अभिशाप

   

अभिशाप
“कम आन मम्मा!कब तक यूं ही डर के साथ जीती रहोगी। अब साइंस ने बहुत प्रोग्रेस कर ली है ;फिर आप तो एजुकेटेड है।” साक्षी ने मचलते हुए रंजीता से फरमाइश की “अब मुझे वो तीखे वाले पकोड़े खिलाओ और मेरे लिए आचार की सारी वेराइटीज पैक कर दो, आकाश मुझे लेने आता ही होगा।” आदर्श माँ की तरह रंजीता साक्षी की इच्छा पूरी करने के लिए किचन में घुस गई। बेटी उसी शहर में ब्याही हो तो माँ उसके सारे लाड-चाव पहले कि तरह ही कर सकती है, तिस पर अभी -अभी साक्षी ने कन्सीव किया है। तीखा खाने का मन तो होगा ही। पर वो डर अब रंजीता के दिल -दिमाग के साथ -साथ जैसे उसके हर रोयें में आ बसा है ।     
                                     
पचास पार कर चुकी  रंजीता जब पांच वर्ष की थी तब से वो माहौल उसके अस्तित्व के साथ चिपक -सा गया था। 
आकाश व साक्षी के जाने के बाद उसने चीनू को पकोड़े खिलाये; मुँह साफ किया और व्हील चेयर पर उसे गार्डन में घुमाने ले गई। डॉक्टर साहब क्लीनिक से देर से ही आते है अतः वह फुर्सत में थी। रोजाना की ही तरह 28 वर्षीय चीनू  गार्डन में बैठा फूल ,पत्ती, तितली का ड्राइंग बनाता और माँ की शाबासी पाने की अपेक्षा से उसे देखता। रंजीता के मुस्कराते ही हो -हो करके हँसता और ताली बजाता। रंजीता उसके मुँह से गिरती लार को बार -बार पोंछती। नाती के आने की ख़ुशी तो उसने अब तक नहीँ मनाई थी उल्टे बार -बार दुश्चिंता के बादलों में घिरती जाती थी कि कहीँ साक्षी भी अपनी माँ और नानी की तरह वो खानदानी अभिशाप झेलेगी। न वो अपने जने को छोड़ पायेगी और न उसको दीर्घायु होने की दुआ दे पायेगी। उसका जीवन भी एक कैद बनकर रह जायेगा।    
               
अतीत की घटनाओं की परत दर परत खुलने लगी थी। उसने अपने पांचवें वर्ष से शुरू किया। माँ ने बताया कि जब वो दो वर्ष की थी तब गोविन्द का जन्म हुआ। दादी ने चाव से कुँआ पुजवाया, बड़ा भोज किया,बहू को ढेरों आशीर्वाद दिये। पर तीन वर्ष का होने पर भी जब गोविन्द ने न चलना सीखा न ही एक अक्षर बोलना तो दादी ने उस नन्ही जान का बहिष्कार -सा कर दिया। माँ पर तानों की बरसात होने लगी। “अपने मायके के देवताओं का दोष लेकर आई है इसीलिए ऐसा पागल जना है। खबरदार जो इस जड़भरत की तीमारदारी में घर के काम का अनदेखा किया तो। आया सावन पूजा न्हावन ; कोई पहाड़ नहीँ गिरा है और जन लेना बेटे।” गोविन्द पर मक्खियां भिनकती रहती, मल-मूत्र में लिपटा रहता, भूख-प्यास का होश नहीँ। माँ की आत्मा किलकती, आँखे आंसू बहाती पर बीस लोगो के संयुक्त परिवार के काम में  लगी रहती। 
        
रंजीता ने चीनू को जन्म तो 22वें वर्ष में दिया पर गोविन्द की माँ तो वह 5-6 वर्ष की थी तभी बन गई।
 माँ चुपचाप उसे गोविन्द के लिए खाना देती,साफ कपड़े देती। नन्ही रंजीता ने भाई को खिलाना -नहलाना, दुलारना- सम्भालना सब सीख लिया। उसके एक मामा का भी यही हाल था पर नानी शायद खुशकिस्मत थी कि वो बच्चा सिर्फ आठ साल ही जिया। पर गोविन्द ने पूरे चालीस वर्ष इस संसार में सांस ली। दादी उसे कोसते- कोसते खुद संसार त्याग गई पर गोविन्द को तो उतना ही जीना था जितनी साँसे भगवान ने गिनकर उसके निमित्त रखी थी। छः भाई -बहनोँ में रंजीता सबसे सुंदर और होनहार थी। भाई की देखभाल करते-करते ही उसने बी एस सी की। 21वर्षीया वो नवयुवती विवाह योग्य हो गई थी। दान-दहेज के लिए ज्यादा पैसा पिताजी के पास नहीँ था अतः वह अपने स्तर का ही वर ढूंढ रहे थे।    
                               
 तभी एक दिन श्रीवास्तव परिवार उनके यहाँ चाय पर आया। श्रीमती श्रीवास्तव तो रंजीता की सुघड़ता, कर्मठता और सौंदर्य पर ऐसी रीझी कि हाथों-हाथ अपने डॉक्टर बेटे यतीश का रिश्ता पक्का कर गई। बाद में उसे पता चला कि उसे कॉलेज आते -जाते देखकर यतीश ने खुद अपने माता-पिता को रिश्ता लेकर भेजा था। माँ तो ये कहते न थकती कि इसने बचपन से भाई की जो निःस्वार्थ सेवा की है उसी का इतना अच्छा फल भगवान ने दिया है।अब तो बेटी राजरानी बनकर रहेगी। विदाई के समय गोविन्द को दुलारकर रंजीता खूब रोई। उसे ससुराल में बहुत प्यार मिला। दो वर्षो के अंदर चीनू गोद में आ गया। डॉ यतीश की नजरों से ये छिपा न रहा कि चीनू भी गोविन्द की तरह मानसिक विकृति का शिकार है। बस उस दिन से आज तक चीनू को कभी उनकी प्यारभरी दृष्टि तक न मिली। रंजीता की सास ने उसकी दादी वाली भूमिका बखूबी निभाई । उसकी कोख में खानदानी विकृति बताई , देवताओँ का दोष बताया , यहाँ तक कि तलाक की धमकी भी दे डाली। 
उसके सुख का साम्राज्य दो वर्ष में ही उजड़ गया। 
घर के सब नोकरों की छुट्टी कर दी गई। सारा दिन घर का काम करते हुए वो अकेली ही चीनू को सम्भालती। डॉक्टर साहब की बेरुखी उसे तिल-तिल जलाती थी। जब साक्षी गर्भ में आई तो नो महीने तक उसके प्राण नखों में समाये रहे “कहीँ ये बच्चा भी चीनू जैसा…|” पिछले पच्चीस वर्षों से साक्षी ही यतीश की दुनिया है। उसे भरपूर दुलार, उच्च शिक्षा और सारी सुविधाएं दी यतीश ने। रंजीता से एक हद तक पतिधर्म निभा रहे है पर चीनू के लिए उनके जीवन में एक कतरा-भर भी जगह नहीँ है।  
                     
 गोविन्द इस दुनिया से जा चुका है।चीनू के हर जन्मदिन पर वह पूजा रखवाती है। उसे ढेरों आशीर्वाद देती है। यतीश की अनुपस्थिति चीनू के लिए कोई महत्व नही रखती। उसकी दुनिया का आदि और अंत माँ ही है पर रंजीता…। क्या विधान है ईश्वर का -एक बेर के आकार का अंश स्त्री के शरीर में कैसे धीरे -धीरे विकसित होता है। नो महीने तक रोज एक नई अनुभूति। कैसे एक पूर्ण शरीर; माँ के शरीर के भीतर से निकलकर सांस लेता है, उसे सृष्टा होने का मान देता है; उसके स्त्रीत्व को परिपूर्ण करता है। क्यों नहीँ उसे डॉ साहब जैसा मजबूत मन मिला  जो अपनी ही सृष्टि को इतनी बेदर्दी से नकार दे। 
                       
 उसने नियति मानकर सब स्वीकार कर लिया पर ये नया डर…। उसने और माँ ने तो सह लिया पर साक्षी…।  उसे लगता इन नौ  महीनों में वो पागल हो जायेगी। एक दिन साक्षी का फोन आया” माँ !आज आकाश की जरूरी मीटिंग है, आपको मेरे साथ डॉक्टर के चलना है।” साक्षी ने शायद पहले से डॉक्टर से बात कर रखी थी । माँ-बेटी सीधे सोनोग्राफी सेक्शन में पहुँचे। डॉक्टर ने स्क्रीन पर ‘बेबी’ के सारे मूवमेंट्स रंजीता को दिखाए। उसे डबल मार्कर टेस्ट की रिपोर्ट सही बताकर पूर्ण आश्वस्त किया कि बेबी पूरी तरह से नॉर्मल है। बाहर आते ही साक्षी माँ से लिपट गई और बोली” अब तो तुम निर्भय हो माँ?”  ख़ुशी के मारे आँखे गंगा-जमुना बहा रही थी। 
गाड़ी में बैठते ही रंजीता ने ड्राईवर को निर्देश दिया “मन्दिर चलो,मुझे प्रसाद चढ़ाना है|”
 रचना  व्यास
शिक्षा :  एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),  एल एल
बी ,  एम बी ए
लेखिका
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1 thought on “अभिशाप”

  1. बहुत भावपूर्ण कहानी..एक माँ की ममता और समाज के हृदयहीन व्यवहार का बहुत अच्छा चित्रण किया है

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