उस समय हम दिल्ली में नए-नए आये थे| मैं घर पर ही रहती थी| वो तब मेरे फ्लोर के ऊपर रहती थी| सुप्रीम कोर्ट में वकील थीं | उनसे जान- पहचान हुई , फिर दोस्ती | उस समय उनका बेटा 2 -2 1/2 साल का रहा होगा |वो मेरे साथ हिल-मिल गया | वो दुबारा कोर्ट जाना चाहती थीं| पर बेटे की देखरेख को किस पर छोडें ये सोंच कर शांत हो जाती थीं| अक्सर मेरे पास आ कर अपनी समस्या कहतीं, ” ये फुल टाइम मेड भी नहीं मिलती | क्या करू? कोर्ट जाना चाहती हूँ पर इसकी जिम्मदारी किस पर छोडू? मैं उन्हें कुछ मेड के नंबर देती जो दिन भर घर में रह कर बच्चे की देख रेख कर सके| उन्होंने उनमें से एक से बात कर उसे दिन भर के लिए लगा लिया|
उस दिन उनका कोर्ट जाने का पहला दिन था | बच्चा मेड के पास रहना था|जाहिर है एक माँ को अपने बच्चे को यूँ छोड़ते समय तकलीफ तो होती होगी | वो मेरे पास आयीं, और आँखों में आंसूं भर कर बोलीं, ” भाभी जी दिल तो यहीं रखा रहेगा| पता नहीं मेड बच्चे को कैसे ट्रीट करेगी? आप एक दो चक्कर ऊपर के लगा लेना|देख लेना प्लीज | मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा,” आप क्यों चिंता करती हैं , मैं हूँ ना , देख लूंगी | मैंने कई चक्कर ऊपर के लगाए| बच्चा क्योंकि मुझसे हिला हुआ था, मुझे देख कर मेरे साथ चलने की जिद करता| कभी मैं वहीँ बैठ कर उसे खिलाती तो कभी नीचे अपने साथ ले आती| इस तरह से कई दिन बीत गए| मेड को भी आराम हो जाता |
उस समय मेरे बच्चे भी बहुत बड़े नहीं थे| स्कूल जाते थे| एक माँ के लिए जब बच्चे स्कूल जाते हैं उस समय जो समय बचता है वो बहुत कीमती होता है| ऐसा लगता है कि ये समय सिर्फ मेरा है| मैं इस समय की रानी हूँ, जो चाहे करूँ | अब मेरा वो समय उस छोटे बच्चे के साथ कटने लगा| छोटे बच्चे को रखना आसान काम नहीं है | कब सुसु कब पॉटी या फिर कब काहना और सामान फैला दे , कहा नहीं जा सकता | फिर भी एक लगाव की वजह से मैं उसकी बाल सुलभ शैतानियों में लगी रहती| बीच – बीच में उसकी मम्मी उस मेड की बुराई करती रहती ,जैसे मिठाई वगैरह खा लेती है, उनकी क्रीम पोत लेती है आदि -आदि | मैं उन्हें वो चीजे ताले में रखने की हिदायत दे देती |
एक दिन वो मेरे पास आई और बोली ,” अब मैं इस मेड को नहीं रखूँगी| बहुत परेशांन करती हैं| पैसे भी दो और परेशानी भी सहो| मेरा बेटा आप से हिला हुआ है| आप भी उसे बहुत प्यार करती हैं| ऐसा करिए आप ही उसे रख लीजिये| मैं जो पैसे मेड को देती हूँ वो आप को दे दूंगीं |
यह सुनते ही मैं सकते मेरी आ गयी| मेरी भावना का मोल लगाया जा रहा था| आँखे डबडबा उठी| हालाँकि उनकी बॉडी लेंगुएज ये बता रही थी कि ये बात उन्होंने मेरा अपमान करने के लिए नहीं कहीं थी |उनकी सोंच प्रैक्टिकल थी| उन्हें लगा दिन भर घर में रहती हैं , ख़ुशी -ख़ुशी हाँ कर ही देंगी|
उनकी आशा के विपरीत बहुत मुश्किल से मैंने अपने को संयत कर के कहा , ” मेरा स्वास्थ्य इतना ठीक नहीं रहता| मुझे क्षमा करें मैं बच्चे को नहीं रख पाऊँगी| इट्स ओके कह कर वो चली गयीं| उन्होंने दूसरी मेड रख ली| कुछ दिक्कतों को वो जिक्र करती रही पर मेरा ऊपर के फ्लोर पर जाना कम हो गया| शायद वो मुझसे कहतीं भाभी जी प्लीज आप रख लीजिये, मैं भी निश्चिन्त रहूंगी तो मैं इनकार न कर पाती|
भावनाओं की कोई कीमत नहीं होती पर आजकल प्रैक्टिकल सोंच का जमाना है| वो प्रैक्टिकल सोंच जो पैसे से बनती बिगडती है| जहाँ खाली बैठना गुनाह है| जो भी समय है कुछ करने के लिए कमाने के लिए हैं | इसी लिए तो ह भावना रहित रोबोट बनते जा रहे हैं|
अन्दर के तालाब को सोख पैसों के ढेर पर बैठे कैक्टस होते इंसानों इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं हैं |
वंदना बाजपेयी
आज के भौतिकता वादी युग मे सभी बहुत प्रक्टिकल हो गए है यह भावनाओं का कोई मूल्य नही राह गया है
धन्यवाद
अद्वितीय ।हमारी सरलता को लोग मूर्खता समझते हैं ।
धन्यवाद आशा जी