भगवान् से हमारा रिश्ता केवल लेने का हैं | या श्रद्धा देने के बदले मनचाही वस्तु को लेने का है | हम दूसरों के दुखों को कभी नहीं देखते | केवल निज सुख की कामना में मंदिर दौड़ते हैं | क्या हमने कभी भगवान् को जानने की कोशिश की है …
मेरे भगवान् /My God
जब जब जुड़े मेरे हाथ
किसी देवता के आगे
मन में होने लगा विश्वास
कोई है
कोई तो है ऊपर कहीं
जो सुन लेगा
मेरी प्राथनाएं वहीँ से ही
और
जवाब में
मुझे दे देगा मेरी मनचाही सारी वस्तुएं
मैं भी हो जाऊँगी निश्चिंत
जग में रोज – रोज की चिक चिक से
हर किसी के आगे सर झुकाने से
हर किसी को मनाने से
हां शायद , ईश्वर ने सुन ली मेरी फ़रियाद
आखिर इतना किया था मैंने याद
न्यूटन के क्रिया की प्रतिक्रिया की नियम के अनुसार
बनने लगे मेरे सारे काम
नौकरी में प्रमोशन
बच्चे पढाई में अव्वल
घर में स्वास्थ्य , धन और प्यार
जीवन हो गया था बहुत मजेदार
मैं सबको समझाते
मंदिर की राह दिखाती
और लोग मुझे देख – देख कर
दौड़े जाते
मनवांछित पाते
पर वो सड़क पर सोने वाली अम्मा
उसके कटोरे में १० रूपये की भीख भी नहीं
कामवाली के पति पर
वशीकरण मन्त्र का असर भी नहीं
वो रोज पिटती है वैसे ही
पहले की तरह
जख्म से भर जाते हैं अंग
चौकीदार का जवान बेटा
भगवान् को हो गया प्यारा
तार्किक मन
प्रश्न उठाता
कहाँ है क्रिया की प्रतिक्रिया
सब कुछ है उल्टा – पुल्टा
फिर मन को शांत कर सोंचती
मुझे तो मिला है
फिर मुझे क्यों गिला है
शायद कुछ कमी होगी उनकी प्रार्थना में
शायद कुछ कमी होगी उनकी भावना में
मेरे सारे तर्क
मेरे स्वार्थ से खंडित थे
मेरे सारे प्रयास से
मेरे भगवान् सुरक्षित थे
स्मिता शुक्ला
काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें
सही कहा हर इंसान पहले अपनेआप के लिए ही सोचता हैं। मुझे तो मिल गया न बस। सुंदर प्रस्तुति।
धन्यवाद ज्योति जी