समाज में बढ़ते नैतिक अवमूल्यन के लिए हम भी हैं जिम्मेदार
समाज में होने वाले अपराधों पर चुप्पी तोडिये
इस सम्बन्ध में हमारी यह शिकायत हो सकती है कि “आजकल कोई सुनता नहीं, ” जो इस तरफ के कदम उठाता है उसे ही उल्टी परेशानियां उठानी पड़ती हैं।
समाज में बढ़ते नैतिक अवमूल्यन को रकने के लिए सिद्धांतों न रचें कर्म करें
भारत का हर नागरिक भारतवर्ष की दुर्दशा में बराबर का सहभागी है.हमारी मुश्किल ये है की अगर हम स्वयं को सज्जनों की श्रेणी में रखते हैं तो दुर्जनों की संगत से बचने के चक्कर में किसी भी प्रकार की दुर्जनता का विरोध नहीं करते और यदि दुर्भाग्यवश हम दुर्जन की श्रेणी में हो तब तो हमारा एक ही ध्येय होता है ‘दूसरो को येन केन प्रकारेण दुखी करना’.अर्थात दोनों ही श्रेणियों के लोगो को देश और समाज की स्थिति से कुछ लेना देना नहीं.यही स्थिति दुखदायी है और इसी प्रवृति ने हमें विनाश की ओर अग्रसर किया है.हमारे आस पास कुछ भी होता रहे हम बस अपने में मगन रहते हैं.मैं,मेरा परिवार,मेरे बच्चे,मेरा घर…… ये सुखी रहे तो हम सुखी हैं.हमारी चिंताए अपने परिवार तक ही सीमित हैं पर जब देश की विपन्नता हम पर सीधे प्रभाव डालती है तो हम चीत्कार करने लगते हैं,राजनीति और प्रशासन को दोष देने लगते हैं.देश की राजनैतिक,आर्थिक,सामाजिक और प्रशासनिक प्रत्येक तरह की व्यवस्थाएं न सिर्फ सुधरे बल्कि सुद्रण भी हो इसके लिए हमें अपने चारो ओर घट रही घटनाओ पर संज्ञान लेना होगा.हर अन्यायपूर्ण व्यवस्था का पुरजोर विरोध करना होगा.और कुछ नहीं तो निर्भीक हो कर तेज आवाज में अपनी राय स्पष्ट करनी होगी.पर सच ये है की हम ऐसा करने की बजाय कभी व्यावहारिक होने का हवाला दे कर और कभी अपने आम आदमी होने का हवाला दे कर अपने कर्तव्यों से तो बचना चाहते हैं और फिर अपनी सुविधानुसार हम अपने आम आदमी के अधिकारों के लिए रोना शुरू कर देते हैं.यदि हर बार अपने अधिकारों के लिए रोते रहना अव्यवहारिक नहीं तो अपने कर्तव्य पालन करना भी व्यावहारिक है,हमें समझना होगा. परन्तु कौन से कर्तव्यों के पालन से हम एक जागरूक समाज की स्थापना कर सकते हैं ये भी समझना होगा.वास्तव में ये बहुत छोटे छोटे कर्त्तव्य हैं-
पालन करें कुछ सामान्य नागरिक कर्तव्यों का
- राह चलते किसी को हमारी मदद की जरुरत हो तो हम जल्दी होने का बहाना न बना कर उसके लिए रुक कर उसकी मदद को हाथ बढ़ाएं,
- किसी लड़की के साथ छेड़खानी की घटना होते देखे तो छेड़छाड़ करने वालो को चार पांच थप्पड़ लगाने में न डरे,
- किसी बुजुर्ग का अपमान न करें न होने दे,राहजनी की घटना के प्रत्यक्षदर्शी बने तो मूक बधिर न बने रहे,
- जब भी मौका मिले बेईमानो को अपमानित करें,श्रम और मेहनत करने वालो का सम्मान करें,
- कम से कम एक बच्चे को शिक्षित करें,
- हर बरसात में कम से कम ५ पेड़ लगायें,
- सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर किसी प्रकार का कचरा न फैलाएं और न दूसरो को फ़ैलाने दें,,,,,
- क्या इन सब कर्तव्यों के पालन में बहुत ऊर्जा लगती है?या ये सब न करके हम अमरत्व को प्राप्त करने वाले हैं?यदि नहीं तो फिर डर और झिझक कैसी? आइये इन छोटे-छोटे कर्तव्यों का पालन करें और बड़े-बड़े अधिकारों को स्वतः प्राप्त करें.
नैतिक अवमूल्यन के लिए कुछ इस तरफ भी सोंचें
कभी कोई दामिनी कभी कोई गुड़िया ऱोज बल्कि हर घंटे रौंदी जाती हैं, उनके सिर्फ शरीर ही घायल नहीं होते बल्कि उनकी आत्माएं भी मरणासन्न होती हैं.जनता विलाप करती है,सरकार सख्त कार्यवाही का आश्वासन देती है.
हम बढ़ते हुए इन अपराधो के लिए सरकार को जिम्मेदार मानते हैं और सरकार में बैठे मानसिक नपुंसकता से लोग अपनी सुविधा के अनुसार जनता के अलग अलग वर्गों को जिम्मेदार ठहरा देते हैं. कोई कहता है यू.पी. और बिहार वाले जिम्मेदार हैं,
किसी की राय में टी.वी. और फिल्मे और किसी की राय में मोबाइल फोन जिम्मेदार हैं.
इस क्रम में कई हास्यास्पद बयान भी आते हैं,जैसे दुष्कर्म के लिए स्कर्ट और जीन्स जिम्मेदार हैं या ४० वर्ष से कम उम्र की महिलाओ के मोबाइल फ़ोन रखने और अकेले बहार जाने पर पाबंदी होनी चाहिए.
कुछ बयान बेशर्म भी होते हैं जैसे “ऐसे अपराध तो होते रहते हैं,इन पर काबू नहीं पाया जा सकता.” ऐसे बलात्कारो और उसके बाद जुबानी बलात्कार करने वालो की मानसिकता के लिए निःसंदेह कई सतही कारण मौजूद हैं पर मेरे विचार से जो सबसे बड़ा मूल कारण है वो है अशिक्षा.
भारतीय समाज के तेजी से हो रहे नैतिक पतन और सांस्कृतिक क्षरण के लिए अशिक्षा ही मूल रूप से उत्तरदायी है.ऐसा भी नहीं कि शिक्षित समाज में महिलाओं के यौन शोषण नहीं होते परन्तु वहशीपन और दरिंदगी की साडी हदे पार करने वाले अपराधी अधिकतर अशिक्षित समाज से ही आते हैं.उत्तर प्रदेश और बिहार में ऐसे अपराध अधिक होने का कारण वहां फ़ैली अशिक्षा ही है.
आज समाज दोहरा चरित्र जी रहा है, जिसमें एक तरफ़ तो महिलाओं के सम्मान की बात की जा रही है और दूसरी ओर टी.वी., इंटरनेट, फिल्में जैसे संचार माध्यम समाज के सामने औरत की जो तस्वीर पेश कर रहे हैं, उसमें उसे सिर्फ़ भोग्या एवं मनोरंजन की वस्तु के रुप में ही दिखाया जां रहा है |
समाज में नैतिकता एवं उच्च मानवीय आदर्शों का भी दिन-प्रतिदिन अवमूल्यन हो रहा है | इन परिस्थितियों में सिर्फ़ मृत्युदंड का भय दिखाकर इस तरह की घटनाओं को रोकना संभव नही है | समाज में उच्च नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों की स्थापना करके ही अपराधों पर अंकुश लगाया जां सकता है |
सुंदरपुर
गुवाहाटी- (असम )