइब्रेरी की हर शेल्फ़ छान मारी थी और आख़िर वह किताब मुझे ढूँढ़ कर दे ही दी थी । मैं तुम्हारी कौन थी ? ऐसा क्यों था कि जब तुम काफ़ी दिनों तक दिखाई नहीं देते या घर नहीं आते तो मैं गुमसुम रहने लगती थी ? चाय में चीनी की बजाए नमक डाल देती थी ? दाल या सब्ज़ी बिना नमक वाली बना देती ? रात में कमरे की बत्ती जलती छोड़ कर चश्मा पहने-पहने सो जाती ?
       जिस दिन पता चला कि तुम अब एम. बी. ए. की पढ़ाई करने आइ. आइ. एम., अहमदाबाद चले जाओगे , मैं बाथरूम में फिसल कर गिर गई थी । खाना बनाते समय मैंने अपना हाथ जला लिया था । उसी दिन मैंने यह कविता लिखी थी ।
शीर्षक था : ” क्या तुम जानते हो , प्रिय ? ” । कविता थी : ” ओ प्रिय , मैं तुम्हारी आँखों में बसे / दूर कहीं के गुमसुम खोएपन से / प्यार करती हूँ , / मैं घाव पर / पड़ी-पपड़ी-सी / तुम्हारी उदास मुस्कान से / प्यार करती हूँ , / मैं हमारे बीच पड़ी /
अनसिलवटी चुप्पी से भी / प्यार करती हूँ , / हाँ प्रिय / मैं उन पलों से भी / प्यार करती हूँ / जब एकाकीपन से ग्रस्त मैं / तुम्हारे चेहरे में / अपने लिए / आइना ढूँढ़ती रहती हूँ / और खुद को / बहुत पहले खो गई / किसी अबूझ लिपि के / चटखते अक्षर-सी / बिखरती महसूस करती हूँ … “
        भैया को तुम्हारे प्रति मेरे आकर्षण का पता चल गया होगा तभी तो एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था , ” सुमी , इंडिया में कास्ट एक बहुत बड़ा फ़ैक्टर होता है । हमें इसी समाज में रहना होता है । जात-पात के बंधनों को हम इग्नोर नहीं कर
सकते ।”
         तुम और मैं — हम अलग-अलग जातियों के थे । तुम दलित थे जबकि मैं ब्राह्मण थी । हालाँकि इससे तुम्हारे प्रति मेरे आकर्षण में कोई अंतर नहीं पड़ा ।
          वह शाम कैसी थी । उस शाम जब मैं बुखार में पड़ी थी , तुम भैया से मिलने घर आए थे । अगले दिन तुम अहमदाबाद जा रहे थे । क्या यह दैवी इत्तिफ़ाक़ नहीं था कि उस शाम घर पर और कोई नहीं था ? सब लोग एक शादी में गए थे ।
         मैंने दरवाज़ा खोला था और तुम जैसे अधिकार-पूर्वक भीतर आ गए थे । क्या मेरा चेहरा बुखार की वजह से तप रहा था ? वर्ना तुमने कैसे जान लिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं थी ?
         ” अरे सुमी , तुम्हें तो तेज बुख़ार है । ” मेरे माथे को छू कर तुमने कहा था ।
         मेरे माथे पर तुम्हारे हाथों का स्पर्श पानी की ठंडी पट्टी-सा पड़ा था ।
         ” दवाई ले रही हो कोई ? ” तुम्हारे स्वर में चिंता थी । ऐसा क्या था जो तुम्हें भी मेरी ओर खींचता था ? क्या तुम्हें इसका अहसास था ?
         तुम देर तक मेरे सामने के सोफ़े पर बैठे रहे थे । क्या इस बीच मेरा बुखार बढ़ गया था ? मेरी आँखें मुँद-सी क्यों गई थीं ? जब आँखें खुली थीं तो तुम मेरे बगल में बैठे चिंतित स्वर में पूछ रहे थे , ” सुमी , क्या तुम ठीक हो ? तुम्हारा बुख़ार बहुत तेज़ लग रहा है । लाओ , मैं तुम्हारे माथे पर ठंडे पानी की पट्टी कर दूँ । ” यह सुन कर बीमारी में भी मैं कुछ सकुचा-सी गई थी ।
         तुम बहुत देर तक मेरे बगल में बैठ कर मेरे माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ बदलते रहे थे । मेरी आँखें मुँद गई थीं । अपने कोमल स्पर्श की हिलोरें मेरे भीतर छोड़ कर तुम बाक़ी लोगों के आने से पहले ही चले गए थे । मुझे एक पारदर्शी , झीने सुख में भिगो कर ।
         बस , इतना ही तो हुआ था उस आख़िरी शाम … जब तुम मुझसे मिले थे ।
         किस्मत भी कैसे-कैसे खेल खेलती है । क्या नाम था तुम्हारे और मेरे इस रिश्ते का ? कल तुम अहमदाबाद चले जाने वाले थे । हमारे बीच अलग-अलग जातियों की ऊँची दीवार थी …
         लेकिन तुम्हारा यह लम्बा जीवन इतना सूना और उदास कैसे रह गया ? क्या तुम्हारी पतंग का कोई धागा मेरी उंगली में बँधा रह गया था ? एक बार कहा तो होता कि तुम भी मुझ से …
         कल दस बरस बाद जब अहमदाबाद आई और कॉन्फ़्रेंस में अचानक तुम से मुलाक़ात हो गई तो मेरे मन के ताल में तुम्हारी उपस्थिति गुड़ुप्-सी पड़ी, स्मृतियों की अनगिनत लहरें जगाती हुई । हिम्मत करके मैंने भरपूर निगाहों से तुम्हें एकटक देखा ।
तुम अब भी उतने ही आकर्षक लगे । क्या मैं तुम्हारी आँखों में भी अपने लिए चाहत के रंग देख रही थी ?
         हाँ , मैं तुमसे प्रेम करती थी । पर कभी कह नहीं पाई । उस शाम भी नहीं जो पीले पन्नों वाली किसी पुरानी किताब में दबे किसी मोरपंख-सी आज बाहर निकल आई है । मैं किसी निर्जन तट पर पड़ी सीपी थी , तुम्हारी उस लहर की प्रतीक्षा में जो मुझे फिर से भिगो कर साथ बहा ले जाएगी अपने अनंत समुद्र की गोद में । और आख़िर कल शाम मैं उस समुद्र के आगोश में थी …

                                  मनु
                                ——
          अतीत के समुद्र से यादों के मोती चुगने की हसरत अब भी जवाँ है हमारे दिलों में । एक ऐसा अतीत जिस में मैं था , तुम थी , और अब हम उन यादों के मोतियों से भविष्य के लिए एक सुंदर माला बनाना चाहते हैं । बीते समय को लौटा लाने की चाहत की डोर से बँधे हैं हम दोनों । स्मृतियों के वसंत में कोई कोयल फिर से कूक रही है अस्तित्व की अमराइयों में । वर्षों के पतझड़ के इस पार रंग-बिरंगे फूल फिर से खिलने लगे हैं । दु:स्वप्नों के अँधेरे को चीर कर सूर्य की सुनहरी किरणें हम तक फिर से पहुँचने लगी हैं ।
          शायद तब हम स्वयं भी अपने-अपने दिलों की धड़कनों से पूरी तरह परिचित नहीं थे । तुम तब उन्नीस की थी और मैं इक्कीस का । मुझे हैरानी है कि दस बरस का लम्बा अंतराल भी स्मृति की स्लेट से उस शाम की छवि को नहीं पोंछ पाया ।
वह छवि हमारी यादों की डाल से अटकी किसी पतंग-सी रह-रह कर फड़फड़ाती
रही । वह शाम … कितनी ख़ामोश और मासूम-सी थी । तुम थी , मैं था और तनहाई थी । कुछ इच्छाओं के फड़फड़ाते पंख थे । कुछ उम्मीदों के इंद्रधनुषी सपने थे । कुछ अस्पष्ट-सी छवियाँ थीं । कुछ नि:शब्द-से स्वर थे । खिड़की के बाहर पूर्णिमा का गोल चाँद निकल आया था । चुप्पी का संगीत चारो ओर बज रहा था । तुम्हारे माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ बदलते हुए मुझे तुम अपनी-अपनी-सी क्यों लगी थी ? तुम से मेरा कौन-सा अनाम नाता था ? लाइब्रेरी में जब तक मैंने वह किताब ढूँढ़ कर तुम्हें दे नहीं दी थी , तब तक मुझे चैन क्यों नहीं आया था ? तुम्हारी मुस्कान मुझमें जलतरंग-सी क्यों बजने लगती थी ? क्या तुम्हारे मन में भी मेरे लिए कुछ था ?
          उस शाम तुम मेरे कितनी क़रीब थी । तुमने काली जीन्स पर लाल स्वेट-शर्ट पहन रखा था । हालाँकि तेज बुख़ार की वजह से तुम्हारा फूल-सा चेहरा मुरझा गया था । मैं जिस पंखुड़ी को जानता था , वह कुम्हलाई हुई थी । खिडकी से चाँदनी का एक टुकड़ा आ कर तुम्हारी गोद में बैठ गया था । और मुझे हाल ही में लिखी हुई अपनी एक कविता याद आ गई थी । शीर्षक था : ” तुम जैसे ” । कविता थी : ” ओ प्रिये , / तुम जैसे / एक उन्मत्त / युवा भँवर , / तुम जैसे / सप्तम स्वर में बजता / एक
पियानो , / तुम जैसे / एक ऋचा आकाश तक जाती हुई , / तुम जैसे / फ़ौलाद और चाशनी की एक डोरी / मुझ से बँधी हुई , / तुम में आबाद हैं / प्रेम की अनगिनत अनुगूँजें , / जो वसंत करता है / फूलों के साथ / वह करना चाहता हूँ / मैं तुम्हारे साथ / ओ प्रिये … “
           मैं तुम्हें प्यार से छूना चाहता था । लेकिन जब मैंने बुखार जाँचने के लिए तुम्हारा माथा छुआ तो चौंक गया उस तपिश से । तुम्हारे माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ बदलते हुए मैंने ऐसा क्यों चाहा कि तुम्हें अपने सीने में भींच लूँ ? तुम्हारे चेहरे पर एक उदास मुस्कान थी । तुमने अपनी अक्षत कुँवारी आँखों से मुझे देखा और आँखें मूँद ली थीं । तुम्हें अब आराम आ रहा है , यह विचार मुझे क्यों ख़ुशी दे रहा
था ? क्या तुम मेरी उत्तेजना को , तुम्हारे स्पर्श की वजह से सुलगती हुई मेरी देह की आँच को भाँप सकी थी ? वह क्या चीज़ थी जिसने तुम्हें मुझ पर इतना भरोसा करने दिया था ?
            क्या तुम्हें पता है कि जब तुमने आँखें मूँदी हुई थीं , मेरे अधीर अधर तुम्हारे होठ चूमने के लिए तुम पर झुक आए थे ? वह कौन-सा अहसास था जिसने मुझे बीच में ही रोक लिया था ? क्या वह हमारे बीच मौजूद जातियों की ऊँची दीवार
 थी ? या वह प्यार को खो देने का भय था ? या अपने प्रति तुम्हारे विश्वास को नहीं तोड़ने की अदम्य इच्छा थी ? तुम्हें मुँदी आँखों वाले प्रदेश में अकेला छोड़कर मैं चुपचाप वहाँ से चला आया था … तुम्हारी चितकबरी याद हृदय में समेटे ।अपना उदास अकेलापन अपने कंधों पर लिए ।
           मैं उस शाम के गाल पर ढुलक गई आँसू की बूँद था । मैं सप्तम स्वर से पहले ही टूट गई वीणा की तार का अधूरा संगीत था । हम रेल की उन दो समानांतर पटरियों-से थे जो कभी नहीं मिल पाए थे । हमारी अधूरी कथा झाड़ियों में खो गई उस गेंद-सी थी जो दोबारा नहीं मिली थी । मेरी रात का कोई दिन नहीं था । तुम्हारी शबरी के कोई राम नहीं थे । हम दोनों की आँखों में केवल जलते हुए आँसू थे । वह शाम एक अनसुलझी उलझन-सी हमारे बीच हमेशा मौजूद रही ।
            हालाँकि रेत-से फिसल जाते हैं जीवन के सभी पल हमारी मुट्ठी में से , लेकिन वह शाम ज़रूर फड़फड़ाती हुई अटकी रही होगी हमारे अवचेतन के किसी दरख़्त से । तभी तो कल जब दस बरस बाद तुमसे अचानक दोबारा मुलाक़ात हुई तो भूरी पड़ गई स्मृतियों की टहनी फिर से हरी हो गई । तुम्हें देखते ही मेरी धमनियों में फिर से उत्तेजना क्यों भरने लगी थी ? क्या यह नियति का कोई इशारा था कि जो लिखा है , वह हो कर रहेगा ? तभी तो बरसों से रुकी हुई एक कहानी फिर से चल निकली थी पूरी होने के लिए …

                                सुमी
                              ——-

           क्या यही नियति है ? दस बरस बाद मेरा अहमदाबाद आना । कॉन्फ़्रेंस में तुमसे अचानक मेरी मुलाक़ात हो जानी । समय की राख के ढेर में दबी चाहत की चिंगारियों का फिर से शोला बन जाना । हमारी ख़ामोशी में इच्छाओं के कितने निशाचर पंछी पंख फड़फड़ाने लगे थे ।हमारी आँखों में से कितनी अभिलाषाएँ झाँक रही थीं ।
           उस शाम की तरह कल एक और ऐतिहासिक शाम थी । कॉन्फ़्रेंस के बाद तुम मुझे अपने घर ले गए ।
           ” बाक़ी लोग कहाँ हैं ? तुम्हारी पत्नी ? बच्चे ? ” ड्राइंग-रूम में बैठते हुए मैंने पूछा ।
           ” सुमी , मैंने शादी नहीं की । “
           ” क्यों ? “
            तुम चुप थे किंतु तुम्हारी बोलती आँखें सब कुछ बयाँ कर रही थीं ।
           ” और तुम ?  तुम्हारे पति क्या करते हैं ? कितने बच्चे हैं ? “
           ” मनु , मैंने भी शादी नहीं की … “

                              मनु
                             —–
           … तो इतने सालों तक वही दर्द हम दोनों को सालता रहा था । हम चुप थे । और अचानक दस बरस पहले की वह शाम समय की केंचुली उतार कर हमारे बीच दोबारा आ बैठी । चमकती हुई । मेरा दिल तेज़ी से धड़क रहा था । मेरी नसों में रक्त का प्रवाह बढ़ गया था । और फिर बरसों से जमे हुए शब्द पिघल कर आतुरता से बहने लगे । तुम्हारी हथेली अपनी हथेलियों में थाम कर मैंने कहा , ” सुमी , यह शाम साक्षी है कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ । जब से तुम्हें देखा था , तभी से तुमसे प्यार करता था । ” और फिर धीमी लेकिन मज़बूत आवाज़ में तुमने कहा , ” मनु , वह शाम साक्षी थी कि मैं भी आप से प्यार करती हूँ । बहुत पहले से । उस शाम जब मेरे होठ चूमने के लिए आप मुझ पर झुक आए थे , उससे भी पहले से । “
          ” तुम उस शाम जगी हुई थी ? ” मैंने थोड़ा झेंपते हुए पूछा ।
          ” जगी तो आज हूँ मैं बरसों की गहरी नींद के बाद । ” तुम फुसफुसाई थी ।
          फिर तुम एक इंद्रधनुषी हँसी हँसी थी । तुम्हारी आँखों में एक चमक थी । उस चमक में एक आमंत्रण था । वह आमंत्रण मुझमें इच्छाएँ जगा रहा था । जैसे कामना के चटख रंगों से भरी अतीत की वह शाम फिर से जवाँ हो गई थी … मुझे क्या पता था कि यह रतजगा , यह दीवानगी इतनी मीठी होगी …
           …जब मुझे होश आया तो सभी बाँध टूट चुके थे । मांसल सुख मेरी मुट्ठी में था । बरसों से सूखी हमारी देह की मिट्टी तृप्त हो रही थी । हमारे होठ परस्पर चुंबन में जुड़े थे । हमारी देह गाढ़े आलिंगन में बँधी थी । तुम्हारे भीतर से केवड़े और खसखस जैसी ख़ुशबुएँ फूट रही थीं । मेरे होठ तुम्हारे कान की लवों को नया अर्थ दे रहे थे । तुम्हारे हाथ मेरे छाती के बालों में खो गए थे । तुम्हारी सुगंधित साँसों के शोर ने इस शाम में बेइंतहा मस्ती घोल दी थी । तुम्हारी देह अब भी खजुराहो की नर्तकियों-सी कँटीली थी । अँगीठी के तेज आँच-सी तपती मेरी देह के सभी रंध्र खुल रहे थे । एक सुखद ख़ुमार मुझ पर छाता जा रहा था । मेरी प्रेयसी मेरी बाँहों में थी । मेरी मरमेड मेरी निगाहों में थी । मैं गेंहुआ शंखों-से तुम्हारे उत्सुक उरोजों और तुम्हारे जामुनी कुचाग्रों में खुद को खोता जा रहा था । अधमुँदी आँखों से अब मैं प्रेम के अश्व की सवारी कर रहा था । हम दोनों एक ऐसी प्यास की गिरफ़्त में थे जो पीने के बाद भी निरंतर बढ़ती जा रही थी । ” मनु , यू आर जस्ट ग्रेट …! ” मेरे कानों में तुम्हारी कामुक आवाज़ गूँज रही थी । मेरी धमनियों में रक्त के उफान का हहराता शोर था । फिर आह्लाद का ऊष्म , मीठा फ़व्वारा फूट पड़ा और हम दोनों उस नैसर्गिक सुख में बह गए …

                               सुमी
                              ——
          आप सभी पाठकों को यह बताते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि मैंने और मनु ने अपने परिवारों और रिश्तेदारों के विरोध के बावजूद परिणय-सूत्र में बँध जाने का फ़ैसला किया है । कोर्ट-मैरेज होगी । आप सभी सुधी पाठकों का स्नेह और शुभकामनाएँ अपेक्षित हैं ।

                             ———-०———

विख्यात कथाकार





 सुशांत सुप्रिय
         इंदिरापुरम ,
         ग़ाज़ियाबाद -201014
         ( उ. प्र. )

ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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1 thought on “इश्क़ वो आतिश है ग़ालिब”

  1. सच्चे प्रेम की एक खूबसूरत कहानी जिसे बहुत खूबसूरती से लिखी गई है…… हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ !

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