कटघरे शब्द पढ़ते ही आँखों के सामने एक दृश्य उभरता है कटघरे में खड़े एक मुजरिम का और उसके पक्ष और विपक्ष में लड़ते वकीलों का| तभी आर्डर-आर्डर कहते हुए जज साहब एक फैसला दे देते हैं, फिर या तो कटघरे में खड़ा व्यक्ति बरी हो जाता है या उसे सजा हो जाती है| पर जिंदगी की अदालत ऐसी नहीं होती , यहाँ हम सब कटघरे में खड़े हैं , कहीं किसी ने हम को खड़ा कर रखा है तो कहीं हम ने ही खुद का खड़ा कर लिया है | यहाँ कोई जज नहीं है, पक्ष विपक्ष पेश करते वकील भी नहीं, इसलिए कोई फैसला नहीं होना है हम सब अपने – अपने कटघरों में फंसे जीवन घसीटने को अभिशप्त हैं | इसलिए कोई मुक्ति भी नहीं है | इसीलिये शायद हर इंसान परेशान है | कटघरे के अन्दर की पीड़ा, छटपटाहट और बेचैनी को भोगने के लिए विवश भी |
इस नयी सोंच के साथ एक खूबसूरत कहानी संग्रह ” कटघरे ” के साथ हम सब को कटघरे में खड़ा करने के बावजूद इस की लेखिका डेजी नेहरा जी पाठकों का दिल जीत ले जाती हैं | मानव मनोविज्ञान की गहराई में उतर कर नया प्रयोग करते हुए अपने पहले कहानी संग्रह “कटघरे ” के माध्यम से इस आरोप का खंडन करने में भी सफल हुई हैं कि हिंदी साहित्य में नए प्रयोग नहीं हो रहे हैं |
एक संवेदनशील मन के अन्दर ही इतना मनोवैज्ञानिक विचार आ सकता है| बिना किसी भूमिका के, बिना किसी लाग-लपेट के बहुत ही सरल शैली में डेजी जी छोटी- छोटी कहानियों के माध्यम से गहरी बात करती चली जाती हैं | कठिन को सरल बना देना उनके लेखन की ख़ूबसूरती है|
मुग्धा, अविश्वास की मारी हुई है| पति पर शक करके एक खूबसूरत रिश्ता खो देती है | इस पर उस पर शक करते हुए आगे बढती जाती है और अकेली होती जाती है| यहाँ तक की रिटायरमेंट में भी उसके साथ कोई इंसान नहीं आता , आता है तो उसका कटघरा , अविश्वास का कटघरा|
किशोर बेटी के प्रति पिता के बदलते व्यवहार के लिए एक पिता कटघरे में खड़े हैं | बहुत पहले किसी के बच्चे के जन्म पर मैंने एक बुजुर्ग महिला को कहते सुना था इसके संतान योग नहीं है | मैंने अपवाद किया कि ,”बेटी तो है “तो उन्होंने कहा, ” बेटियाँ तो बस पैदा हो जाती हैं संतान तो बेटे ही होते हैं | वही दर्द “माँ “कहानी पढ़ कर उभर आया जहाँ तीन बेटियों की माँ सिर्फ इसलिए माँ नहीं है क्योंकि उसने बेटे को जन्म नहीं दिया| माँ होते हुए भी माँ का दर्जा प्राप्त करने के लिए वो कटघरे में खड़ी है |
सेतु सुन्दर नहीं है ,पति और बच्चे को दुर्घटना में खो चुकी है , जाने कितनों की बुरी नज़र से खुद को बचाती है फिर भी वो सकारात्मक रहने व् खुश रहने का प्रयास करती है | समाज ने उसे कटघरे में खड़ा कर दिया है | उस पर आरोप है इतने दुखों के बीच खुश रहने का … “ जरूर कोई बात है “
मोहा , जो बच्चों के लिए दिन भर खटती हैं उसे उसके बच्चों ने ही कटघरे में खड़ा कर दिया | साँवली बेटी ने इंटरनेट से पढ़ कर उस पर आरोप लगाना शुरू कर दिया कि तुमने गर्भावस्था में अपने खाने -पीने का ध्यान नहीं रखा इसलिए मैं सांवली पैदा हुई | उम्र बढ़ने के साथ बेटी का अवसाद बढ़ता है और मोहा की उलझन | अवसाद ग्रस्त बेटी आत्महत्या करती है और मोहा को एक बेबुनियाद आरोप के साथ जिंदगी भर के लिए कटघरे में खड़ा कर जाती है | जहाँ से उसकी मुक्ति संभव नहीं है |
नकली भक्त में देवी पूजन में बालिकाओं का सम्मान करती व् अगले ही दिन से कामवाली की छोटी बेटी को काम पर बुलाती भक्त चाची ” नकली भक्त” के कटघरे में खड़ी हैं | डेजी जी ने आधुनिक माँ को भी कटघरे में खड़ा किया है , जो अपने फिगर पर ध्यान देती हैं बच्चों पर नहीं | शहर के बन्दर में वो नगर , निगम वन विभाग और सरकार सबको कटघरे में खड़ा करती है | जब जंगल काट दिए जायेंगे तो बेचारे बंदर क्या करें ?
संग्रह में 62 कटघरे हैं जहाँ हम , आप जैसे सब लोग खड़े हैं व् 11 अन्य कहानियाँ हैं | डेजी जी बड़ी ही सरलता से शुरुआत में घोषणा करती हैं –
कहानी हैं , संस्मरण हैं या किस्से हैं
सब जीवन के तो हिस्से हैं
ज्ञानी है , अज्ञानी हैं या मसखरे हैं
सबके देखो तो अपने -अपने कटघरे हैं
कटघरे की हर कहानी सरलता के साथ बुनी हुई छोटी सी कहानी है , पर इसका प्रभाव बहुत व्यापक है | ये छोटी – छोटी से कहानियाँ पाठक को बहुत देर तक सोंचने पर विवश कर देती हैं | ” संग्रह विश्वगाथा प्रकाशन ने निकाला है | इसका कवर पेज भी बहुत सुंदर व् प्रतीकात्मक है | सरल भाषा में कुछ गंभीर पढने की चाह रखने वाले पाठकों को निश्चित तौर पर यह संग्रह बहुत पसंद आएगा |
अपने पहले कहानी संग्रह “कटघरे” के लिए डेजी जी को हार्दिक बधाई व् उनके लेखकीय भविष्य के लिए शुभकामनाएं |
वंदना बाजपेयी
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बेहतरीन समीक्षा किया है आपने… आपको हार्दिक बधाई था लेखिका को बधाई संग शुभकामनाएँ भी!
Thankyou VERY much Vandana Ji …