यूँही पड़ी रहने दो कुछ दिन और कमरे मे—
हमारे सुहागरात की बिस्तर
और उसकी सिलवटे।
मोगरे के अलसाये व गजरे से गिरे फुल,
खोई बिंदिया,टूटी चुड़ियाँ!
और सुबह के धुंधलके की अंगडाई मे,
हमारे बाँहो की वे मिठी थकन!
कुछ दिन और———-
हमारे तन-मन,बिस्तर को जिने दो
ये सुहागरात।
फिर जिवन की आपाधापी मे ये छुवन की तपिस खो जायेगी,
तब शायद तुम और हम बस बाते करेंगे,
और ढ़ुढ़ेंगे पुरी जिंदगी———
इस कमरे मे अपनी सुहागरात।
और याद करेंगे हम बिस्तर की सिलवटे,
मोगरे के फुल,खोई बिंदिया,टूटी चुड़ियाँ
और सुहागरात के धुंधलके की वे अंगडाई,
जिसमे कभी हमारे तुम्हारे प्यार की मिठी थकन थी।
@@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी।
जज कालोनी,मियाँपुर
जौनपुर।
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