कैसे रिश्तों में डालें नयी जान

                                           

कैसे रिश्तों में डालें नयी जान

 


रोज ही शाम को लीला बाई से मिलना होता था पार्क में आतीं तो अपने परिवार की बात किए बिना न रहतीं ।मैं भी सोचती कि उम्र हो गयी किंतु इनका दिल है कि परिवार में ही बसा है फिर भी मैं उनका दिल रखने के लिए उनकी बातें सुन लेती सोचती कि मुझे तो बच्चों को ले पार्क में आना ही है फिर इनकी बात सुन लूँ  तो क्या जाता है |


कई बार बोर भी हो जाती उन्हीं बातों को बार-बार सुन किंतु वह भी तो मुझे अपना समझ बताती हैंउनका मुख्य विषय  होता उनका पोता । कहतीं “आज फेसबुक पर नये फोटो डाले है बहू ने, प्राइज़ मिला है पोते को पढ़ाई में प्रथम आया है कभी कहतीं स्कूल बास्केट बाल टीम में सेलेक्ट हो गया है और क्यूँ न हो बड़े लाड़-प्यार से पाला है उसे किंतु अब बेटे का तबादला हो गया है तो मिल नहीं पाती उस से ,, बस छुट्टियों का इंतजार है ,तभी एक दिन इंटेरकौम कर बोलीं कुछ दिनों के लिए बेटे के घर जा रही हूँ “


मैने वजह पूछी कहने लगीं “वापिस आ कर बतावुँगी अभी फ्लाइट का समय हो गया है ” और जब वे दो माह बाद वापिस आईं और शाम को पार्क में मिलते ही मैं पूछ बैठी “आंटी मिल आईं पोते से और मैं ने उन्हें छेड़ते हुए कहा आज मेरे ज़मीन पर नहीं हैं कदम ” इतना सुनते ही रो पड़ीं बेचारी कहने लगीं क्या बताऊं और जो उन्होंने बताया वाकई दिल को दुखाने वाला था चलिए मैं ही सुनाती हूँ आपको उनकी कहानी 


जब स्वार्थ  रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाए 


लीला जी अपने इकलौते पोते के प्यार में पागल थी किंतु मजबूरी जब से बेटे का तबादला हो गया था सिर्फ़ गर्मी की छुट्टियों में ही पोते से मिल पाती । जब उसका पोता छुट्टियों में उसके पास आता वह उसकी पसंद के खाने खिलोनों एवं किताबों का भंडार लगा देती ,नित नये पकवान खिलाती । एसे करते पाँच वर्ष बीत गये और पोता पूरे सोलह वर्षों का हो गया ।

तभी एक दिन उसके बेटे का फोन आया और बेटा बोला बहू का एक्सीडेंट हो गया है तो माँ तुम आ जाओ घर और अस्पताल दोनों ही संभालने पड़ेंगे । बेचारी ने झट से अपना सूटकेस तैयार किया और रवाना हो गयी अपने बेटे के घर जाने के लिए । मन में बहू के एक्सीडेंट का तो दुख था किंतु अपने पोते से मिलने की  खुशी भी थी । बेटे के घर पहुँचते ही पहले दिन से ही पूरे घर एवं अस्पताल की ज़िम्मेदारी संभाल ली ।

 उसके बेटे ने भी कहा माँ पोते के स्कूल व सोने उठने के टाइम का थोड़ाध्यान रखनापरीक्षा नज़दीक है सो उसे थोड़ा पढ़ने के लिए भी कह देना । लीला जी ने भी अपना समझ पोते के रख-रखाव में कोई कमी न छोड़ी । तभी एक रात पोते के कमरे में दूध का गिलास ले कर गयी और पोते को अपने मित्र से बात करते सुना । पोता कह रहा था  यार क्या करूँ ये बुड्ढी सारे दिन पहरेदारी करती है ,जब से आई है नाक में नकैल डाल रखी है न खुद चैन से रहती है न मुझे बैठने देती है ” यह सुन लीला जी  के तो पैरों तले ज़मीन खिसक गयी । चुपचाप दूध का गिलास टेबल पर रख कमरे से बाहर आ गयी । मगर आँसू थे कि थमने का नाम ही न ले रहे थे और कानों  में एक ही शब्द गूँज रहा था बुड्ढी… बुड्ढी…. बुड्ढी
मैं सोचती रह गयी कि आख़िर कहाँ कमी रह गयी थी कि बेटे-बहू,लीला बाई सभी तो अपनी जगह सही थे फिर भी पोते का व्यवहार ऐसा  कई दिनों तक जवाब नहीं मिला मुझे फिर समझ में आया कि  शायद आज के परिवेश में जहाँ नौकरी-पेशा लोग अपने परिवारों से अलग रह रहे है तो एक पीढ़ी दूसरी तक वे संस्कार पहुँचा ही नहीं पा रही है सब एक दूसरे के बंधनों से आज़ाद रहना चाहते हैं शायद एक दूसरे को देख कर चलन ही एसा बन गया है कि हर कोई सिर्फ़ ज़रूरतों को महत्व दे रहा है रिश्तों को नहीं बेचारी लीला बाई जिन की जान पोते में बस्ती थी उनका दिल  सदा के लिए टूट गया ।

रिश्तों के पौधे को समय पर सींचे 



वहीं एक और नयी आंटी थीं अभी कुछ दिन पहले ही नयी दिखाई देने लगी थीं और सभी को बाय-बाय कहती नज़र आईं सो किसी ने पूछ ही लिया अरे अभी आई अभी गयी तो बताने लगीं वे अपनी कहानी लीजिए उन्हीं के मुख से सुन लीजिए
६५ वर्ष की उम्र में मुझे वृद्धाश्रम  भेजने की बात घर में हई तो मेरा दिल दहल उठा । मैं कोसने लगी अपने बेटे व बहू को । मन ही मन सोच रही थी बहू ने पट्टी पढ़ाई होगी बेटे को । वरना मेरा बेटा तो राम सा है ,एसा कभी ना करता ।


अब तो घर में पानी भी पीने को मन न करता । सोचती एक टुकड़ा न तोड़ूं इस घर में । क्या फायेदा हुआ बेटे को पाल-पोसकर इंजिनियर बनाने का । दूसरा बच्चा भी न किया ,सोचा एक ही को अच्छा कर लूँगी । पर ” हाय री किस्मत ” । अब यह दिन देखने पड़ रहे हैं अपने बेटे के घर में रहने को भी जगह नहीं । आख़िर माँगती ही क्या हूँ इस से दो वक़्त की रोटी ! वह भी नहीं खिला सकता।  क्या फायेदा औलाद पैदा करने का ? बेटा मुझे बार-बारसमझाताकहता ” सब तुम्हारे भले के लिए ही कर रहा हूँ माँ ”  मैं सोचती सब चिकनी-चुपड़ी बातें ! बार-बार बोलता माँ उधर तुम्हारी सार -संभाल अच्छे से हो जाएगी हम तो मियाँ-बीबी नौकरी वाले हैं घर में तुम्हें अकेली कैसे छोड़ दें ऊपर से मेरा बार-बार विदेश जाना । तुम्हारी हारी-बीमारी देखने वाला कौन है घर में नौकर रख दें लेकिन आज के नौकरों का भी तो भरोसा नहीं बड़े-बूढ़ों को अकेले पाकर ना जाने क्या कर डालें ।

 मैं कुछ ना बोली । मन में सोचा ” सब बनावटी दिखावा ” । बस दस दिन बचे थे मुझे जाने मेंतभी मेरा १७  वर्षीय पोता छुट्टियों में हॉस्टिल से आया । बेटा-बहू दोनों तो नौकरी पर चले जाते पोता सारे दिन दोस्तों से फोन पर बात करता  या  कंप्यूटर  पर  खेलता ।  मैं सोचती इससे थोड़ा बात करूँ ,तो कहता ” दादी डिस्टर्ब मत करो ” मैं सोचती अजीब है क्या जमाना आ गया है शिष्टाचार संस्कार नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं । बात तक करना पसंद नहीं करता ।

 सोचा अब घर छोड़ना तो तय है जाते-जाते बहू को थोड़ा सुना जाऊँ । एसे चुप रहने से काम नहीं चलेगा । शाम को बहू नौकरी से आई मैं भी इंतजार कर रही थी । सो आते ही लगी जली-कटी सुनाने । तुम क्या मुझे घर में नहीं रख सकती ?   अर्ररे संस्कार हैं कि नहीं और तो और पोते को भी पट्टी पढ़ा दी । बात तक नहीं करता मेरे से । बहू थोड़ी देर तो चुपचाप सुनती रही फिर उस से रहा न गया । बोली मांजी इतने वर्ष मैने आप की एक भी बात का जवाब नहीं दिया । अच्छा तो नहीं लगता कहने को लकिन आप ने भी कौन सी ज़िम्मेदारी निभाई अपनी ?शादी के बाद आज तक मेरी हर ज़रूरत पर मैंने आप से मदद चाही आप तो कभी हमारे पास आई ही नहीं । 

यहाँ तक कि प्रथम वर्ष में ही इस पोते के  जन्म के समय न चाहते हुए भी आप ने मुझे मायके भेज दिया । मेरी तो माँ  भी नहीं । मेरे पिताजी ने  नौकरानियों  के भरोसे मेरा प्रसव व जापा करवाया । और रही बात इस पोते की ! तो बताइए कौन से दिन आप ने इसे लोरियाँ सुनाईं कब आप ने इसे गोद में खिलाया मैंने आप को अपने पास बार-बार बुलाने की कोशिश की लेकिन आप साथ में रहना नहीं चाहती थीं । मेरे लिए नहीं अपने पोते के लिए तो आप आ सकती थीं । उसे नौकरों के भरोसे पाल-पोस कर बड़ा किया मैंने और जब उनका विश्वास न होता मैं बार-बार आपको अपने पास बुलाती ,इसी पोते के लिए । तब आप ही ने कहा ना इसे हॉस्टिल में डाल दो । अगर आप शुरू से साथ रहतीं तो मेरी भी थोड़ी चिंता कम हो जाती माँजी । तभी आप जवान थीं, आपको किटी-पार्टीफिल्में देखनाबाबूजी के साथ सैर-सपाटा अच्छा लगता था मगर माफ़ कीजिए माँजी, आप की तरफ से मेरी गृहस्थी को कोई सहयोग ना था  ।


उसके शब्द काँटों की तरह मेरे कानों में चुभ रहे थे लेकिन ठीक ही तो कह रही थी वो सास का कौन सा फर्ज़ अदा किया था मैंने कौन सी दादी जैसे लाड़-लड़ाए थे मैंने अपने पोते को आज मुझे अपनी ग़लती का एहसास हो रहा था । मैं सोचती थी जब तक हाथ-पैर चलें घूम-फिर लें । इस पोते के पैदा होने पालने-पोसने,  हारी-बीमारीकहीं भी तो मदद नहीं की थी मैंने । मैं सोचती थी बहू नौकरी करे तो अपनी ज़िम्मेदारी से । पहले बेटे को पाला अब क्या इस का परिवार पालूं सब मेरी ज़िम्मेदारी थोड़ी है ?

अगर मैंने पोते को प्यार दिया होता तो क्या आज वह ना कहता ” दादी नहीं जाएँगी ” काश इन सब बातों को मैंने कल समझा होता तो आज ये दिन ना देखना पड़ता । मैंने ही रिश्तों को समझने में भूल की । मेरा रिश्ता सिर्फ़ बेटे  तक ही सीमित ना था । बहू एवं पोते के लिए भी मेरी ज़िम्मेदारी बनती थी । मैंने स्वयं ही इन “ रिश्तों की गर्माहट “ को ख़त्म कर दिया था । पश्चाताप के आँसू मेरी आँखों से बह रहे थे । अपनी बहू से मैं बोली ” काश ये सब मैं पहले ही समझ जाती ” कहते हैं “लड्डू में जितना गुड़ डालो उतना ही मीठा होता है ”  मैंने स्वयं ही रिश्तों की वह मिठास ख़त्म कर दी थी ।

बहू बोली , माफ़ कीजिए मांजी महंगाई इतनी है दोनों का नौकरी करना भी तो ज़रूरी है पहले जैसा जमाना नहीं रहा अबफिर भी मैं समय निकाल कर आप से मिलने आऊँगी उसकी यह बात सुन कर मेरी आँखों से खुशी के आँसू निकल पड़े  ,  अब मुझे कोई दुख ना था वृद्धाश्रम जाने का ” तभी पोता हंसते हुए बोला ” दादी माँ आप भी हॉस्टिल जाने की तैयारी कीजिए और मैं भी अगली छुट्टी में आएँगे ” मैं उस की बात सुन कर मुस्कुरा दी  । मैंने खुशी-खुशी अपना सूटकेस तैयार कर लिया ।


रिश्तों में भरे अपनेपन का अहसास 

मैं फिर सोच में पड़ गयी की दोनों आंटी की कहानी बिल्कुल एक दूसरे से उल्टी है
और अब मुझे सब बिल्कुल साफ समझ आ रहा था कि हमारे  यहाँ एक कहावत है “जिसकी लाठी उसी की भैंस ” यदि यह हम रिश्ते निभाते हुए इस्तेमाल करें तो रिश्तों में कड़वाहट तो आ ही जाएगी ,  फिर क्या बूढ़े  क्या जवान वक़्त तो अपनी चाल बदल ही लेगा कभी अच्छा कभी बुरा । ज़रूरत है अपने व्यवहार में मानवता लाने की जो कि आजकल प्रायः  ख़त्म ही होती जा रही है । 


किसी कमजोर को देख लाठी निकाल लेना कहाँ की इंसानियत है यह तो सभी को मालूम है जब बूढ़े होंगे तो अपने बच्चों पर ही निर्भर होंगे और बच्चों को भी मालूम है की उनके माता-पिता उनकी ही ज़िम्मेदारी है । किंतु यह सब किताबों फेसबुक स्टेटस या वाटसपप तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए । यह व्यवहार मे होना चाहिए । एक और व्यवहार मैं देख रही हूँ कि मिठास सिर्फ़ उपर से बोलने की ही रह गयी है जहाँ ज़िम्मेदारी आई नहीं की वहाँ से भाग निकालने की कोशिश शुरू हो जाती है । ज़रूरत है ज़िम्मेदारी को लेने वालों की हम चाहें कि घर में सब कुछ मेरे हिसाब से हो किंतु ज़िम्मेदारी मेरी नहीं तो एसा कैसे चलेगा । 


आप ज़िम्मेदारी लेंगे तो लोग आप की सुनने भी लगेंगे । आपको अधिकार तभी मिलेंगे जब आप ज़िम्मेदारी निभाएँगे । शायद यही कारण है कि  बच्चों के लिए होस्टल या क्रेश की व्यवस्था एवं बूढ़ों के लिए वृद्धहाश्रम अपने पैर बड़ी तेज़ी से पसर रहे हैं । परिवार में अनुशासन का अपना स्थान है किंतु वह एक सीमा तक वरना वह बंधन बनने लगता है और उससे तंग आ लोग उस बंधन को तोड़ ही देते हैं चाहे वे वृद्ध हों या जवान । एक दूसरेकी जिंदगी में ज़्यादा दखल देना भी ठीक नहीं । ज़रूरत है तो सिर्फ़ आपसी सामंजस्य बैठाने  की । मुझे एसा नहीं लगता कि माता-पिता अपने बच्चों के साथ नहीं रहना चाहते या फिर उनके बच्चे अपने माँ-बाप को साथ नहीं रखना चाहते । यह सिर्फ़ सोच का फ़र्क है । 


आप ही डाल  सकते हैं रिश्तों को नयी जान 


एसा भी कहते सुना है ” एक माँ चार बेटों को पाल सकती है किंतु चार बेटे मिल कर एकमाँ को नहीं पाल सकते है ” तो ज़रा सोचिए क्या माँ ने जब चार बेटे पाले तो क्या वह शत -प्रतिशत उन्हें खुश रख पाई हम अपना बचपन ही याद कर सकते हैं कभी एक भाई खुश तो और कभी दूसराकभी एक की पसंद की सब्जी तो कभी दूसरे की ” माँ भी कह देती ” चल बेटा आज दही से रोटी खा ले ” किंतु वहीं चार बेटों के घर की पत्नियाँ अलग अलग घरों से आई है तो व्यवस्था भी अलग अलग ही होगी ज़रूरत है सामंजस्य बैठने की । यदि आपसी सामंजस्य हो तो शायद चार बेटे एक माँ  को बड़ी खुशी से पाल लें, यदि वह सामंजस्य होता तो वृधहाश्रम कभी न खुलते ।
फिर भी मैं यह कहूँगी कि किसी को तो शुरुआत करनी ही होगी  तो एक बार करें शुरुआत दोनों पीढ़ियों के बीच सेतु बनाने की और अपने से बड़ों को मान सम्मान देकर छोटो के लिए  एक आदर्श स्थापित कर दें और फिर क्यूँ ये वृद्ध हो चिंतित और उपेक्षित  ?


रोचिका शर्माचेन्नई

लेखिका एवम कवियत्री

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1 thought on “कैसे रिश्तों में डालें नयी जान”

  1. आपने बड़े ही सुन्दर एवं समुचित ढंग से बच्चों और मता-पिता बीच के संबंधों और समस्याओ को
    समझाने की कोशिश की है. समस्या दोनों की है अत: दोनों को समझदारी और सहनशीलता से काम लेना होगा।

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