हाथों में मेहँदी, पाँव में आलता
और मांग में ,सिन्दूरी आभा लिए
खड़ी है दुल्हन देहरी पर
आँखों से गालों पर लुढके आँसू
लाल चूनर को कर रहे हैं और लाल
बार बार पलट कर फिर – फिर
आँखों में समेट लेना चाहती है
अपना बचपन , अपनी सखियाँ , अपना घर
एक हुक सी उठती है असफल कोशिश पर
बंद होंठों से चीखता है ह्रदय
बाबुल मोरा नैहर छूटों ही जाए
पहली बार पाँव फेरने पर जब आती है दुल्हन
तो बदल चुका होता है घर
छोटे भैया को मिल गया होता है उसका कमरा
भतीजे को कॉपी – पेन्सिल
अलमारी में नहीं है उसके कपडे
बाथरूम से हट गयी है
उसके पसंद के शैम्पू की बोतले
इतनी जल्दी
भर गया है वो वैक्युम्म जो सब कहते थे कि
नहीं भरता कभी
फिर भी वापस जाते हुए
सब कुछ समेट लेने की ख्वाइश में
छूती है हर दीवार
फिर भी मन करता है चीत्कार
बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए
बरस दर बरस
खिसकती रही उम्र
धूप से छाँव की ओर
और नैहर में उसका अपनापन
आँगन से देहरी की ओर
फिर भी आती है बार –बार
बेचैन हो
खोजने को अपने जडें
हलके से हटाकर देखती है दूब को
कहीं नज़र नहीं आतीं
शायद उखाड़ कर फेंक दी गयी थी
उसके साथ
थम से जाते हैं गहराई तक ढूंढते हाथ
होती है एक यात्रा अंतस की
फिर अश्रुओं के साथ
बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए
भागती है दौड़ती है
देने को बाबूजी के कमजोर हाथों को लाठी
कि झुर्रियों से भरे चहेरे वाली माँ को
एक कैप चाय का प्याला
पर खलने लगा है
अब भाभी को उसका आना
मेहमान जो हो गयी है
अपने ही घर के लिए
कम कर दिया है
उसने भी आना
पर आत्मा में बजता है सुबह – शाम
बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए
लकड़ी हो गयी
पिता की देह से
रोई थी चिपट कर
इतना कि
पूरी हो जाए बरसों गले
न लगा पाने की हसरतें
जब चली थी
कमजोर माँ को
भाई की जिम्मेदारी पर छोड़
तब एक बार फिर
भर आई थी आँख
फिर पलट कर देखा आँगन को
बुदबुदाए थे होंठ …
बाबुल मोरा नैहर छूट गयो
वंदना बाजपेयी
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